Book Title: Nay Rahasya
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 403
________________ 358 - नय-रहस्य यदि अनेक का अर्थ अनन्त किया जाए तो अनेकान्त का अर्थ अनन्त गुणात्मक वस्तु होगा और अनेक का अर्थ दो किया जाए, तब अनेकान्त का अर्थ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाली द्वयधर्मात्मक वस्तु होगा। ... प्रश्न 5 - ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग कहाँ और क्यों किया जाता है? उत्तर – स्यात् शब्द का प्रयोग धर्मों के साथ किया जाता है, गुणों के साथ नहीं। आत्मा कथंचित् सत्रूप है और कथंचित् असत्रूप है - ऐसा प्रयोग तो होता है, परन्तु आत्मा कथंचित् ज्ञानरूप है, कथंचित् दर्शनरूप है - ऐसा प्रयोग प्रायः नहीं होता, क्योंकि गुणों में परस्पर विरोध नहीं है, इसलिए उन्हें स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होती, परन्तु सत्-असत् आदि धर्म परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, अतः उन्हें स्याद्वादी ही स्वीकार कर सकते हैं। अन्य लोग, किसी एक धर्म को ही ग्रहण करके पक्षपाती हो जाते हैं; अतः अनेकान्त की परिभाषा में परस्पर विरुद्ध शक्तियों के प्रकाशन पर विशेष बल दिया जाता है। प्रश्न 6 - सत्-असत् आदि धर्म परस्पर विरुद्ध तो हैं ही, अतः यह क्यों कहा जाता है कि ये परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं? उत्तर - इनका स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध ही है, परन्तु ये भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में एक साथ रहते हैं, अतः इनमें सह-अवस्थान विरोध नहीं है। यह अविरोध बताने के लिए 'परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले' - इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। प्रश्न 7 - स्याद्वाद शैली की आवश्यकता क्यों होती है? उत्तर - प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। शब्दों की शक्ति सीमित होने से सभी धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता, अतः किसी

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