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एकादश उद्देशक - स्वेच्छाचारी की प्रशंसा एवं वंदना का प्रायश्चित्त
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आगमों में नैवेद्य पिण्ड के दो प्रकार बतलाए गए हैं - १. भिक्षु निश्राकृत एवं २. भिक्षु अनिश्राकृत।
साधु को भिक्षा में देने की मनोभावना लिए हुए जो देव नैवेद्य तैयार किया जाता है, वह साधु निश्रित कहा जाता है। देने वाले के मन में देवता को चढाने के अनन्तर उस नैवेद्य में से साधु को भी दान में देना उद्दिष्ट रहता है। इस प्रकार के भिक्षु निश्रित नैवेद्यपिण्ड को लेने से भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . ___ जहाँ किसी नगर या गाँव में भिक्षु हो या न हो, स्वाभाविक रूप में देवों को समर्पित करने हेतु नैवेद्य पिंड बना हो, दान में देने हेतु रखा हो, वह अनिश्रित भिक्षु पिण्ड कहा जाता है। क्योंकि उसके निर्माण में साधु को देना उद्दिष्ट नहीं रहा है।
अकस्मात् यदि कोई भिक्षु वहाँ आ जाए और उसमें से ले ले तो वह दानपिण्ड ग्रहण से संबद्ध दोष है। इसी (निशीथ) सूत्र के दूसरे उद्देशक में आए हुए दानपिण्ड विषयक दोषों में यह वर्णित है, जिसका लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है।
स्वेचाचारी की प्रशंसा एवं वन्दना का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ पसंसंतं वा साइजइ॥ ८५॥ जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ वंदंतं वा साइज्जइ॥८६॥
कठिन शब्दार्थ - अहाछंदं - स्वच्छन्द - स्वेच्छाचारी, पसंसइ - प्रशंसा करता है, वंदइ - वंदना करता है। ... भावार्थ - ८५. जो भिक्षु स्वेच्छाचारी या स्वच्छंद आचरण युक्त भिक्षु की प्रशंसा करता है या प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
- ८६, जो भिक्षु स्वेच्छाचारी या स्वच्छंद आचरण युक्त भिक्षु को वंदना करता है अथवा वंदना करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों में 'अहाछंद - यथाछंद' पद का प्रयोग उस भिक्षु के लिए हुआ है, जो जैसा मन में आए, वैसा ही आचरण करे। कुछ भी करते समय अपनी चर्या के नियमोपनियमों के उल्लंघन की परवाह न करे।
. "स्वस्य छन्दः - अभिप्रायः, तदनुसारेण प्ररूपयति करोति स यथाछन्दः" छन्द का तात्पर्य अभिप्राय है। जिसके मन में जैसा भी विचार आए, उसके
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