Book Title: Muze Narak Nahi Jana
Author(s): Vimalprabhvijay
Publisher: Vimalprabhvijayji

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Page 21
________________ है । हाँ... पापके आधार तीव्रता के प्रमाण से पहली नरक से लगाकर सातवीं नरक तक जीव को जाना पड़ता है। वहाँ कानून | ठराव के मुताबिक जीव को असह्य वेदना भुगतनी पडती है। जो उसने किये हुए पाप कर्मों का फल होता है । श्रीकृष्ण गीता में कहते है, कृर्त कर्म अवश्यमेव भोक्तव्यं, कल्पकोटि शतैरपि करोडों साल का लंबा समय बित जाय फिर भी जो पाप कर्म किये है। उसकी सजा अवश्य भूगतनी ही पडती है, उससे कोई छूट नहीं सकता । सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर परमात्मा अंतीम देशनारुप उतराध्ययन सूत्र में स्पष्ट शब्दो में कहते है कडाण कम्माण मक्खति । किये हुए कर्मों से कोई छूट नहीं सकता । जो कर्म जिस रीत से किया हो उसकी सजा सहन करनी पडती है । न्यायाधीश किसी को क्या सजा देगा ? जब कर्म खुद ही जीव को सजा देते है वह बहुत ही लंबी और भयंकर होगी। जिसका अंत शायद कितने ही जन्मों के बाद होगा यह तो सिर्फ ज्ञानीजन ही बता सकेंगे । अगर पाप की सजा कीस तरफ निगाह डाली जाय तो सजा की भयंकरता समझाती है जिससे पापों से मन जल्दि विमुख हो सकता है। यहाँ जेल में दी जाने वाली सजा हम देख नहीं सकते तो फिर नरक में जाकर वैसी सजा कब और कैसे देख सकेंगे ? क्या नरकमें जाकरके देख आना संभव है ? ना, क्योंकि नरक में जाकर तो वहाँ से शायद सीधे ही यहाँ आये है परंतु यहाँ नरक की कोई भी बात याद नहीं । सहन की हुई सर्व प्रक्रिया, यहाँ तक कह देते है कि..... नरक है ही नहीं ? कहाँ है नरक ? कौन कहता है नरक है ? ये तो सिर्फ अपने जैसे लोगों को डराने की बात है। ऐसी बातों से मिथ्यात्वी जीव नरक वगैरह कुछ नहीं उनके विचारों से खुद तो छूट जाता है और अन्य को भी बहताता है। इसलिये पाप करने का छूटा दौर प्राप्त हो जाता है। जो सर्वज्ञ परमात्मा ने नरक का वर्णन स्वमुख से अनंतज्ञान से किया था, वह अक्षरश: आगमशास्त्रो में स्पष्ट शब्दो में वर्णित है । श्री उतराध्ययन सूत्र में महावीर प्रभु स्वयं स्पष्ट शब्दो में और सूयगडांग - सूत्रकृतांग सूत्र में भी नरक का, नरकगति के दुःखो का वर्णन ऐसे धारदार शैली (21) जू किया है जिसे सुनते ही अपने रोम रोम खड़े हो जाय, काँपने लगे । ये वर्णन पढने सुनने से आज भी मानसपट्ट परचित्र अंकित हो जाते है, जिससे शायद इन भयंकर पापों से बचना और फिर दुबारा उसे नहीं करने का मन करेगा । शास्त्रो में सिर्फ पाप नहीं, अपितु उसकी सजा कितनी रावनी और दारुण है यह भी विस्तार से लिखा है, इसलिये सिर्फ पाप देखकर उषका अनुकरण करनेवाला क्या सजा और दुःख तरफ नजर नहीं करेगा क्यों ? १८ वा भव में त्रिपुष्ट वासुदेव बने... तीन खंड के राज्य सता के स्वामी बने... खुद ने किये हुए पूर्व में संकल्प ( नियाणा) के मुताबिक सिंह को जीर्ण वस्त्रकी तरह चीर कर मार डाला। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पशु को मारने से पंचेन्द्रिय हत्या का पाप लगा । खूद की रानी के साथ कलह किया । रानी ने आर्तध्यान किया। जब वे सत्ताधीश हुए तब संगीत श्रवण करते सो गये । उसमें खलेल होने से शय्या पालक पर I आक्रोश कर कान में गरम गरम शीशा डलवाया। वे सब भयंकर पाप किये। सिंह के हिंसक भव में पेट भरने के लिये कितने ही पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या के सिवाय अन्य कोई विकल्प ही न था । ये सब पाप ही है । जो पाप करेगा वह सजारुप दुःख भोगेगा। जो पुण्य धर्म करेगा वह सुखी होगा। जैसा करोगे ऐसा भरोगे । इसमें किसी के लिये भी कोई भेद नहीं । कर्म के लिये राजारंक का, अमीर-गरीब का कोई भी भेद नहीं होता । १८ वे भव में सिंह को फाडना तथा कान में गरमगरम शीशा डलवाना जैसा भयंकर पापके परिणाम से १९ भव में ऐसे बडे तीन खंड सत्ताधीश वासुदेव त्रिपुष्ट को भी सातवी नरक में जाना पडा । वशा ३३ सागरोपर तक गाढ अंधकारवाली ७ वी महातमः प्रभा नरक में दुःख सहने पडते है । वे सब प्रभु वीर के जीव ने सहन किये। यहाँ प्रश्न यह है कि इतने दुःख नरक में उत्तर में ना कहते है । इसका प्रत्यक्ष पूरावा है कि २७वा भव में दीक्षा लेने के बाद जब वे साधना कर रहे थे तब कान में खीले जड दिये गये । ७वीं नरक में इतने समय रहेने के बाद भी सर्व पाप पूर्ण नहीं हुए । अरे ! नरक में अगर सब पापों का क्षय हो मुक्ति मिल जाती है ? I वहाँ से हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!!

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