Book Title: Muze Narak Nahi Jana
Author(s): Vimalprabhvijay
Publisher: Vimalprabhvijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः॥ ॥ श्री पद्म-जीत-हीर-कनक-देवेन्द्र-कलापूर्णसूरि गुरुभ्यो नमः॥ है प्रभुजी! मुझे नरक नहीं जाना ! सचिन नरक यातना का वर्णन, हिंसादि महापापो के कटु विषाको की विस्तृत माहिति प.पू. अध्यात्मयोणी आचार्यदेव श्रीमद विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्त । पू. गणिवर श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. | Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान... नकल ३००० कॉपी कल्पेश आर. महेता महावीर बोल्ट अन्ड कं. ओल.आय.जी. कन्झयुमर सोसायटी, पंतनगर, बी.अल.डी. नं.116 के सामने, घाटकोपर (पूर्व), मुंबई-400075. फोन : 25162025 (घर) 265822698 (ओ) 65249637 (मो.) 9820724747 अनिलभाई उगरचंद शाह फोन : 0265-2781317 सामायिक पौषध आराधक मंडळ 2C/A, आनंदवन सोसायटी विभाग-1, नवयुग इंग्लीश स्कुल पासे, पो. समा वडोदरा-2. प्रमोदभाई वीरचंद शाह 18, श्रीनगर सोसायटी, जैन देरासर सामे, कृष्णनगर, पो. अमदावाद-382 345. घर : 22822451 मो. 9825598510 डॉ. रश्मिन ओम. पुरोहित "भगवती", 5, जलाराम कोलोनी, हाई-वे, अच.अम.पी. गेट के सामने, पोरबंदर-360 575. फोन : 0286-2245601 * घर: 2243003 मो. 09428287275 विनेशभाई गीरधरनगर, (शाहीबाग), अमदावाद फोन : 65457114 मो. 9377225716 हिरेन रजनीकांत अम. शाह अक्सेल कोर्पोरेशन 13, इराबालु चेट्टी स्ट्रीट, पो. चेन्नाई-600 001. फोन : 26411906 प्रवीणकुमार ओन. खंडोर दत्तात्रय निवास, तीसरा माला, B-विंग, रूम नं.28, दादर, मुंबई. फोन : 30912755 मो.: 32503728 कमलेश कनैयालाल भेमाणी E-319, वीनासीतार, महावीरनगर, दहानुकर वाडी, कांदीवली (वेस्ट), मुंबई-400 067. फोन : 2346 2616 मो.: 93234 02716 संजय छोटालाल शाहनवसारी. फोन : (घर) 202637-253044 मो. 9825099031 धीरज महेता...विद्यार्थी वस्तु भंडार प्लोट नं.263/12 B, भाई प्रताप सर्कल के सामने, गांधीधाम, कच्छ. फोन : 02836-232233 विद्यार्थी वस्तु भंडार आय.सी.आय.सी.आय. बेंक के सामने, होस्पीटल रोड, भुज-कच्छ मो.: 9879207196 दिव्य आशीर्वाद.. प.पू.अध्यात्मयोगी आ.श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. शुभ आशीर्वाद.................. प.पू.शासनप्रभावक आ.श्रीमद् विजय कलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा. संयोजक......... प.पू.गणिवर श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. सेवाभावी प.पू. मुनि श्री विनयविजयजी म.सा. हिन्दी प्रुफ सहायक.......... रेणुकाबेन (प्रोफसर), मुलुंड, मुंबई. मुद्रक....... नेहज अन्टरप्राईझ : 34, जवाहरनगर रोड नं.4, गोरेगांव (वेस्ट), मुंबई-400 062.* फोन : 28736745 टे.फेक्स : 28736535 • मो. : 93222 27939 email : mktg@nehaj.com nehajenterprise@gmail.com मूल्य: रू.