Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 455
________________ ४२२ निशीथ सूत्र स्थापना का अर्थ सर्वप्रथम - पहलेपहल प्रायश्चित्त वहन करना है। 'प्रकर्षेण स्थाप्यतेऽनेन इति प्रस्थापनम्' - प्रकृष्ट रूप में अर्थात् सर्वप्रथम गृहीत या धारित - वहन किए जाते प्रायश्चित्त काल में दोष लगने पर प्रायश्चित्त दिया जाना प्रस्थापन या प्रस्थापना कहा जाता है। प्रस्थापन काल में यदि दोष लग जाते हों तो उनके प्रायश्चित्त को भी पूर्वतन प्रायश्चित्त में योजित करने का यहाँ प्रतिपादन हुआ है। द्वैमासिक प्रायश्चित्त : स्थापन-आरोपण छम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, अहावरा वीसइराइया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअटुं सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं, तेण परं सवीसइराइया दो मासा॥ २१॥ पंचमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दो मासा॥ २२॥ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं (जहा हेट्ठा) जाव दो मासा॥ २३॥ तेमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दो मासा॥ २४॥ दोमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दो मासा॥ २५॥ मासियं परिहारहाणं (जहा हेट्ठा) जाव दो मासा॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ - अहावहा - अथापरा - इसके पश्चात्, आइमज्झावसाणे - आदिमध्यावसाने - प्रारंभ, मध्य या अन्त में, सअटुं - प्रयोजन सहित, सहेउं - (सामान्य) कारण सहित, सकारणं - विशेष कारण सहित, अहीणमइरित्तं - न कम न अधिक, सवीसराइया - बीस रात्रि का। भावार्थ - २१. छह मासिक प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (प्रायश्चित्त वहन काल के) प्रारंभ, मध्य या अंत में प्रयोजन हेतु या (विशेष) कारणपूर्वक दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन कर आलोचना करने पर न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। इसके पश्चात् पुनः दोष आसेवित करने पर दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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