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109. जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा। उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ।।
जीवा
संसारत्था
णिव्वादा
चेदणप्पा
M
ओगलक्खणा
व
य
देहादेहप्पवीचारा'
(जीव ) 1/2
(संसारत्थ) 1/2 वि
(णिव्वाद) भूकृ 1/2 अनि
( चेदणप्पग ) 1/2 वि
[(3) fa-(fax) 1/2] [(उवओग)( लक्खण) 1 / 2 वि]
अव्यय
अव्यय
-
[(देह)+(अदेहप्पवीचारा)] {[(देह)-(अदेह)
( प्पविचार ) 1 / 2 ] वि}
जीव
संसार में स्थित
निष्पन्न
चेतना स्वभाववाले
दो प्रकार
उपयोग लक्षणवाले
भी
तथा
देह और अदेहरूप में
विवेचनवाले
अन्वय- जीवा दुविहा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा उवओगलक्खणा य वि देहादेहप्पवीचारा ।
अर्थ - जीव दो प्रकार के हैं: 1. (जो) संसार में स्थित अर्थात् संसारी 2. (जो ) निष्पन्न ( हो चुके हैं) अर्थात् सिद्ध / मुक्त। (वे जीव ) चेतना स्वभाववाले (और) उपयोग लक्षणवाले (हैं) तथा देह और अदेहरूप में भी विवेचनवाले ( हैं ) अर्थात जो देह- सहित है वे संसारी और जो देह - रहित है वे सिद्ध / मुक्त जीव कहलाते हैं।
1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'प्पविचार' का 'प्पवीचार' किया गया है।
पंचास्तिकाय (खण्ड-2 ) नवपदार्थ - अधिकार
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