९०/ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावापुरी तीर्थधाम । एवम् जीव मी धागा 4T1XCEL पावापुरा दिल्ही-कंडला हाईवे, कृष्णगंज, जि. सिरोही (राज.) ३०७ ००१ फोन : ०२९७२-२८६८६६, २८६८६७, २८६८६८ श्री पावापरी तीर्थधाम.... फेक्स : ०२९७२-२८६८१४ मालगांव, जिल्ला-सिरोही (राजस्थान) निवासी 'संघवी श्री पावापुरी तीर्थधाम के प्रतिष्ठापक, कलिकाल के पुनमचंदजी धनाजी बाफना, के.पी. संघवी परिवार' जैन कल्पतरु, अध्यात्मयोगी परम पूज्य आचार्य भगवंत श्वे.मू.पू. तपागच्छ विशा ओसवाल द्वारा आयोजित व निर्मित हुआ श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराजा का स्मृति यह तीर्थ ६०० वीघा जमीन (१,०४,५४,४०० घनफूट) में फैला गुरुमंदिर निर्माणाधीन है । श्री पावापुरी नाम को लेकर हुआ श्री पावापुरी तीर्थधाम अद्भुत विशालता और सौंदर्य का भगवान श्री महावीर के २६०० वर्ष के उपलक्ष में श्री अलौकिक रुप है । यहाँ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान का भव्य पावापुरी जलमंदिर और भगवान वीर देशना स्वरुप जिनालय है । साधर्मिकों का स्नेह है, धर्मशाला एवं साधर्मिक समवसरण मंदिर का निर्माण, भगवान श्री महावीर के भक्ति भवन की भी सुंदर सुविधाएँ है | प्राणीसृष्टि के पालन व सत्तावीश भव, चोवीस तीर्थंकरो, कैवल्य वृक्ष और पोषण के लिये गौशाला के रुप में ७००० अबोल पशुओं के चरणपादुका, तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय गिरिराज करुणासागर ऐसा कामधेनु तीर्थ है । ऐसा समजो की, की रचना, श्री शत्रुजय नदी, श्री शत्रुजय डेम "ईशावास्यम् ईदं सर्वम्" यहाँ ही आया हुआ है । यहाँ के आदि का अभूतपूर्व आयोजन ५००० अट्ठम तप मध्य में स्थित श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय आराधको, हजारो ओळी आराधको, चातुर्मास आराधको और भगवान श्री महावीर के चरणस्पर्श से पवित्र हुई यह पावन और उपधान तप आराधको के तप-जप-बल से यह भूमि वसुंधरा है। २०,००० घटादार वृक्षों से सुशोभित ऐसे आह्लादक पवित्र है । हजारो संतों के चरणस्पर्श और उनके वातावरण में तपोवन है । पूजा-भक्ति के लिये ५०० चंदन वृक्षों का रजकण से बना हुआ व पवित्र विहारभूमि भी है। आरोपण कार्य का किया गया है | जैन धर्म के सात क्षेत्रों और जय... जय... जय... जीवदया का महासागर है । भक्ति, शौर्य, दान और सेवा से भरपूर सौंदर्यमय नंदनवन है । मरुधर में एक नया कल्पवृक्ष ___श्री पावापुरी तीर्थधाम-जीवमैत्री धाम... श्री पावापुरी तीर्थधाम जीवमैत्री धाम है। ...... Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक वक्त पूर्वभव में किये हुए अनेक दुष्ट और भयंकर आचरण से, क्रूरता से हिंसादि, झूठ बोलने से, चोरी, परस्त्रीगमन, धन प्रतेतीमूळ, जीवों का वध करनेवाले (गर्भपात) आदि पाप कर के नरक के आयुष्य का बंध करके नरक में पैदा होते हैं। क्षेत्र की, परस्पर की और परमाधामीकी ३ प्रकार की वेदना और १० प्रकार के क्षेत्र वेदना नरक में अनुभव होते हैं। शीत और उष्णवेदना अनंत गुणी उष्ण और शीतवेदना एकेक नरक के आगे तीव्र तीव्रतर, तीव्रतम हैं। नरक में सम्यग्दृष्टि और दूसरा मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यादृष्टि : दुःख में निमित बनकर सामने वाले व्यक्ति पर क्रोध करते हैं और नये कर्मोका