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निशीथ सूत्र
४८. जो भिक्षु सचित्त (सूक्ष्म त्रस जीवयुक्त) मिट्टी के ढेले पर उच्चार - प्रस्रवण परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है ।
४९. जो भिक्षु घुणों के आवास युक्त या जीव युक्त काष्ठ के स्थान पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परते हुए का अनुमोदन करता है ।
५०. जो भिक्षु सम्यक् स्थापित नहीं किए हुए (अस्थिर) स्तंभ, देहली, ऊखल या पीठ फलक के स्थान पर उच्चार - प्रस्रवण परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है।
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५१. जो भिक्षु भलीभाँति स्थापित नहीं की गई तृणादि निर्मित भित्ति, दीवार, शिलाखण्ड, पत्थर के ढेले इत्यादि अनावृत (अन्तरिक्षवर्ती - खुले) स्थान पर उच्चार - प्रस्रवण परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है ।
५२. जो भिक्षु स्कन्ध, फलक, मंच, मण्डप, घर के उपरितन भाग पर स्थित खुले तल (माले), प्रासाद या अन्य किसी प्रकार के खुले (अनावृत्त) स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण परठता है अथवा परठते हुए का अनुमोदन करता है ।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार उपर्युक्त ५२ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार- तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
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इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र ) में षोडश उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - भिक्षु आहार - निहार गमनागमन, स्थानोपवेशन, निषीदन प्रभृति प्रत्येक क्रिया में इस रूप में जागरूक रहे कि आत्मविराधना और जीवविराधना दोनों से ही अपने आपको परिरक्षित रख सके, बचा सके।
इन सूत्रों में उच्चार-प्रस्रवण परिष्ठापन के संदर्भ में उन स्थानों का परिवर्जन किया गया है, जहाँ हिंसा आशंकित हो। वैसा होने पर आत्मा पापपंकिल होती है तथा अन्य जीव आहत, उपहत होते हैं। यों आत्मविराधना और परविराधना- दोनों ही दृष्टियों से सूत्रोक्त स्थानों में मल-मूत्र परठना प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
उद्देश तेरह में आया विवेचन भी यहाँ ग्राह्य है ।
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॥ इति निशीथ सूत्र का षोडश उद्देशक समाप्त ॥
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