Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ 316 नय-रहस्य होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से ज्ञात होता है, प्रमेय होता है। . उक्त गद्यांश में समाहित अनेक मार्मिक रहस्य ध्यान देने योग्य हैं, जो इस प्रकार हैं - 1. समयसार परिशिष्ट में ज्ञान को आत्मा का असाधारण लक्षण कहा गया है और यहाँ आत्मा को चैतन्य-सामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता कहा गया है अर्थात् आत्मा अनन्त धर्मात्मक है और उसका चैतन्य-स्वभाव, अनन्तधर्मात्मक आत्मा में व्याप्त है; अतः आत्मा चैतन्यस्वरूप सिद्ध हुआ और यही चैतन्य अर्थात् ज्ञान, आत्मा का असाधारण लक्षण है। 2. आत्मा अपने अंशरूप अनन्त धर्मों में व्याप्त धर्मी है और श्रुतज्ञान अपने अंशभूत अनन्त नयों में व्याप्त प्रमाणरूप है। नयों द्वारा एक धर्म जाना जाता है और श्रुतज्ञान प्रमाणपूर्वक स्वानुभवं से अनन्त धर्मात्मक भगवान आत्मा जाना जाता है। 3. विशेष बात यह है कि जहाँ 47 शक्तियों का स्वरूप मात्र आत्मा की पूर्ण निर्मल पर्यायों से समझाया गया है, वहीं 47 नयों के अन्तर्गत आत्मा के 47 धर्मों को विकारी-अविकारी समस्त पर्यायों से समझाया गया है। यद्यपि इस प्रकरण में भी आचार्यदेव ने स्वानुभव की चर्चा की है, उसका कारण यही है कि आत्मा के इस स्वरूप का सम्यग्ज्ञान भी स्वानुभूति के समय ही सच्चा होता है। इन 47 नयों के नाम इस प्रकार हैं - ___ 1. द्रव्यनय, 2. पर्यायनय; 3. अस्तित्वनय, 4. नास्तित्वनय, 5. अस्तित्व-नास्तित्वनय, 6. अवक्तव्यनय, 7. अस्तित्वअवक्तव्यनय, 8. नास्तित्व-अवक्तव्यनय, 9. अस्तित्व-नास्तित्वअवक्तव्यनय; 10. विकल्पनय, 11. अविकल्पनय; 12. नामनय,

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430