बंध होता है। सम्यग्दृष्टि: जीव नरकमें विचारते हैं कि में पूर्वभव का अनेक विध पाप प्रवृत्तिओं की है। उसका ये फल हैं :- पाप विपाकोके समभाव सहन करते हैं दूसरे का क्या दोष है। नर्क धरती के नीचे पाताललोकमें आई है। असंख्य योजन तक फैलाइ हुइ है। महाघोर पाप करनेवाले जीवो नरकमें जन्म लेते है । देवलोक में सुख प्राधान्य हैं । परंतु नरकमें उत्पन्न हुऐ जीवो को संपूर्ण दुःख भुगतने को पडते है। जो पूर्वभवमें अग्निस्नान से शरीर छेदसे संकलिष्ट परिणाम भरा हुआ हो वो जीव नरकमें उत्पन्न होते तो उस समयमें शाता का अनुभव होता है, अथवा कोई मित्र देव आकर शाता का अनुभव कराके जाते । कोई कल्याणक प्रसंगपरभी कुछ शाता होता है। बाकी सदा अशाताका अनुभव होता है। अच्छिनिमीलण मितं नत्थि सुहं, खुद की नरक की आयुष्यस्थिती तक नारकजीवो हमेशा के लिये दुःख अनुभव, क्षणभर भी सुख की प्राप्ती नहीं होती इस लिए हरएक आत्माओं ऐसी दुर्गतिमें न जाना पड़े इस लिए पापकी प्रवृत्तिओ न कर के सदाचारी-संयमी और पाप के बिना जीवन जीना चाहिए। रत्नप्रभा पृथ्वीका उपरके छेडे की समश्रेणी चारो बाजु फिरते गोलाकार में रहे हुए घनोदधि, धनवात और तनवात वलय की पहोलाई कितनी है ? घनोदधि पहोलाइ -६ योजन है। घनवातकी - ४|| योजनकी तनवातकी १|| योजनकी, उपरके भागकी १९ योजन दूर अलोक है। किल्ला जीतना व्यवस्था की जरूर नहीं उधर कुछ अच्छा नहीं के लुटने की भी नहीं मात्र दुःख ही होता है। नारको पराधीन है। ___ मालीक जैसा कुछ भी नहीं, कुछ वस्तु को बेचनेका भी नहीं, सब अशुभ है। सातवी नरक बाकी प्रायः नारको सतत उत्पन्न होते हैं। और आते है। कुछ बार ही अंतर (विरह) पडते हैं। सातवे नारकीमें सामान्यसे ज.१ समय, उ. से १२ मुर्हत। प्राणीवध और मांस खानेवाले कालसौरीकादि जैसे नरक में जाते छिपकली-बिल्ली-तंदुलीय मत्स्य जैसे अशुभ विचार रौद्र परिणामो से दुदर्यानमे नरकायुष्य बांधते है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान नरकमें ४ गाउका, पहेलीमें, और अंतिममे सातवीका १ गाउका होता है। नरकभूमि कैसी ??? नरकभूमि दातुण और करवत जैसी कर्कश होती है। भूमि का स्पर्श अत्यंत दुःख दायी होता है। ये नरकभूमिमें काली अमासकी रात्री से भी ज्यादा भयानक अती भीषण और तीव्र अंधकार होता है। प्रकाश का तो नामोनिशान नहिं । वहाँ कोई खिडकीयाँ वेन्टीलेशन भी नहीं। लिमडे की गला जैसी, दुनियाकी कडवेसे भी कडवी चीज से ज्यादा अनंत गुणी कडवाश भूमि रही है। ___ दूर दूर तक, चोमेर लीट, बळखा पीशाब और विष्ठा जैसी दुर्गंधमय पुदगलो फैले हुए होते है। जहाँ भी पैर रखो वहा खून-चरबी जैसी अशूचि पदार्थ रहती है । स्मशानकी जैसी यहाँ चारे दिशा में मांस-हड्डीयाँ ढग रहेती है। खून की जैसी तो नदीयाँ बहती है। सडी हुई मुर्दो से भी अधिक दुर्गंध मारती है। ऐसी दुर्गंध मनुष्य से सहन नहीं किया जा सकता है। अरे, ये दुर्गंध की बदबु मात्र एकही कण जो मनुष्यलोकमें मुंबई से कलकता जैसी बस्तीवाले ऐसे बडे शहर में लाकर रखा जाए तो पूरा का पूरा मनुष्य खतम हो जाता । एक भी मनुष्य जिंदा न रहता । मनुष्यतो क्या ? कुते-बिल्ली-चुहे