________________ नहि वाच्यमवाच्यमेव वा तव माहात्म्यमिदं द्वयात्मकम्। उभयैकतरत् प्रभाषिनां रसना नः शतखण्डतामियात्।। वस्तु न वाच्य, अवाच्य नहीं, पर उभयरूप, यह तव महिमा। मात्र एक ही धर्म कहूँ, तो सौ-सौ टुकड़े हो रसना॥ लघुतत्त्वस्फोट, अध्याय 15, छन्द अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति। आचार्यदेव, अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न करने के लिए अभूतार्थ व्यवहारनय का उपदेश देते हैं, परन्तु जो केवल व्यवहारनय काही श्रद्धान करता है, उसके लिए उपदेशनहीं है। -- पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक 6