Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 6
________________ ( ५ ) क-स्वामी अमृतचन्द्रसूरि विरचित हरएक ग्रन्थके मङ्गलाचरणोंमें अनेकान्त-जैन शासन और केवलज्ञान ज्योतिको ही नमस्कार करनेकी प्रधानता पाई जाती है, जैसा कि निम्न लिखित मङ्गलाचरणोंके वाक्योंसे स्पष्ट है (१) जीयाज्जैन शासनमनादिनिधनम् ( पञ्चाध्यायी ) (२) जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः ( पञ्चास्तिकाय टीका ) (३) अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः अनेकान्तमपी स्मृर्तिः (नाटक समयसार कलशा ) (४) अनेकान्तमयं महः ( प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति ) (५) अर्थालोकनिदानं यस्य वचः ( पञ्चाध्यायी ) (६) जयत्यशेषतत्वार्थप्रक्षाशि ( तत्त्वार्थसार ) (७) तज्जयति परं ज्योतिः ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) (८) ज्ञानानन्दात्मने नमः (प्रवचनसार टीका) ख-निम्न लिखित श्लोकोंसे शब्द रचना तथा भावोंकी समता भी मिलती हैयस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिनां ज्ञाननिर्वृताः। अज्ञानमयभावानां नावकाशः सुदृष्टिषु ।। ( पञ्चाध्यायी) ज्ञानिनो ज्ञाननिवृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेप्यज्ञाननिना भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥ ( नाटकसमयसारकलशा) निश्चयव्यवहाराभ्यामविरुद्धयथात्मशुद्ध्यर्थम् । अपि निश्चयस्थ नियतं हेतुः सामान्यमात्रमिह वस्तु॥ (पञ्चाध्यायी) निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्यादद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ ( तत्त्वार्थसार ) लोकोयं मेहि चिल्लोको नूनं नित्योस्ति सोर्थतः। नापरो लौकिको लोकस्ततो भीतिः कुतोस्ति मे ॥ (पञ्चाध्यायी) चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः। . लोको यन्न तवापरस्तदपरस्तस्यापि तङ्गीः कुतः * . (नाटकसमयसारकलशा) ग-पुरुषार्थसिद्धयुपायमें सिद्ध किया गया है कि रत्नत्रय कर्मबन्धका कारण नहीं है, किन्तु रागद्वेष और कर्मबन्धकी व्याप्ति है । इसी प्रकार पञ्चाध्यायीमें भी शब्दान्तरोंसे उसी बातका निरूपण किया गया है, जैसा कि निम्न लिखित श्लोकोंसे सिद्ध होता है--- * यद्यपि इस प्रकारकी समता भिन्न २ ग्रन्थकारों के ग्रन्थों में भी पाई जाती है, परन्तु यहां पर दिये हुए अन्य अनुमानोंके साथ उपर्युक्त अनुमान भी प्रकृत विषयका साधक प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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