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चोरी करने में १ से २ कलाक लग सकता है, पर अगर वह पकड़ा गया तो १०-२० वर्ष की जेल या उमर कैद की सजा भी हो सकती है। कोई कोई देश में बलात्कारी को उम्रकेद भी होती है ।
३४) किये हुए पापों की सजा ।
१) १८ वा त्रिपुष्ट वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में गरम गरम शीशा डालकर जो पाप किया उसका फल प्रभु २७ के भव में भुगतना पड़ा। सिंह को मारा था उसके परिणाम स्वरुप सातवी नारक में गया ।
२) सूभूम चक्रवर्ति अति लोभ के कारण मर कर सातवी नरक में गया ।
३) कोणिक राजा अपने पिता सम्राट श्रेणिक को जेल बंद करके उनको चाबूक मरवाकर, पिता को मारने का भयंकर पाप और दुसरे भी पापों के परिणामरुप (६) नरक में गये ।
४) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति ने कई ब्राह्मणों की आँखे फुडवाई | सारी पृथ्वी को निर्बह्म करने की हिंसा का पाप किया जिसके फल स्वरुप उसे ७ वी नरक में जाना पड़ा ।
५) कमठ ने प्रथम भव में सगे भाई से वेर किया उसे • डाला और भविष्य में भी मारेगा एसी संकल्प वृत्ति से मुनि हत्या का पाप कर नरक में गया।
३६) अग्निशर्मा और गुणसेन के समारादित्य चरित्र हुआ ? शर्मा ने गुणसेन को हर एक भव में मारने का संकल्प किया था। उसके फलस्वरूप वह मारता ही रहा, वह मनुष्य हत्या और मुनि हत्या के पापों की सजा सहन करते करते एक से बढ़कर एक कडक शिक्षा सहन करता है । जब पाप करते समय कोई दया- शरम न आती है, तो फिर पापों की सजा देने में परमाधमीओं को कैसे या आ सकती है? हाँ उनको कर्मबंध जरुर होता है जिसकी सजा वे बाद में काटेंगे। इस तरह जब जीव हजार प्रकार के पाप कर के जीव जब नरक गति में जाता है वहाँ भी वह हजारों प्रकारकी तीव्र वेदना सहता है । वहाँ परमाधमी के जीव पकड़ने से या माफी माँगने से फर्क नहीं कुछ पडनेवाला इससे तो अच्छा है यहाँ पाप न किया जाय । पाप नहिं करेगे तो नरक में जाने का प्रश्न ही उपस्थिति नहीं
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होगा । यदि कभी जाना अनजाने में पाप हो गया तो पाप का प्रायश्चित ले लेना चाहिये । धर्म आराधना, जप, तप आदि द्वारा और पाप का प्रायश्चित द्वारा पाप कम हो सकते है । पर अगर ये कुछ भी नहीं किया तो नरक में जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहेगा ।
यहाँ पृथ्वी पर पापों का क्षय प्रायश्चित द्वारा हो सकता है। जब मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, आर्य कूल, वितराग को धर्म और देवगुरु मिले हो तब धर्म आराधना के द्वारा पापों का नाश कर लेना चाहिये। नरक में पापों का क्षय करने के लिये एक भी साधन नहीं मिलता अतः यहाँ पर देव, गुरु और धर्म की सहायता लेकर पापों का क्षय अवश्य करें नरक पाप कर्म की सजा भुगतने से ही प्राधान्यता है । सजा से बिना समतापूर्वक सहन करना ही अकलमंदी है। अति उत्तम मार्ग तो यह है कि पाप न करने की प्रतिज्ञा लेना ।
जीवन साधना में साधक और मुमुक्षु आत्माओं का मुख्य दो लक्ष होना चाहिये
१) भूतकाल में जो पाप किये गये उसकी कर्म निर्जरा करना अर्थात पाप कर्म का नाश करना ।
२) जीवन में कभी नये पाप न करने का संकल्प । इन दो ध्येयों को जीवन में अपनाने से सर्वं आराधना समाहित हो जाती है। प्रथम लक्ष्य निर्जरा धर्म है। दुसरा लक्ष्य संवर है। जैन शासन में महामंत्र नवकारने साधक को सर्व पापों को क्षय करने का ध्येय दर्शाया है - सव्व पावप्पणासणो ।
३५) वाणिज्य गाँव में एक कामी पुरुष रहता था । उसका नाम उज्झितक कुमार था । यह काम ध्वजा . वेश्या
आशक्त रहता था। वह वेश्यागमन का पाप में २५ वर्ष तक रहा। श्री गौतमस्वामी उस गाँव में पधारे थे उन्होंने उसे वध स्तंभ पर लटकते हुए देखा ।
राजा के सैनिक हजारों लोगों की भीड़ में उसके नाक, कान, मांस आदि तीक्ष्ण भाला से काट रहे थे । महावेदना में जीवन के अनमोल २५ वर्ष पुरे करके वह प्रथम नरक में गया। मृगापुत्र की करह वह भी सातों नरक में ८४ लाख वायोनि में भटकेगा। यह मैथुन पाप की सजा थी ।
३७) शकट कुमार नामका महाचोर गत जन्म में
हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!!