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नयों का सामान्य स्वरूप
- प्रश्न - कुछ लोग कहते हैं कि अपेक्षा लगाकर वस्तु-स्वभाव को ढीला नहीं करना चाहिए?
उत्तर - इस कथन की भी अपेक्षा समझनी चाहिए। जो लोग आत्मा के त्रिकाली शुद्धस्वभाव को नहीं मानते तथा उसे सर्वथा अशुद्ध मानते हैं, वे कहते हैं कि “हाँ-हाँ, आत्मा शुद्ध तो है, पर यह निश्चयनय का कथन है। निश्चयनय से तो आत्मा शुद्ध है, पर व्यवहारनय से तो अशुद्ध है न! अभी हम उसे शुद्ध कैसे मान सकते हैं...” इत्यादि अनेक प्रकार से वे निश्चय से आत्मा को शुद्ध कहते हुए भी अभिप्राय में उसके शुद्धस्वभाव का निषेध ही करते हैं।
अपेक्षा लगाने का सम्यक् फल यह है कि वस्तु के उस पहलू को जानकर, हेय-उपादेय का यथार्थ निर्णय किया जाए, परन्तु बहुत से लोग ऐसा न करके मात्र बातों में ही अपेक्षा लगाकर, अपने विपरीत अभिप्राय की पुष्टि करते हैं, इसीलिए यह कहना भी उचित ही है कि अपेक्षा लगाकर वस्तु को ढीला नहीं करना चाहिए। ___अपेक्षा का सम्यक् प्रयोग करने से वस्तु-स्वभाव ढीला नहीं होता। यदि हम कहेंगे कि आत्मा निरपेक्षरूप से शुद्ध है, उसे निश्चयनय से शुद्ध मत कहो तो ऐसा आत्मा की अशुद्धता के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है कि आत्मा निरपेक्षरूप से अशुद्ध है, वह व्यवहारनय या पर्यायार्थिकनय से अशुद्ध नहीं है; अतः अपेक्षा लगाने में ढीलापना नहीं, बल्कि वस्तु-व्यवस्था का सम्यक् प्रतिपादन है, सम्यग्ज्ञान की सुरक्षा है।
प्रश्न - यह भी कहा जाता है कि आत्मा निश्चयनय से शुद्ध नहीं है, वह तो स्वभाव से शुद्ध है - इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर – निश्चयनय अर्थात् शुद्धस्वभाव को जाननेवाली ज्ञान की पर्याय। निश्चयनय आत्मा को शुद्ध जानता है, शुद्ध करता नहीं है।