जैसे प्राणी भी ये बदबू से जिंदा न रहे। __नारको जीवो को वेदनापीडा-दुःख : घोर असह्य कम्मरतोड वेदना-पीडाओ नारकीके जीवो के लिये झीक रही है। उससे अत्यंत त्रास से नारकीओ कान के पडदे फाड देते, पत्थर जैसी बडी शीलाको फाड दे ऐसे आवाज निकालते है। पूरा आकाश आक्रंद करता हो ऐसा लगता है। वह जीव जोर जोर से बूम मार रहे है। उनके अश्रु तो सुकते ही नहीं है। लेकिन वहाँ कौन बचाए ? जीवमात्रको पापसे और दुःख से बचानेवाला धर्म है। धर्म की उपेक्षा करके जो पाप किए है उसका ही यही घोर परिणाम है। ओ माँ! मर गया ! ओ बाप रे! सहा नहीं जाता ! बचावो बचावो ! मेरे उपर दया किजिए ! मेरा कत्ल न करो ! ऐसी अनेक दयासे भरी विनंती से भरी वातें परमाधामी के पैर में गिरके करते है। अच्छे से अच्छे लोगो के रोंगटे खड़े हो जाए, हृदय जम जाए, शरीर काप उठे रक्त रुक जाऐ ऐसी कारमी वेदनाएँ नारकी के जीवों को सहन करनी पड़ती है। परंतु वहाँ कोई उसे सुननेवाला भी नहीं है और कोई बचानेवाला भी नहीं है। पिछले भवों में हमने जो हँसते हँसते पाप किए है उसे रोते रोते भुगतना ही पड़ता है। नए-नए क्रोध कषाय और धमधमाट से पुन: नए कर्म बंधाते ही रहते है। और उसके फल स्वरूप बार बार वेदनाए भुगतने की परंपरा चलती ही रहती है। नरक के जीवों को तीन प्रकार की वेदना होती है... (१) क्षेत्र - कृत वेदना (२) परमाधामी कृत वेदना (३) अन्योन्य कृत वेदना। क्षेत्र-कृत वेदना : दश प्रकार के तत्वार्थ सूत्र में दर्शाया (१) भूख की वेदना इतनी सखत होती है कि एक नारकीय जीव पूरी दुनिया का सब अनाज, फल, फुल, मिठाई वगेरे खानेलायक सब चीजो खा ले फिर भी उनकी भूरव शांत नहीं होती, परंतु बढती जाती है। ऐसी अति सख्त भूरवमें भड़भडते, पुकार करते खुद बहुत बड़े आयुष्य को पूर्ण करते है। (२) प्यास की वेदना बहुत ही भुगतनी पड़ती है । दुनियाभरके सब कुछ वाव, तालाब, सरोवर, नदीयाँ, कुओ, कुंडे, सागर का पानी एक नारकी जीव पी ले फिर भी उसकी तरस छीपती नहीं है। उसका कंठ, तालवा, जीभ और अधर हमेशा सूक जाते है। दुःख टालने की कोशिश करते है। वैसे वैसे दुःख बढ़ता ही जाता है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) शीत वेदना भी इतनी ज्यादा भुगतनी पडती है कि यहाँ के मानव भवमें सर्दीकी प्रकृतिवालाहो अस्थमा, खांसी आदि की पीड़ा हंमेशा के लिए हो, जरासी भी ठंडी हवा सहन कर न सकते हो ऐसे मानव को पोष या महामास की अतिशय ठंडी हवा की लहरे आती हो बर्फ गिर रही हो, और उँचे से उँचे पर्वत की टोच के उपर नग्न अवस्थामें सुला दिया जाए, और उसे जो ठंडी की पीडा होती है। उससे अनंतगुणी शीत वेदना उष्णयोनिमें उत्पन्न हुए नारकीय जीवोको हमेशा भुगतनी पड़ती है। (४) उष्ण वेदना मतलब गर्मी की पीड़ा वह भी नारकीको बहुतही सहनी पड़ती है। ठंडे प्रदेशमें, जन्म हुआ हो ऐसा मानव हो, गर्मी बिलकुल ही सहन न कर सकता हो, उसे गरममें गरम हवावाले प्रदेशमें, भरपूर गर्मी में, वैशाख, और ज्येष्ट के कडक तापके बीचमें, खेरके लकडे के गरमगरम कसे पर सुलाने पर जो वेदना होती है, उससे भी अनंतगुणी गर्मी की वेदना, नरकमें रहनेवाले शीत योनि