Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 456
________________ विंश उद्देशक - द्वैमासिक प्रायश्चित्त: स्थापन - आरोपण' २२. पंचमासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्व की भाँति ज्ञातव्य है) यावत् पुनः दोष असेवित करने पर दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है । २३. चातुर्मासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्व की भाँति ज्ञातव्य है) यावत् पुनः दोष आसेवित करने पर दो मास तथा बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है । ४२३ २४. त्रिमासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्व की भाँति ज्ञातव्य है ) यावत् पुनः दोष आसेवित करने पर दो मास एवं बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है । २५. द्विमासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा ( इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्व की भाँति ज्ञातव्य है ) यावत् पुनः दोष आसेवित करने पर दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। २६. एक मासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्व की भाँति ज्ञातव्य है ) यावत् पुनः दोष आसेवित करने पर दो मास तथा बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है । विवेचन - कोई भी साधक, भिक्षु अपने व्रत, चर्या आदि के प्रति जब असावधान होता है, प्रमादयुक्त होता है तब वह अपनी मर्यादाओं तथा नियमों का भलीभाँति पालन नहीं कर पाता, उनमें दोष लगा लेता है। प्रमाद का होना साधनामय जीवन में बहुत बड़ी कमी है। कहा है “सव्वओ पमत्तस्स भयं सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं” प्रमादयुक्त साधक के लिए सर्वत्र भय ही भय है । जो प्रमादयुक्त नहीं होता उसके लिए कहीं भी भय नहीं है। प्रमाद न हो या अल्पतम हो, किन्तु यदि परिपक्वता और अनुभव की कमी हो तो भी भूल हो सकती है, दोष लग सकता है। वहाँ साधक का दोष लगाने का इरादा नहीं होता या बहुत कम होता है। पहलेपहल दोष लगने में प्रायः ऐसी स्थिति होती है। यह स्थिति एक सीमा तक क्षम्य है। इसलिए भिक्षु द्वारा सर्वप्रथम दोष लगाए जाने पर उस पर अनुग्रह करते हुए कुछ कम प्रायश्चित्त दिए जाने का यहाँ विधान हुआ है। उसे सानुग्रह प्रायश्चित्त कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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