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नय-रहस्य सन्दर्भ में निम्न प्रश्न सहज ही उत्पन्न होते हैं - 1. क्या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक और निश्चय-व्यवहार पर्यायवाची हैं? 2. द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक और निश्चय-व्यवहार में क्या अन्तर है? 3. द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक को निश्चय-व्यवहार का हेतु कहने का क्या आशय है?
यहाँ इन्हीं प्रश्नों पर क्रमशः विचार किया जाता है - . 1. क्या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक और निश्चय-व्यवहार पर्यायवाची हैं? _____ पंचाध्यायीकार पाण्डे राजमलजी तो स्पष्ट लिखते हैं - "पर्यायार्थिक कहो या व्यवहारनय - इन दोनों का एक ही अर्थ है, क्योंकि इस नय के विषय में जितना भी व्यवहार होता है, वह उपचार मात्र है।" जबकि द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 182 का द्वितीय अर्थ करते हुए निश्चयनय को द्रव्याश्रित और व्यवहारनय को पर्यायाश्रित कहा गया है।
वस्तुतः द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत द्रव्यांश, निश्चयनय का - विषय भी बनता है तथा पर्यायार्थिकनय का विषयभूत पर्यायांश, व्यवहारनय का विषय भी बनता है, इसलिए निश्चयनय और द्रव्यार्थिकनय तथा व्यवहारनय और पर्यायार्थिकनय में अतिनिकटता भासित होने से इन्हें पर्यायवाची समझ लिया जाता है, लेकिन यदि ये दोनों जोड़े सर्वथा पर्यायवाची होते तो जिनागम में इन्हें अलग-अलग क्यों कहा जाता? तथा
इनके भेद-प्रभेद तो बिलकुल अलग शैली में ही किये गये हैं, अतः इनमें ' अतिनिकटता भासित होने पर भी इन्हें पर्यायवाची नहीं माना जा सकता। - समयसार की गाथा 8 से 12 में व्यवहारनय को निश्चयनय का प्रतिपादक कहकर भी व्यवहार को अभूतार्थ एवं निश्चय को भूतार्थ कहा गया है तथा सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिए भूतार्थ का आश्रय 1. पंचाध्यायी, अध्याय 1, श्लोक 521