Book Title: Panchsangraha Tika Part_2
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ नाग टीका पंचसं मेव कालं नाधिकं, एतचाग्रे सप्ततिकाधिकारे सप्रपंचं नावयिष्यते ॥ १३ ॥ ॥ मूलम ॥-अन्नयरं वेयगीयं । नचं नामस्स चरमुदयान॥ मणुयान अजोगं वा । सेसान फुचरिममयंता ॥ १० ॥ व्याख्या-अन्यतरत्सातमसातं वा वेदनीयं, नच्चैर्गोत्रं, त६६॥ श्रा या नानो नामकर्मणश्चरमोदया नव प्रकृतयस्तद्यथा-मनुजगतिः, पंचेंश्यि जातिः, त्र र सनाम, वादरनाम, पर्याप्तनाम, सुलगनाम, आदयनाम, यशःकीर्तिः, तीर्थकरनामेति, तथा मनुष्यायुः, एता हादशप्रकृतयोऽयोग्यता अयोगिचरमसमयपर्यवसानाः, यावदयोगिचरमसः मयस्तावत्सत्य इत्यर्थः शेषाः पुनरन्यतरवेदनीयदेवहिकौदारिकसप्तकवैक्रियसप्तकाहारकतैजसकार्मणसप्तकप्रत्येकसंस्थानषट्कसंहननषट्कवर्णादिविंशतिविहायोगतिहिकाऽगुरुलघुपराघातोपघातोच्नास स्थिरास्थिरशुनाशुनपुगसुस्वरदुःस्वराऽनादेयाऽयशःकीर्तिमनुष्यानुपूर्वीनिर्माणाऽपर्याप्तक* नीचैर्गोत्ररूपास्यशीतिसंख्या अयोगिकेवलिनि विचरमसमयांता अयोगिकेवलिनो हिचरम समये कयमुपयांतीत्यर्थः तदेवमुक्तमेकैकप्रकृतिसत्कर्मविषयं स्वामित्वं, संप्रति प्रकृतिसत्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358