Book Title: Muze Narak Nahi Jana
Author(s): Vimalprabhvijay
Publisher: Vimalprabhvijayji

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Page 39
________________ अंत अवस्था में अनशन कर स्वर्ग गया। शशी विषययुक्त होकर नरक में गया । सूरराजा ने देवलोक से अवधिज्ञान के बल से अपने भाई को नरक की यातना सहते हुए देखा। वह नरक में पहुँचकर अपने भाई के पास प्रत्यक्ष हुआ। शशी उसे देखकर खुश हो गया और बोलने लगा कि जाकर मेरे देह की रक्षा कर में अभी नरक से नीकलकर आउंगा और फिर सुख से रहुँगा । सूर ने उपदेश दिया कि, जीव के बगैर देह रह नहीं सकता। इससे तो अच्छा है पाप नहीं करता तो नरक में जाने की बारी आतीं नहीं। अब शांत भाव से वेदना सह कर कर्म खतम कर, पश्चाताप कर जिससे अगले जन्म मे सुखी हो सके । इतना कहकर सर वापस देवलोक में गया। इस तरह अगर कोई भी शशी की तरह धर्म न करे तो फिर पछताने की बारी आयेगी। इसलिये सर्वजनों को धर्म कार्य करने चाहिये । शशीप्रभ राजा मरने के बाद तीसरी नरक में गये थे और सूरप्रभ राजा आयुष्य पूर्ण कर पाँचवे देवलोक में गये थे। परमेश्वर की वाणी सुनने से जीव कष्ट, भूख, तृषा का अनुभव नहीं करता। ४२) एक गांव में कोई वणिक रहता था। उसके घर में एक वृध्दा चाकर थी। एक दिन की बात है - वह लकडी लेने वन में गई, वहाँ भूख और प्यास से बेहाल हो गई। वह थोडी लकडी लेकर के घर आ गई । सेठने कम लकडी देखकर उसे वापस लकडी लेने भेजा । दोपहर का समय था | गर्मी के दिन थे। गरम हवा चल रही थी। धप और ताप सहन करती हुई वह आगे घर की तरफ बढ रही थी। इतने में उसके हाथ से एक काष्ठ नीचे गिर गया । वह उठाने के लिये नीचे झुकी । वहाँ उसे प्रभु वीर की मधुर ममता मयी वाळी सुनाई दी । वह वृध्धा वहाँ पर खड़ी होकर सुनने लगी। धर्म देशना सुनने लगी। धर्म देशना सुनते हुए उसकी भूरव, प्यास सब मीट गई। हर्षित होकर वह घर आई। सेठजी ने देर से आने का कारण पूछा । वृध्धाने सच सच बता दिया। सेठजी ने भी श्री वीर के वचन सुने । उस वृद्धा के धार्मिक गुणों की उन्होंने तारीफ की और उसका बहुमान किया। परमेश्वर की वाणी से वह दुःख के बंधन से छूट गई। || दोहा॥ जिनवर वाणी जो सुने नरनारी सुविहाण ।। सूक्ष्मबादर जीवनी, रक्षा कर सुजाण || १ || श्री वीर भगवान कहते है कि है गौतम, तेरा प्रश्न यह है कि - वे सर्व जीव अपने अपने कमी को वश है। कर्म का स्वरुप जो मै कहता हूँ, वह सूनो । ऐसा कहते हुए भगवान पूर्वोवत उडतालीश प्रश्नो के उत्तर देते है। प्रथम पृच्छा का उत्तर जे धायइ सत्ताई, अलियं जपेड़ परधणं हरइ।। परदारं चियवंचइ, बहुपाव परिग्गहासत्तो ||१५|| चंडो माणो धितो, मायावी निरूरो खरो पाटो ।। पिसुणो संगहसीलो, साहूणं निंदओ अहमो ||१६|| आलप्पाल पसंगी, दुलो बुध्दिइ जो कयग्धो य || बहुदुरक सोग पउरे, मरिउ नरयम्मि सो जाइ ।।१७।। ४३) सूभूम चक्रवर्ति सभमने तलधर के बाहार की दनिया देखी न थी। इसलिये उसने अपनी माता से प्रश्न किया. हे माता, क्या पृथ्वी इतनी ही है ? माता ने उत्तर दिया ना वत्स ! पृथ्वी तो अति विशाल है। परंतु तेरे पिता को परशुराम ने मार डाला और उनका राज्य लूट लिया, तब से डर कर हम तलधर में रहते है। यह बात सुनते ही सुभूम का क्षत्रिय खून उबलने लगा | माँ से आशीर्वाद पाकर वह मेघनाद विद्याधर के साथ हस्तिनापुर गया। वहाँ प्रथम तो वह दानशाला में गया। वहाँ उसने सिंहासन के पास रखे हुए थाल की तरफ देखा। उसकी पैनी निगाह पड़ते ही थाल में रखी हुई सब दाढ़ पीधलकर खीर बन गई। वह खीर सुभूम पी गया । यह समाचार परशुराम ने सुने, वह तुरंत ही अपने शत्रु को मारने अपना परशु लेकर दौड आया। सुभूम ने उसी वक्त खाली थाली को घूमाते हुए उस पर वार किया। वह थाली देवोंसे अधिष्ठित (अभिमंत्रित) चक्र बन गई। परशुराम उससे वींध कर मौत के शरण में गया । देवो ने सुभूम पर पुष्यवृष्टि की। पूर्व के वैर से सुभूम ने इक्कीस बार पृथ्वी का ब्राह्मण के वगैरकी बनाई। वह छ: खंड का चक्रवर्ति बना। परंतु उससे उसे संतोष नहिं हुआ। उसे घातकी खंड में आये हुए छ: खंडो को जीतने की लालसा जागी। इस समय देवताओं ने उसे समझाया, हे सुभूम! तुंजरुररत से ज्यादा इच्छा कर रहा है, यह गलत है, इसके परिणाम तुम्हारे लाभ में न रहेंगे। आज (39) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!

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