उत्पन्न होनेवाले नरक जीवोको होती है। गर्मी की वेदना से भी ठंडी की वेदना और ज्यादा कठिन लगती है। (५) ज्वर - वेदना मतलब बुखारकी पीड़ा, वह सब नारकी जीवोकी हमेशा रहती है। जितना नीचा स्थान नारकी जीवो का होता है उतने ज्यादा रोगसे दुःखी बनते है । (६) दाह मतलब जलन नरक में रहनेवाले जीवोको शरीरमें अंदरसे और बाहार से हंमेशा ज्यादा जलन रहा करती है, और वहाँ जहाँ भी जाते है । वहाँ जलन बढ़ानेवाले साधन ही मिलते है, उसे शांत करनेके लिए कोई भी जगह या साधन मिलते नहीं है । (७) कंडु मतलब खुजली । वह जीवो को हंमेशा इतनी खुजली होती है कि वह कितना भी खुजाएँ, लेकिन वह पीड़ा कम नहीं होती । चक्छु, छुरी, तलवार या एकदम धारदार हथियारोसे, शरीर को चमडीको उखाड देने जैसे करे फिर भी उसकी खुजली की पीड़ा टलती नहीं और जलन की कोई सीमा नहीं रहती । (८) परतंत्रता भी इतनी ही होती है। कोई भी अवस्थामें उसे स्वतंत्रता जैसी चीजका अनुभव नही होता हमेशा पराधीनता की दशामें ही पूरा जीवन व्यतित करना पड़ता है। (९) डर ज्यादा रहा करता है, उधर से कष्ट आएंगे कि इधर से कष्ट आएंगे कि इधर से कष्ट जाएंगे ऐसी चिंता दिनरात रहा करती है । सदा त्रास, निरबलता, घबराहट, हद बाहरकी संकोच में रहते है। कोई भी वातकी शारीरिक, मानसिक शांति का जरा भी अनुभव नहीं होता । विभगंज्ञान से आगे आनेवाले दुःख को जानकर सतत भयके वातावरण रहेते है । (१०) शोक की पीडा भी हद के बहारकी, जोर से चिल्लाना, करुण रुदन करना, अतिशय गमगीन रहना आदि दुःखद स्थितिओं में ही पूरा जीवन व्यतित होता है । परमधामी कृत वेदना : नरकमें दुःख देनेवाले १५ प्रकारके परमाधामी देव होते है। नारकी के जीवो को अलग अलग प्रकार से अति भयानक विविध दुःख देते है । यह परमाधामी तीन नरक तक होते है। परमधामी वह जीवो उनके पाप याद कराके कठिन से कठिन शिक्षा लेकर रिबाते है । नारकीजीव उत्पन्न होते है वैसे तुरंत ही वह गर्जना करते करते चारो दिशाओंसे दौड़ के आते है और बोलते है । यह पापी को जल्दी मारो, चीर दो, फाड़ दो। वह लोग भालातलवार तीर आदि से उनके टुकडे-टुकडे करके कुंभी में से बहार खींचकर निकालते है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म का कुंभ जैसा स्थान के जिसका मुँह छोटा और बड़ा होता है उसे कुंभी बोलते है । इस तरह कुं भीमें से बहार निकला हुआ नारकी जीव अत्यंत आक्रंद करता है, फिर भी निर्दय हृदयवाले परमाधामी उन्हे शूली पर चढाते है। उधर से लेकर कंटक के में उसे गिराते है । भडभडती वज्र - कठिन जैसी चितामें फेंकते है । आकाशमें ऊँचाई तक लेकर जाते है और शिर उँचा करके नीचे की और फेंकते है । नीचे गिरते ही वज्रमय शूली - सोयोसे घायल कर देती है । गदा आदिसे मारते है। पूरे तन के छोटे बड़े टुकडे कर देते है । अंग अंगको छिन्नभिन्न कर देते है । पुरे तनके छोटे मोटे टुकडे-टुकडे कर देते है परंतु कोल्हू में तिलको जैसे पिलते है, कान को काट देते है, हाथ पैर चीर देते है। छाती को है । को भी काट देते है । जहाँ पे घाव हुआ हो वहाँ नमक छाँटते है। खाने के लिए जानवर की खराब कलेजा जैसे पुद्गल देते है । अतिशय