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110. पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया । देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं । ।
पुढवी
य
उदगमगण
संसिदा
काया
देंति
[(उदगं) + (अगणी)] उदगं (उदग) 1/1 अगणी (अगणि) 1/1
अग्नि
वाउवणप्फदिजीव- [(वाउ) - (वणप्फदि) - (जीव) - वायु, वनस्पति जीव
(संसिद) भूक 1/2 अनि ]
आश्रित
(काय) 1 / 2
शरीर
(दे) व 3/2 सक
उत्पन्न करते हैं निश्चय ही
खलु
मोहबहुलं
फासं
बहुगा
dotc
वि
तेसिं
(पुढवी) 1/1
अव्यय
1.
(14)
पृथ्वी
और
(फास) 2/1
(बहुग) 1/2 वि
'ग' स्वार्थिक
अव्यय
[ ( मोह) - (बहुल) 2 / 1 वि ] मोह से व्याप्त
अव्यय
(त) 1/2 सवि
(त) 6 / 2-7 / 2 सवि
जल
स्पर्शन इन्द्रिय को
अनेक
tic to
उनमें
अन्वय
काया खलु वि ते तेसिं मोहबहुलं फासं देंति ।
अर्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति - (ये) अनेक शरीर जीव आश्रित हैं। निश्चय ही वे (शरीर) उनमें मोह से व्याप्त स्पर्शन इन्द्रिय को ही उत्पन्न
करते हैं।
पुढवी उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा य बहुगा
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134 )
पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ -अधिकार