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नयों के मूल भेद अपेक्षा नय के अनन्त भेद भी माने जा सकते हैं। इसीप्रकार उक्त भेदों के अनेक प्रभेद भी किये गये हैं।
इसप्रकार नयों के भेद-प्रभेदों की चर्चा बहुत विस्तार से उपलब्ध होती है; लेकिन अब प्रश्न उठता है कि नयों के मूल भेद कितने और कौन-से हैं? इसके सम्बन्ध में द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र में निश्चयव्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों को नयों के मूलभेद के रूप में बताते हुए कहा गया है -
णिच्छयववहारणया, मूलिमभेया णयाण सव्वाणं। णिच्छयसाहणहेऊ, पज्जयदुव्वत्थियं मुणह।।182।।
सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार - ये दो नय हैं तथा द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक ये दोनों नय, निश्चय-व्यवहार के हेतु हैं।
उक्त गाथा का द्वितीय अर्थ इसप्रकार भी किया गया है -
नयों के मूलभूत निश्चय और व्यवहार - ये दो भेद माने गये हैं। उसमें निश्चयनय तो द्रव्याश्रित है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित है - ऐसा समझना चाहिए। उक्त गाथा में निश्चय-व्यवहार को मूलनय बताते हुए द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक को उनका हेतु कहा गया है, जबकि उसके तत्काल बाद द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक को ही मूलनय बतानेवाली वह गाथा इसप्रकार है -
दो चेव य मूलणया, भणिया दव्वत्थपज्जयत्थगया। अण्णे असंखसंखा, ते तब्भेया मुणेयव्वा।।1831 .
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - ये दो ही मूलनय कहे गये हैं। अन्य असंख्यात-संख्यात आदिको लिये हुए इनके भेद जानने चाहिए।
इसप्रकार दो लगातार गाथाओं में निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक - इन दोनों जोड़ों को मूलनय कहा गया है। इस