Book Title: Panchsangraha Tika Part_2
Author(s): Chandrashi Mahattar, Malaygiri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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पंचसं० टीका
॥ ६१२ ॥
|| मूलम् ॥ - नदववई रोग विई । प्रणुदयवईयाणु समया एगा || होइ जहन्नं सत्तं । दसद पुल संकमो चरिमो ॥ १४४ ॥ व्याख्या - उदयवतीनां ज्ञानावरणपंचकांतराय पंचकदर्शनावरणचतुष्टयवेदकसम्यक्त्व संज्वलनलोजायुश्चतुष्टयन पुंसकवेदस्त्री वेदसातासात वेदनीयोञ्चैर्गोत्रमनुजगतिपंचेंदियजातित्र सबादरपर्याप्त सुनगादेय यशःकीर्त्तितीर्थकररूपाणां चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां स्वस्वयपर्यवसानसमये या एका समयमात्रा स्थितिः सा जघन्यस्थितिसत्क र्म, अनुदयवतीनां पुनर्वक्ष्यमाणप्रकृतिदश कवर्जितानां चतुर्दशोत्तरशतसंख्यानां स्वस्वकयोपांत्य समये या स्वरूपापेक्षया समयमात्र स्थितिः, अन्यथा हिसमयमात्रकाला, सा जघन्यस्थितिसत्कर्म, अनुदयवतीनां हि दलिकं चरमसमये स्तिबुकसंक्रमेणोदयवतीषु प्रकृतिषु म ये प्रतिपति, तत्स्वरूपेण चानुजवति, तेन चरमसमये तासां दलिकं स्वरूपेण न प्राप्यते; किंतु पररूपेण, तत उक्तं स्थितिर्हिसमयमात्रेति दशानां पुनर्दास्यादिप्रकृतीनां य एव चरमसंक्रमः, स एव जघन्यस्थितिकं सत्कर्म. ता हि बंधे नदये व्यवचिन्ने सति अन्यत्र संक्रमेकयं नीयते तत एव चरमसंक्रमः, स एव तासां जघन्यं स्थितिसत्कर्म ॥१४४॥ तथा चाद
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नाग २
॥ ६१२॥
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