Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 65
________________ ५६ के. आर चन्द्र परिनिब्बाणं २ २ ४० अभिनिवट्टमाणा २.३.५६, ५७. परिनिब्बुडे २ ४.६७ नवनीय २.१.९. (VI) उत्तराध्ययन (म. जै. वि.) . अनुच्चे १.३०, सुनिट्ठिर १३६ परिनिष्ठिए २.३२ । प्राचीन प्राकृत भाषाओं मे ही नहीं परंतु अपभ्रंश भाषा में भी मध्यवर्ती नकार वाले प्रयोग मिलते हैं जो हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण (अध्याय ८.४) से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। यथा-विरहानल, अनु (अन्यथा) ४१५, वडनवानल ३६५, विनडिज्जइ ३७०, विनडउ ३८५ सासानल. ३९५, रयणनिहि ४२२ इत्यादि । संयुक्ताक्षर में भी नकार प्राप्त है । यथा-बिन्नि, विन्नासिया ४१८, अघिन्नई(अधीनानि) ४२७ । इस प्रकार प्राकृत साहित्य में और वह भी सविशेष प्राचीन प्राकृत साहित्य में मध्यवर्ती नकार के प्रयोग की बिलकुल नास्ति नहीं रही है । कभी कम मात्रा मे तो कभी अधिक मात्रा में अपवाद के रूप में भी उसका प्रयोग होता रहा है, और विभक्ति प्रत्यय में भी चार छ उदाहरण दन्त्य नकार वाले प्राप्त हुए हैं (स्. कृ. के आगे के चूर्णी-पाठ भी देखिए ) । (ख) हस्तप्रतों में मध्यवर्ती नकार . हस्तप्रतों का अवलोकन करने पर यही स्थिति उपलब्ध होती है । यहाँ पर एक वस्तु ध्यान में लेने योग्य यह है कि प्राचीन ग्रंथों के सम्पादकों ने शायद यह नियम स्वीकार कर लिया कि सम्पादित ग्रंथ में मध्यवर्ती नकार वाले पाठान्तरों का निर्देश करना व्यर्थ है क्योंकि प्राकृत भाषा के व्याकरणों के अनुसार मध्यवर्ती नकार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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