Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 23
________________ __ के आर. चंद्र पालि भाषा में भी अत्र तत्र ऐसे घोषीकरण के कुछ प्रयोग मिलते हैंक ग-पटिंगिच्च (दीघनिकाय, धम्मपद-अट्ठकथा) मागन्दि (मज्झिम निकाय, जातकट्ठकथा) प्रो. गाइगर ने (३८) ये उदाहरण नहीं दिए हैं । तन्द-निय्यादेति (जातकट्ठकथा), पटियादेति (दीघनिकाय), रुदं (जातकट्ठकथा, विदस्थि (धम्मपदअट्ठकथा) थ ध--गधित, (प्रथित) (देखिए गाइग र] । शिलालेखों में मी ऐसे उदाहरण मिलते हैं । प्रो० मेहेण्डले (पृ० २७३) के अनुसार ई. स. पूर्व तीसरी शती में उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण में, ई० स० पूर्व दूसरी शती में पूर्व और पश्चिम में और ई० स० पूर्व प्रथम शती में उत्तर-पश्चिम और मध्यक्षेत्र में त = द कभी कभी मिलता है । उसी प्रकार थ=ध प्रथम बार पूर्व और दक्षिण मे ई० स० की दसरी शती में और मध्यक्षेत्र में ई० स० पूर्व की प्रथम शती में मिलता है । डॉ. आल्सडर्फ के अनुसार तो घोषीकरण की प्रवृत्ति पूर्वी भारत से ही अन्य क्षेत्रों में फैली है ।' जहाँ तक वररुचि का सवाल है उनके बारे में ऐसा कहना ही उचित होगा कि नाटकों में जो प्राकृत भाषा मिलती है उसमें त का द प्रचुर मात्रा में मिलता है अतः उन्होंने त-द को अपनी प्राकृत में भी स्थान दिया होगा । उपसंहार के रूप में ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि प्राकृत की प्रारंभिक अथवा प्राचीन अवस्था में अमुक अमुक अघोष व्यंजनों के लिए घोष व्यंजनों का प्रयोग होता था । परंतु 1. Historical Grammar of Inscriptional Prakrits, Poona, 1948 2. Kleine Schriften, p 451 (1974 AD) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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