Book Title: Panchastikay Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ जीव-पुद्गलः यहाँ यह ध्यातव्य है कि जो जीव आवागमनात्मक संसार में स्थित है, उसके जीवन में राग-द्वेष के उत्पन्न होने से पुद्गलमयी द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है और उसके कारण विभिन्न गतियों में गमन होता है। विभिन्न गतियों में विभिन्न प्रकार के शरीर व इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण और उनसे राग-द्वेष की उत्पत्ति होने के कारण पुद्गल द्रव्य कर्म की उत्पत्ति से संसार चक्र चालू हो जाता है। कहा गया है कि यह संसार भ्रमण जीवों की योग्यता के अनुसार अनादि-अनन्त अथवा अंत-सहित होता है। आम्रव-बंधः जीव के शुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पुण्य है और अशुभ परिणाम से पुद्गल का कर्मरूप परिवर्तन पाप है। जब जीव के मन में शुभराग, दया-भाव तथा कलुषता का अभाव होता है तो पुण्य कर्म का आस्रव-बंध होता है। शुभ राग के अन्तर्गत हैः अरहंत, सिद्ध, साधु में भक्ति, धर्म-मार्ग पर चलने का प्रयत्न, गुरुओं के मार्ग का अनुसरण। दया-भाव उस समय कहा जाता है जब कोई जीव प्यासे को, भूखे को तथा किसी दुखीको देखकर करुणा भाव से उनके दुख का निवारण करने का प्रयत्न करता है। कलुषता का अभाव तब होता है जब मन में क्रोध, मान, माया और लोभ विद्यमान नहीं होता और मन व्याकुलता-रहित होता है। । जीव के अशुभ परिणमन से पाप का आस्रव-बंध होता है। असावधानी से व्याप्त चर्या, मन में मलिनता, इन्द्रिय विषयों में लोलुपता, अन्य मनुष्यों को कष्ट पहुँचाना, उनकी निन्दा करना, आर्त और रौद्र ध्यान, ज्ञान की दुरुपयोगिता, आत्मविस्मृति आदि से पाप का आस्रव-बंध होता है। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98