दुःख पीडा से धीरे हुए नारकी जीवो चारो दिशाओं मे रक्षण ढुँढते है। परंतु उसे कोई मदद करनेवाला या रक्षक दिखता नहीं है । कितने परमाधामीए नारकी जीव के शरीर के टुकडे, टुकड़े करके उबलते हुए गरम गरम तेल में पकोड़े के जैसे तलते है । बड़े-बड़े चुलेमें कढ़ाइमें अतिशय गरम रेती में जिन्दे मछले की तरह रोक लेते है। उनके शरीर का मांस निकालकर उनको ही खिलाते है। भट्ठे में चना -सींग आदि फोडते है ऐसे ही परमाधामी भट्टी से भी अनंतगुनी तपी हुई रेती में उसे सेकते है । कितने परमाधामी नारकी कोरम की हुई लोहे की नाँव में बिठाते है । चरबीमांस-पस हड्डी जैसी चीजों से भरी ज्यादा झारवाली, गरम गरम लावारस के प्रवाहवाली और एकदम गरम स्पर्शवाली नदीमें नारकीओ डुबाते है, चलाते है। एक दुसरे नारकीओं के पास एक दुसरे की खाल उखाडते है। और खुद करवत से बड़े निर्दयी बनकर लकडी के जैसे काट डालते है । पीडाओंसे ही हुए नारकी जीवोके शरीरमेसे खालमांस आदि निकालकर आगमें पकाकर उनके मुँह में जबरदस्ती डालते है। उनका रक्त ही उनको पिलाते है। लोहे सलिये से मारते है। शिर उलटा कर लटका देते है। और नीचे आ जाते है । रस्सी से बाँधकर वज्र की दिवाल के साथ, धोबी कपडे धोते समय पत्थर की शीला के उपर कपडे को पटकते है वैसे ही पटकते है । बाघ-सिंह जैसे भयानक प्राणी के पंजे आदि के प्रहार से हैराने करते है । आँखे बाहर निकाल देते है । मस्तक उखाड देते है । नाको को जब कुंभी से पकाते है तब ५०० / ५०० योजन ऊँचाई तक उपर जाते है, और वहाँ से वापस पृथ्वी पर पटकते है । परमाधामी वह जीवोको उनका पाप याद कराकर, पूर्वभवमें मजे से किए हुए रात्रि भोजन, मांस-मंदिरा आदि के स्वाद के पीछे पागल हुए लोगोको, मजे से कठिन हृदय अभक्ष का भक्ष करनेवाले को उनके दंड के रुप में मुँह में चीटियाँ भरकर मुँह को भयंकर सर्प, वींछी जैसी तथा विष्टा अनंतगुणी अशुभ और दुर्गंधवाली वस्तुएँ डाल देते है । स्वाद के लालच में निष्ठुर बनकर अपेयमान अंडे की केक नवाला आईस्क्रीम मे बहुत ही मजा आती थी न ? यह याद करा, गरम गरम सीसे के जैसा प्रवाही नारकमें मुँह में डालते है । परस्त्री में आसक्त और विषयमें आसक्त जीवों ती हुई गरमगरम पुतलीओका आलिंगन कराते है । रात-दिन दुःखकी पीड़ा में रहते नारको एक श्वास सुखपूर्वक नहीं ले सकते है। उनके भाग्यमें केवल दुःख ही होता है । नारकके जीवो को पटकनेमें आएँ, काटने आए, तलेने आए, रोकनेमें आए, तोड़नेमें आए, पिगालने में फिर भी अशुभ वैक्रिय पुद्गलो फिरसे पारेकी तरह जैसे होते है ऐसे वापस हो जाते है । वह दुःख से परेशान होकर मरना चाहे तो भी खुद के निरुपक्रम आयुष्य पूर्ण होने से Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Course पहले मर नहीं सकते, ज्यादा से ज्यादा, समय यह घोर पीड़ा - वेदनाएँ उन्हे रोते रोते जबरदस्ती सहन करती पड़ती है। अन्योन्यकृत वेदना : ___जैसे मनुष्यलोक में एक गल्लीके कुते दुसरी गल्ली के कुते देखकर आमने सामने आ जाते है, भोंकते है और घुरकते है, वैसे नारकीओं भी परस्पर क्रोधसे गुस्से में एक दुसरे के सामने आते है। घुरकते है, झगड़ते