Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 410
________________ अनेकान्त - स्याद्वाद 365 वीतराग - सर्वज्ञकथित वस्तु - स्वरूप एवं मोक्षमार्ग का यथार्थ निर्णय करना चाहिए। प्रश्न 14 अपने मत को सच्चा और अन्यमत को झूठा कहना कहाँ तक उचित है ? क्या यह पक्षपात नहीं है ? - - उत्तर सत्य-असत्य का निर्णय, अपने-पराये के आधार पर नहीं, अपितु सर्वज्ञकथित प्रमाण और नयों द्वारा करना चाहिए। हम जिस परम्परा में जन्मे हैं, उसे ही अपना धर्म या मत समझ रहे हैं। यदि आगामी भव में दूसरी परम्परा में जन्म हो जाएगा तो उसे अपना मानने लगेंगे। देखो ! धर्म का प्रयोजन तो आत्महित करना है, अतः आत्मा का स्वरूप ही सत्य है और उसकी अनुभूति ही धर्म है। यह वस्तु का स्वरूप है, किसी व्यक्तिविशेष का नहीं। जन्म के आधार पर किसी मत को अपना मानना और किसी को पराया मान्यता सही नहीं है। इसलिए पूज्य गुरुदेवश्री बारम्बार कहते हैं कि " जैनधर्म वाड़ो नथी, सम्प्रदाय नथी, आ तो सर्वज्ञ परमात्माए कहेलुँ वस्तु नो स्वरूप छे । " यह - प्रश्न 15 क्या निश्चय-व्यवहारनयों के कथनों में स्याद्वाद शैली का और स्याद्वाद शैली के कथनों में निश्चय - व्यवहारनयों का प्रयोग हो सकता है ? उत्तर - स्याद्वाद शैली और निश्चय - व्यवहारनयों में बुनियादी अन्तर यह है कि स्याद्वाद शैली अत्यन्त व्यापक है, उसके अन्तर्गत सभी प्रकार के नय, प्रमाण आदि अन्तर्गर्भित हो जाते हैं; जैसे, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय आदि आगम शैली के नय, निश्चयव्यवहार आदि अध्यात्म शैली के नय, त्रि-नय, सप्त नय, 47 नय, सप्तभंगी, प्रमाण सप्तभंगी, नय सप्तभंगी, सभी प्रकार के प्रमाण, चार निक्षेप आदि सभी का अन्तर्भाव स्याद्वाद में हो जाता है, जबकि ~3

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