Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 444
________________ एकोनविंश उद्देशक- गृहस्थ से वाचना आदान-प्रदान विषयक.... गृहस्थ से वाचना आदान-प्रदान विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ ॥ २५ ॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ भावार्थ - २५. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। २६. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से वाचना लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - ज्ञान की दृष्टि से आगम धर्म के मूल आधार हैं। उसी का अवलंबन ले कर संसार - त्यागी श्रमणवृन्द आत्मोपासना, अध्यात्मसाधना एवं संयमाराधना में संलग्न रहते हैं आगम वीतराग, सर्वज्ञ, जिनेश्वर देव की वाणी का सार लिए हुए हैं इसलिए उनके वाचन अध्ययन एवं अनुशीलन में, प्रवृत्ति, पद्धति इत्यादि में पवित्रता, विशुद्धता रहे, यह आवश्यक है। आगमों का वाचन, आगमों का ज्ञान योग्य पात्रों को दिया जाए, योग्य अधिकारियों से लिया जाए, इस पर सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए । इसी अपेक्षा से यहाँ अन्यतीर्थिक और गृहस्थ को वाचना देना अथवा उससे वाचना लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। ४११ ये दोनों आगमों के शाब्दिक ज्ञान के धारक होते हुए भी मिथ्यात्व के कारण आगमों के यथार्थ अधिकारी और उनके पात्र नहीं कहे जा सकते। इनसे वाचना लेने से जिनधर्म की अवहेलना होती है। लोग ऐसा समझने एवं कहने लगते हैं कि इनके धर्म में कोई आगम ज्ञानी नहीं है। वाचना देते समय वे अन्यतीर्थिक तथा गृहस्थ मिथ्यात्व का पोषण भी कर सकते हैं, विपरीत ज्ञापन भी कर सकते हैं । उनको वाचना देने से वे विवादास्पद स्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं। अनुचित, आक्षेपपूर्वक जिनधर्म के प्रति दुर्भावना पैदा कर सकते हैं। उपर्युक्त सूत्रों मे जो अन्य तीर्थी और गृहस्थों को वाचना देने आदि का निषेध किया गया है यहाँ पर अन्य तीर्थी में -' अन्य मत के साधु' और गृहस्थ में 'अन्यमती साधु के अनुयायी गृहस्थ' लिए जाते हैं, श्रावक-श्राविका नहीं। क्योंकि ज्ञातासूत्र के दावद्रव (११वें) अध्ययन में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के वचनों को सहन करना द्वीप की वायु के समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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