है, मारते है, काटते है, दुःख देते है क्योंकि उनकेजन्मजात परस्पर वेर होते है। भाले-तलवार तीर और हाथ-पैर कि दांत के प्रहारसे एक दुसरे के अंगो अंगमें छेद हो जाते है और कत्लखाने में कटे हुऐ अंगोवाले पशुओकी भाँति तड़पते है। नीचे नीचे और नीचे की नरकमें दुःख पीडा - त्रास आदि तीव्र, ज्यादा तीव्र और ज्याद तीव्र होते है । देहमान तथा आयुष्य अधिक होते है। नारकी जीवोके दुःख पीड़ा का सामान्य वर्णन : जैनतर ग्रंथोके आधार पर जैनेतर-ग्रंथोमें कोई कोई स्थानमें नरक-नारकी और नरकजीवो के दुःख का वर्णन किया हुआ देखनेको मिलता है। उसमें भी खास करके गरूड पुराण में विशेष ध्यान दिया हुआ है। उसमें से थोडे भाग का इधर वर्णन है। अनेक प्रकार के भ्रमित चित्रवाले, मोहजालमें फसे हुए और कामभोगोमें आसक्त आत्माएँ अपवित्र नरकमें गिरते है। - श्रीमद भगवद्गीता यह लोकमें जो राजवंशी, राजपुरूष और पांखडीओ धर्मरूपी सेतुको तोड डालते है वह लोग मरके नरकमेंवैतरणी नदीमें जाते है। मर्यादाभ्रष्ट लोगोका वैतरणी नदीके मत्स्यो द्वारा भक्षण होता है । वह मरना चाहे तो भी मर सकते नहीं। खुदके पूर्वभवके पापोको याद करते हुऐ वह लोग विष्टा, पिशाब, पस, रक्त, बाल, नाखून, हड्डी, मेद मांस और चरबीसे भरपूर नदीमे अतिशय परेशानी का अनुभव होता है। हे राजन, चौदश, आठम, अमास, पूनम, सूर्यक्रांति आदि पर्वक दिवसोमें तेल, स्त्री और मांस को जो आत्माएँ भुगतती है वह यहां से मृत्यु पाकर जहाँ पिशाब और विष्टा का भोजन है ऐसी नरकभूमिमें उत्पन्न होते है। - श्री विष्णुपुराण अपने फायदेके लिए जो लोभ प्राणीओंको मार डालते है, और मांस के लिए जो धन देते है वह पापी आत्माए नरक में आदि स्थानों में जाकर अनंतवेदना भुगतते है। इसलिए मांस का त्याग करना चाहिए। -श्रीलंकावतार सूत्र(बौद्ध) (१)नास्तिक (२) मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला (३) लोभी (४) विषय आसक्त (५) पाखंडी (६) नमकहराम । यह छःह प्रकारके जीवो मरकर नरककी पीडा भुगतनेवाले होते है। जुगार, मांस, मदिरा, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और परस्त्रीहरण यह सात व्यसन जीवोको नरकमें ले जाते है। भूख, प्याससे पीड़ाते पापी नारकी जीवो नरकमें जहाँ जागवाली रक्तकी वैतरणी नदी बहती है वह नदीके रक्तकी वैतरणी नदी बहती है वह नदीके रक्त जैसे प्रवाही पुद्गल पीते है। अतिभयंकर अतिशय कुर यमदुतो से मुदगर-गदा आदिके मारसे नारकीओके मुँहमेसे नीकलता हुआ रक्त वह नारकीओ को वापस पीलाते है। हे गरूड, इस प्रकारसे पापी जीवोकी पीडा अनेक प्रकारकी है। सर्व शास्त्रोमें कहे हुए वह पीड़ा का विस्तार से वर्णन करने से क्या ? अर्थात कितना भी वर्णन करो तो भी कम है। - श्री गरुड पुराण श्रीमद् भागवत स्कंघ प. से २६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक के आयुष्य को ही अशुभ माना के बाद पाप, दुःख खत्म नहीं होते वह दुसरी गतिओंमें गया है। जहाँ सतत मौतकी इच्छा होती है, भुगतनी पड़ती है । वह प्रायश्चित आलोचना द्वारा इनके अलावा पशु आदि तीन गतिमें मौत पापकी शुद्धि हो सके उनके लिए तीन साल पहले भव के