Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 420
________________ 375 सप्तभंग आदि के समान स्याद् एक, स्याद् अनेक, स्याद् अवक्तव्य इत्यादि; स्याद् नित्य, स्याद् अनित्य, स्याद् नित्य-अनित्य, स्याद् अवक्तव्य इत्यादि। इस बात को किस दृष्टान्त से समझें? इसे भी उसी देवदत्त के दृष्टान्त से समझा जा सकता है। जैसे, वही देवदत्त स्यात् पुत्र, स्याद् अपुत्र, स्यात् पुत्र-अपुत्र इत्यादि रूप है।" ___तात्पर्य यह है कि विभिन्न अपेक्षाओं से देवदत्त पुत्र भी है, पिता भी है, मामा भी है, भानजा भी है, भाई भी है, पति भी है, शत्रु भी है, मित्र भी है; यह तो ठीक, पर उस देवदत्त के इन विभिन्न रूपों में से प्रत्येक रूप पर सात-सात भंग घटित हो सकते हैं। जैसे वह पुत्र भी है, अपुत्र भी है, पुत्र-अपुत्र भी है इत्यादि; मामा भी है, अमामा भी है, मामा-अमामा भी है इत्यादि; पिता भी है, अपिता भी है, पिताअपिता भी है, इत्यादि। __इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले नित्यअनित्य, एक-अनेक, भाव-अभाव आदि जितने भी धर्म-युगल हैं; उन सभी में सात भंग अवतरित होते हैं। ' प्रश्न 5 - प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं तो अनन्त भंग क्यों नहीं कहे जाते? सात भंग ही क्यों कहे जाते हैं? उत्तर - प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होने के कारण अनन्त भंग होते हैं, पर ये अनन्त भंग, विधि और निषेध की अपेक्षा से प्रत्येक सात-सात हो जाते हैं अर्थात् अनन्त सप्तभंगियाँ हो जाती हैं, परन्तु इसे हम अनन्त भंगी नहीं कह सकते। __ प्रश्न 6 - सप्तभंगी कितने प्रकार की होती है? उत्तर - अभिप्राय के आधार पर सप्तभंगी, प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी के भेद से दो प्रकार की होती हैं। इसीप्रकार अज्ञानी को

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