Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 454
________________ विंश उद्देशक - प्रस्थापना में दोष प्रतिसेवन : प्रायश्चित्त आरोपण ३. मायासहित आलोचना का संकल्प कर मायारहित आलोचना की गई हो, ४. मायासहित आलोचना का संकल्प कर मायासहित आलोचना की गई है। इस प्रकार उपरोक्त में से किसी प्रकार (के भंग) से आलोचना करने पर उसके सभी स्वकृत (स्वयं द्वारा किए गए) अपराध के प्रायश्चित्त को पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो भिक्षु इस प्रकार से ( प्रायश्चित्त रूप ) परिहार तप में स्थित रहते हुए पुन: किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका संपूर्ण प्रायश्चित्त भी उसी प्रकार (पूर्व की भांति) पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में जोड़ देना चाहिए। १८. कोई भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक अथवा (जिस प्रकार पूर्व में अनेक बार) किसी दोष का प्रतिसेवन करें यावत् पूर्वप्रदत्त दोषों में इस प्रायश्चित्त को भी आरोपित कर देना चाहिए - जोड़ देना चाहिए। इस प्रकार मायासहित आलोचना करने पर (भी) उसे परिहार तप रूप प्रायश्चित्त में स्थापित कर वैयावृत्य करनी चाहिए (इत्यादि वर्णन "यहाँ पूर्व सूत्र की भाँति ग्राह्य है ।) + १९. कोई भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहार स्थानों में से किसी परिहार स्थान का प्रतिसेवन कर मायारहित होकर परिहार स्थान की आलोचना करे ( इत्यादि पूर्ववत् वर्णन यहाँ यथावत् है) यावत् मायासहित आलोचना का संकल्प कर मायारहित आलोचना करे या मायासहित आलोचना का संकल्प कर मायासहित आलोचना करने पर उसका प्रायश्चित्त पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए । ४२१ २०. किसी भिक्षु द्वारा अनेक बार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक परिहार स्थान की आलोचना करने पर (इत्यादि वर्णन यहाँ पूर्ववत् योजनीय है, अन्तर इतना सा है, यहाँ मायासहित आलोचना करने की ओर संकेत है) यावत् सभी दोष पूर्वकृत प्रायश्चित्त में शामिल कर दिए जाते हैं एवं मायासहित आलोचना करने आदि का प्रसंग पूर्ववत् ही है । विवेचन - इन सूत्रों में प्रायश्चित्त विषयक व्यवस्था का क्रमबद्ध विश्लेषण है। सूत्रों के भावार्थ से वह स्पष्ट है। प्रायश्चित्त संवहन या धारण के संदर्भ में यहाँ स्थापन और प्रस्थापन शब्दों का प्रयोग हुआ है । 'स्थाप्यते - गृह्यतेऽनेन इति स्थापनम् ।" स्थापन या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466