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निश्चयनय और व्यवहारनय ___ इसप्रकार निश्चय-व्यवहार के कथनों में परस्पर विरोध होने पर भी उन्हें एक-दूसरे का पूरक समझना चाहिए। 4. निश्चय-व्यवहारनय में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध
आत्मानुभूति के प्रयोजन से निश्चय को भूतार्थ और व्यवहार को अभूतार्थ कहने से यह प्रश्न सहज उत्पन्न होता है कि यदि व्यवहार अभूतार्थ/असत्यार्थ है तो जिनागम में उसका कथनं क्यों किया गया है? दो अत्यन्त भिन्न वस्तुओं को एक कहकर, उनमें अनेक प्रकार के सम्बन्ध स्थापित करना, एक अखण्ड वस्तु में भेद-कल्पना करना तथा व्रतादिरूप बाह्यक्रिया एवं शुभभाव को मोक्षमार्ग कहना तो ठीक नहीं लगता तो फिर जिनागम में ऐसे कथन क्यों किये गये और उन्हें व्यवहारनय कहकर जिनागम में स्थान क्यों दिया गया?
पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 251 पर यही प्रश्न उठाकर उसके समाधान के लिए आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आठवीं गाथा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिसप्रकार अनार्य को अनार्य भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता; उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का कथन नहीं हो सकता, इसलिए जिनागम में व्यवहार को स्थान दिया है तथा सम्यक् श्रुतज्ञान का अंश माना गया है।
प्रश्न - परस्पर विरोधी कथन करनेवाले निश्चय-व्यवहारनय में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध कैसे हो सकता है? अभेद वस्तु में गुणपर्याय का भेद करनेवाला व्यवहारनय, भेद का निषेध करनेवाले परमार्थ (निश्चयनय) का प्रतिपादन कैसे कर सकता है? इसीप्रकार देह और जीव को एक कहनेवाला व्यवहारनय, उन्हें अत्यन्त भिन्न कहनेवाले परमार्थ का प्रतिपादन कैसे कर सकता है? तथा शुभभाव को मुक्ति का कारण कहनेवाला व्यवहारनय, उसे बन्ध का कारण कहनेवाले परमार्थ का प्रतिपादक कैसे हो सकता है? .