Book Title: Nishith Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 409
________________ ३७६ निशीथ सूत्र पत्रखंड से, साहाए - शाखा से, साहाभंगेण - शाखा खंड से, पिहुणेण - मोर पंख से, पिहुणहत्येण - मयूरपिच्छी से, चेलेण - वस्त्र से, चेलकण्णेण - वस्त्र किनारे से, फूमित्ता - फूंक देकर, वीइत्ता - हवा करके, आहट्ट - आहृत्य - लाकर, देजमाणं - दिया जाया हुआ, उसिणुसिणं - अत्यन्त उष्ण। ____ भावार्थ - २४८. जो भिक्षु अति उष्ण अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार को सूप, पंखा, ताड़पत्र, पत्र, पत्रखण्ड, शाखा, शाखाखण्ड, मोरपंख, मयूरपिच्छी, वस्त्र, वस्त्रखण्ड, हाथ या मुंह की फूंक से ठण्डा कर ला कर देने वाले से ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ... २४९. जो भिक्षु अत्यन्त उष्ण अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में उष्ण आहार को शीतल कर दिए जाने एवं उष्ण आहार लेने ,का निषेध किया गया है। शीतल करने का तात्पर्य यह है कि अति उष्ण आहार को उपर्युक्त रूप में ठण्डा करने में अवश्य ही वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है। इसके अलावा छोटे जीवों की हिंसा हो सकती है। भिक्षु को आहार देने में कृत्रिमता पूर्ण उपक्रम सर्वथा वर्जित हैं। क्योंकि उसकी चर्या में तो सर्वथा सरलता परिव्याप्त रहती है। यदि एषणीय, निर्दोष आहार प्राप्त न हो तो भिक्षु उसे निर्जरा का हेतु मान लेता है। आहार भिक्षु का साध्य नहीं है, साधनोपयोगी देह को चलाने का हेतु है। सावध उपक्रमों द्वारा देह का निर्वाह करना भिक्षु के . लिए सर्वथा अवांछित है। अति भक्ति और श्रद्धा जब रागात्मकता ले लेती है तब देने वाला व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अपने श्रद्धाभाजन को आहार देने में ही श्रद्धा मानता है। ये दोनों के ही लिए हानिकारक होता है। वायुकाय की विराधना होने के कारण उष्ण आहार पानी के लेने का यहाँ प्रायश्चित्त कहा गया है, आचारांग सूत्र में वायुकाय की विराधना किये बिना उष्ण आहारादि ग्रहण करने का विधान किया गया है, तथापि अत्यन्त उष्ण आहारादि ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसे देने में उसके छींटे से या भाप से दाता या साधु का हाथ आदि जल जाय या उष्णता सहन न हो सकने से हाथ में से बर्तन आदि छूट कर गिर जाय या साधु के पात्र का लेप (रोगानादि) खराब हो जाय अथवा पात्र फूट जाय इत्यादि दोष संभव है। अतः वैसे अत्यन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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