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त्रयोदश उद्देशक - अन्यतीर्थिक आदि को कटुवचन कहने का प्रायश्चित्त
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कठिन शब्दार्थ - सिप्पं - शिल्प, सिलोगं - श्लोक, अट्ठावयं - अष्टापद - द्यूत क्रीड़ा का पासा, कक्कडगं - कर्कट - कौड़ियों से क्रीड़ा - खेल अथवा न्याय (हेतु) शास्त्र, वुग्( गा)गहंसि - युद्धकला, सलाह - श्लाघा - गुणवर्णन रूप काव्य रचना, सलाहत्थयंसि - प्रशंसात्मक कथा - वर्णन, सिक्खावेइ - सिखाता है।
भावार्थ - १२. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को शिल्प, श्लोक रचना, द्यूतक्रीड़ा, कर्कट, (जय-विजय रूप) युद्ध कला, गुणवर्णन रूप काव्य रचना, प्रशंसात्मक कथा आदि सिखलाता है या सिखाने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु के जीवन का परम लक्ष्य मन, वचन और काय का उन्हीं सत्प्रवृत्तियों में विनियोग करना है, जो संयम का समुपवर्धन करें, त्याग-वैराग्य को बढाएँ, साधना को बल प्रदान करें। उनके विपरीत सभी मनोविनोद, भौतिक तुष्टि, कीर्तिकांक्षा, लौकैषणा इत्यादि से संबद्ध हैं। अत एव इन सूत्रों में शिल्प, काव्यकला, युद्धकला, लौकिक गुण कीर्तन रूप प्रशंसात्मक वाग्विलास आदि को दोषपूर्ण बतलाया गया है। क्योंकि इनसे आत्मशुद्धिमूलक · लक्ष्य फलित नहीं होता, केवल शारीरिक, मानसिक तुष्टि मात्र होती है।
... अत एव गृहस्थों तथा अन्यतीर्थिकों को वैसा शिक्षण प्रदान करना यहाँ दोषपूर्ण एवं प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
अन्यतीर्थिक आदि को कटुवचन कहने का प्रायश्चित्त . जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं वयइ वयंत वा साइजइ॥१३॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसं वयइ वयंतंग साइजइ॥१४॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं फरुसं वयइ वयंतं वा साइजइ.॥ १५॥
जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्णयरीए अच्चासायणाए अच्चासाएइ अच्चासाएंतं वा साइज्जइ॥ १६॥
कठिन शब्दार्थ - आगाढं - क्रोधयुक्त वचन, फरुसं - कठोर, अच्चासायणाए - विशेष रूप से आशातना करना, अच्चासाएइ - पीड़ित करता है - सताता है।
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