Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 430
________________ एकोनविंश उद्देशक - प्रपाणक ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त ३९७ ३. जो भिक्षु प्रपाणक आदि पेय पदार्थ परस्पर बदलता है, बदलवाता है या बदल कर दिए जाते हुए को प्रतिगृहीत करता है अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ___४. जो भिक्षु छीन कर लिए हुए, अनेक स्वामियों के आधिपत्य युक्त (उनकी आज्ञा के बिना) लाए हुए या बिना याचना ला कर दिए जाते हुए प्रपाणक (आसव आदि औषध) को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ५. जो. भिक्षु ग्लान (रोगी भिक्षु) के लिए तीन दत्ती से अधिक प्रपाणक (विशेष आरोग्यप्रद पेय पदार्थ) ग्रहण करता है या ऐसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ६. जो भिक्षु प्रपाणक को गृहीत कर एक गांव से दूसरे गाँव विहार करता है अथवा विहार करते हुए का अनुमोदन करता है। ७. जो भिक्षु (स्वयं) प्रपाणक पदार्थ को गलाता - तैयार करता है, गलवाता है या गला कर दिए जाते हुए का अनुमोदन करता है। ___ इस प्रकार उपर्युक्त दोष सेवन करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इन सूत्रों में प्रयुक्त (अर्धमागधी प्राकृत के) 'वियड' शब्द के संस्कृत में विकृत, विवृत तथा विकट आदि अनेक रूप होते हैं। यहाँ 'वियड' शब्द विकृत सूचक है। 'विपरीतं कृतम् - विकृतम्' किसी पदार्थ में अन्य पदार्थ मिला कर विशिष्ट प्रक्रिया या प्रयोग द्वारा उसका स्वरूप परिवर्तित कर दिया जाता है, उसे विकृत कहा जाता है। भाषा शास्त्रीय दृष्टि से प्राचीन काल में विकार का प्रयोग परिवर्तन के अर्थ में होता था। अपने मूल, व्यक्त स्वरूप से भिन्न रूप और भिन्न प्रभाव प्राप्त वस्तु को विकृत - विकारयुक्तपरिवर्तन युक्त कहा जाता भाषा कालक्रम से सामाजिक मान्यताओं तथा मानसिकताओं के आधार पर परिवर्तन के अनेक स्तरों में से गुजरती है। वैसी स्थिति में आगे चल कर विकार (परिवर्तन) या विकृति में दूषितता का योग जुड़ गया, जिससे बिगाड़ के अर्थ में उसका प्रयोग होने लगा। यहाँ 'वियड - विकृत' शब्द आरोग्यप्रद प्रपाणक के अर्थ में है। विशिष्ट, तरल, पेय औषधियों को प्रपाणक कहा जाता है। उनमें आसव, अरिष्ट, फांट, क्वाथ तथा अर्क आदि का समावेश है। इतर जड़ी बूटियों के योग और आयुर्वेदिक प्रक्रिया द्वारा इनका मूल रूप परिवर्तित हो जाता है, ये अचित्त हो जाते हैं। इनमें से आसव, अरिष्ट आदि में यत्किंचित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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