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निशीथ सूत्र
जे भिक्खू चाउम्मासियं वा साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा साइरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, अपलिउंचिय आलोएमाणे (जहा हेट्ठा) जाव पलिउँचिए अपलिउंचियं, पलिउंचिए पलिउचियं आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्टविए णिव्विसमाणे पडिसेवेइ सेवि कसिणे तत्थेव आरुहेयव्वे सिया॥ १९॥ ___ जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं वा (जहा हेट्ठा णवरं पलिउंचिए) जाव आरुहेयव्वे सिया एवं पलिउंचिए॥ २०॥
कठिन शब्दार्थ - ठवणिज्जं - स्थापनीयं - स्थापित करना चाहिए, ठवइत्ता - स्थापयित्वा - स्थापित कर, कसिणे - कृत्स्न - संपूर्ण, आरुहेयव्वे - आरोपित करना चाहिए - सम्मिलित करना चाहिए, पुब्बिं - पहले, सकयं - स्वकृतं - उसके द्वारा आचरित (किए गए), साहणिय - संहृत्य - एकत्र कर, पट्ठविए - प्रस्थापित कर, णिव्विसमाणे - तप में निरत रहते हुए। __ भावार्थ - १७. किसी भिक्षु द्वारा चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक - इन परिहारस्थानों में से किसी परिहारस्थान का (एक बार) प्रतिसेवन कर मायारहित आलोचना करने पर (आसेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप) परिहार तप में स्थापित कर उसकी (आवश्यक) वैयावृत्य करनी चाहिए।
यदि वह परिहार तप में स्थित रहते हुए भी कोई (दोष) प्रतिसेवना करे तो इसका प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में जोड़ देना चाहिए, यदि -
१. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पूर्व में आलोचना की हो, २. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पश्चात् आलोचना की हो, ३. पश्चात् प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, ४. पश्चात् प्रतिसेवित दोष की बाद में (पीछे) आलोचना की हो। तथा - १. मायारहित आलोचना का संकल्प कर मायारहित आलोचना की गई हो, २. मायारहित आलोचना का संकल्प कर मायासहित आलोचना की गई हो,
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