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नय-रहस्य तत्त्वनिर्णय करने के लिए नयों का स्वरूप जानना आवश्यक ही नहीं,
अपितु अनिवार्य है। .. नयज्ञान की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए वही नयचक्रकार गाथा 417 में लिखते हैं - .
लवणं व इणं भणियं, णयचक्कं सयल सत्थसुद्धियरं। सम्मा वि य सुअ मिच्छा, जीवाणं सुणय मग्गरहियाणं।।
जैसे नमक भोजन को शुद्ध (स्वादिष्ट) कर देता है, वैसे ही नयचक्र समस्त शास्त्रों को शुद्ध कर देता है। सुनय के ज्ञान से रहित जीवों के लिए सम्यक्श्रुत भी मिथ्या हो जाता है।
प्रश्न - एक ओर सम्यक्श्रुत कहा जा रहा है और दूसरी ओर उसे मिथ्या भी कह रहे हैं; भला सम्यक्श्रुत मिथ्या कैसे हो सकता है? - उत्तर - भाई! वह श्रुत/शास्त्र, केवली के वचनानुसार वीतरागी सन्तों और ज्ञानियों द्वारा लिखे गये हैं - इस अपेक्षा तो सम्यक्श्रुत ही हैं; परन्तु यदि हम उसे यथार्थ अपेक्षा से ग्रहण नहीं करें तो तत्सम्बन्धी हमारा ज्ञान मिथ्या ही हुआ।
प्रश्न - सम्यक्श्रुत भी मिथ्या हो गया - इस आशय का स्पष्टीकरण कहीं और भी है क्या?
उत्तर - आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अध्याय में जैन शास्त्रों का अभ्यास करनेवालों को भी जो मिथ्यात्व होता है, उसे निश्चयाभास-व्यवहाराभास-उभयाभास के रूप में स्पष्ट किया है। ये निश्चयाभास आदि मान्यताएँ जिनवाणी का विपरीत अर्थ ग्रहण करने से ही हुई हैं।
. इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि नयों के यथार्थ ज्ञान के बिना सम्यक्श्रुत भी मिथ्या हो जाता है।
प्रश्न - आत्मा तो स्वभाव से नयपक्षातीत है तथा अनुभूति में भी