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नय के तीन रूप : शब्दनय, अर्थनय, ज्ञाननय देखकर, उस ज्ञानपर्याय को उसमें प्रतिबिम्बित ज्ञेयों रूप भी कह दिया जाता है।
यही कारण है कि गाय को जाननेवाले ज्ञान को भी गाय कह दिया जाता है। लोक में भी ऐसे प्रयोग अप्रचलित नहीं हैं। दर्पण में प्रतिबिम्बित या दीवार पर चित्रित मोर को देखकर हम कह ही देते हैं कि देखो! कितना सुन्दर मोर है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान में प्रतिबिम्बित गाय को गाय कहा जाए तो यह कहा जाता है कि ज्ञान, गाय को जान रहा है और यदि उस ज्ञान में प्रतिबिम्बित गाय को ज्ञान कहा जाए तो यह कहा जा सकता है कि ज्ञान, ज्ञान को जान रहा है।
इसप्रकार ज्ञान के ज्ञेयाकार परिणमन में ही स्व-पर दोनों का प्रकाशन है, जो कि ज्ञान का सहज स्वभाव है। भेदज्ञानपूर्वक निर्विकल्प अनुभूति के काल में स्वभाव में एकाग्रतारूप पुरुषार्थ के समय जो स्वलक्ष्य है, उस समय भी ज्ञान पर्याय, त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव को तथा अपने स्व-परप्रकाशक स्वरूप को प्रकाशित करती है तथा धारणारूप मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में अन्य ज्ञेयों का जानना भी सहज होता रहता है।
प्रश्न - ज्ञान, अपने में बननेवाले ज्ञेयाकारों अर्थात् पदार्थों के प्रतिबिम्बों को जानता है तो पदार्थों को प्रतिबिम्बित करनेवाला ज्ञेयाकार ज्ञान और उसे जाननेवाला, ज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न हैं या एक ही हैं।
उत्तर - वस्तुतः ज्ञेयाकाररूप परिणमित ज्ञान, अपने ज्ञानस्वरूप ही है, अतः दोनों एक ही हैं। ज्ञेयाकाररूप परिणमन करना, ज्ञेय को जानना, अपने ज्ञानस्वभाव को प्रकाशित करना तथा ज्ञेयों का ज्ञान में झलकना आदि भिन्न-भिन्न शैलियों/कथन भेदों के माध्यम से एक ही प्रक्रिया को सम्बोधित करना है। ज्ञान, यदि स्वयं को न जाने तो अपने में प्रतिबिम्बित होनेवाले पदार्थों को कैसे जान सकता है? न्यायदीपिका