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इसकी विषयवस्तु को देखने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ जैन विधि-विधानों से समबन्धित है।
इन 19 विषयों पर चिन्तन करने से यह ज्ञात होता है कि इसमें अनेक विषय गृहस्थ के आचार से सम्बधित है, तो कुछ विषय मुनि के आचार से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विषय ऐसे हैं जो गृहस्थ और मुनि दोनों से सम्बन्धित हैं, यद्यपि जिनचैत्य निर्माण, जिनप्रतिमा प्रतिष्ठा, जिनपूजा, जिनयात्रा आदि-ऐसे विषय हैं, जो मुख्यतः तो गृहस्थ से सम्बन्धित हैं, किन्तु मुनियों का भी यह दायित्व माना गया है कि वे इनकी प्रेरणा दें। साथ ही साथ भाव-पूजा तो साधुओं का भी कर्तव्य है। मुख्यतः इन विषयों का सम्बन्ध जैन आचार एवं विधिविधानो से है और आचार एवं विधि विधान का दायित्व गृहस्थ और साधु दोनों का माना गया है और इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर यह शोधकार्य किया गया है।
आचार्य हरिभद्र ने इन 19 विषयों के आधार पर इस पंचाशक प्रकरण में श्रावक जीवन और मुनि जीवन के लगभग सभी पक्षों को समाहित करने का पुरूषार्थ किया है, किन्तु इसके अतिरिक्त चैत्वन्दन, पूजाविधि, जिनभवननिर्माणविधि, जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि, जिनयात्राविधि आदि ऐसे विषय भी हैं जिनके सम्बन्ध में आगमों और आगमिक व्याख्याओं में भी विशेष चर्चा नहीं मिलती, इन विषयों की विस्तारपूर्वक चर्चा करने वाला पंचाशकप्रकरण एक प्राचीनतम ग्रन्थ सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र की यह भी विशेषता रही है, कि उन्होंने श्रावक जीवन और साधु जीवन से सम्बन्धी जिन विषयों की चर्चा की है उन पर वे कहीं-कहीं एक नवीन दृष्टिकोण से भी अपनी बात रखते हैं और उस सम्बन्ध में उठने वाली समस्याओं का निराकरण करने का प्रयत्न करते हैं। यह एक स्पष्ट तथ्य है कि आचार्य हरिभद्र जिस भी विषय को प्रस्तुत करते हैं वह केवल विवरणात्मक नहीं होता, उसके पीछे उनका गहन चिन्तन भी होता है, जो परम्परा और परिस्थिति दोनों के साथ समन्वय करते हुए आगे बढ़ता है। यह स्पष्ट है कि आचार्य हरिभद्र का चिंतन मात्र रूढ़िवादी नहीं है। उन्होंने परम्परागत नियमों की भी तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर समीक्षात्मक विवेचना की है और इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि गृहस्थ आचार एवं मुनि आचार के सम्बन्ध में भी आचार्य हरिभद्र ने विवरणात्मक विवेचन ही नहीं किया अपितु अनेक प्रसंगो में नवीन दृष्टि से सोचने का प्रयत्न भी किया है, तथा उन्हें अपने युग के साथ
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