Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 436
________________ एकोनविंश उद्देशक - विहित काल में स्वाध्याय न करने का प्रायश्चित्त पौरुषी में, उवाइणावेइ कठिन शब्दार्थ- पोरिसिं अतिक्रायति - उल्लंघन करता है ( स्वाध्याय नहीं करता है), चाउकालं चारों ( स्वाध्याय) काल में । भावार्थ - १३. जो भिक्षु पोरसी काल (स्वाध्याय काल) में स्वाध्याय नहीं करता या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। १४. जो भिक्षु चारों (स्वाध्याय) काल में स्वाध्याय नहीं करता अथवा नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - भिक्षु के जीवन में स्वाध्याय का अत्यंत महत्त्व है। स्वाध्याय निर्जरा के बारह भेदों में दसवाँ भेद है । स्वाध्याय का तात्पर्य पठित आगमों की आवृत्ति करना तथा अभ्यास करना है। इससे विपुल रूप में निर्जरा होती है। इसलिए यह उत्तम तप है। - मानसिक एकाग्रता की दृष्टि से स्वाध्याय बहुत ही लाभप्रद है। वह धर्मध्यान का अनन्य हेतु है। जब साधक स्वाध्याय में अभिरत हो जाता है तब वह जागतिक विषयों को भूल जाता है और आत्मस्थ हो जाता है । 'स्वस्य - आत्मनः अध्यायः - स्वाध्यायः स्वाध्याय शब्द की यह व्युत्पत्ति इसी भाव की द्योतक है। स्वाध्याय से श्रुतज्ञान सुस्थिर, विकसित एवं समृद्ध होता है। त्याग, वैराग्य, संयम, आत्मोपासना तथा साधना में अभिरुचि बढती है। इससे साधक मन और इन्द्रियों को निगृहीत नियंत्रित करने में सफल होता है । आगमानुसार दिवस की प्रथम एवं अन्तिम पौरुषी तथा इसी प्रकार रात्रि की प्रथम और अन्तिम पौरुषी - ये चार, कालिकश्रुत की अपेक्षा से स्वाध्याय काल माने गए हैं। इन चारों में भिक्षु स्वाध्याय करे, यह वांछित है। स्वाध्याय में उपयोग न कर कथा, विकथा, निरर्थक वार्तालाप आदि में इन्हें व्यतीत करना इनका दुरुपयोग है, दोषयुक्त है। ये ज्ञान का अतिचार है। Jain Education International इन चारों ही कालों में स्वाध्याय न करना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है । अत एव वैयावृत्यादि विषयक आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त भिक्षु इन कालों का सर्वदा स्वाध्याय में ही उपयोग करे । * १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. भिक्षाचरी, ४. रसपरित्याग, ५. कायक्लेश, ६. प्रतिसंलीनता ७. प्रायश्चित्त, ८. विनय, ९. वैयावृत्य, १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान, १२. व्युत्सर्ग। For Personal & Private Use Only ४०३ - औपपातिक सूत्र - - 2 ३० www.jainelibrary.org

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