लिए इच्छा नहीं है परंतु जीवन ज्यादा आलोचना ३२० पन्ने की पुस्तक तैयार की गई है। करने का प्रयास है, कुत्ते, बैल रोगी होते है । विस्तृत वर्णन उसमेंसे देख लेना - सुख है तो दुःख फिर भी मरने के लिए तैयार नहीं होते। मोत भी है, प्रकाश है तो अंधेरा भी है, उसी तरह स्वर्ग है तो तो तभी प्यारा लगता है। जब नरक भी है। वैक्रिय शरीर हो उधर सुख और दुःख भी जीवन में असहन पीडा का अनेक ज्यादा हो फिर भी वह सुख दुःख से दूर रहना दुःख हो तब जीवन त्रास के ही अच्छा है। समान लगता है । ऐसे कष्टो, नरकमें परमाधामी ने बनाया हुआ तेजस्काय दुःखो, परेशानीओसे जो पदार्थ उष्णर्पश होते है परंतु साक्षात अग्नि असंभव छुटकारा पाना हो तो पाप मार्ग होती है। नरक जिसमे दुःखो की सीमा नहीं, विस्तृत से पीछे हटना ही पडेगा । नरक को तजने के। वर्णन सुनते ही कंपारी भय पैदा होता है - कंपन होती लिए धर्म और पुण्य की जरूरत होती है। है, खाना भी अच्छा नहीं लगता, नींद भी नहीं आती नेमिनाथ भगवान को कृष्ण कहते है मै नरक वहाँ सूर्य, चंद्र नहीं होते, अंधेरा अमास की रात से भी के मार्ग में नहीं जाऊँगा नरकमें तो मुझे जाना ही __ ज्यादा होता है। नहीं है । तब भगवान कहते है १८ हजार साधुओंको नरक के वर्णन के साथ विधि से वंदन करनेसे चार(४) नरक टल गई अब ३ झूठ, चोरी आदि पापोंके फलका नरक के दुख बाकी बचे है। वासुदेव के भवमें हिंसा वर्णन उदाहरण के साथ लडाईयाँ, आरंभ - परिग्रह के कारण से पाप किए वसुराजा असत्य बोलने पर है। उनका फल तो तुमको भुगतना पडेगा। भगवान नरकमें गए, नागदत्त के कहते है में भी तुमको बचा नहीं पाऊँगा। पिताजी अनीति माया करके तप और संयम के कष्ट तो मामुली है, नरक की । बकरा बनके मरकर नरकमें गए, सुभूमचक्री लोभ वेदना के आगे उससे अच्छा तो नरकमें जाना ही न से मरकर सातवीं नरक में गए एक एक पापोसे पडे ऐसी साधना कर लेनी चाहिए और पापोका त्याग मरकर नरकमें जाए तो १८ पापों को सेवन करनेवाले कर दो बाद में परमाधमी की क्या ताकात की हमको की परलोकमें क्या दशा ? शशीप्रभ राजा के जैसे परेशान कर सके ? पीछे से भविष्य में पछताना न पडे । जहाँ तक आयुष्य मृत्युके बाद आत्माकी क्या स्थिती होती है वह बाकी है और चित्त का थोड़ासा भी उत्साह है। तब शास्त्रोसे मालूम पड़ती है कि मर जाने के बाद नरकमें। तक आत्मा हित करनेवाली साधना कर ले । बादमें जाने के बाद वापस आ नहीं सकते वहाँ कालापानी । शोक न करना पड़े । नास्तिक प्रदेशी राजा नरकमें की सजा लंबे अरसे तक भुगतनी ही पड़ती है। मरने जानेवाले योग्य कर्म बांध लिए थे। फिर भी तप-व्रत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम द्वारा देवविमान प्राप्त कर सकते है । सम्यगदर्शन पाकर तो देवका ही आयुष्य बांध सकते है। नरकगति के द्वार बंद होते है। प्रमाद से नरकका और अप्रमादसे स्वर्गका बंध होता है । प.पूज्य भवोदधि तारक गुरुदेवश्री (आ.भ. कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा.) का उज्जैन के चातुर्मास में जीवाभिगम सूत्र पर चलती थी वाचना उसमें नरक वर्णनका अंत न आता नरओसु जाई अइकखडाई, दुखाई परम तिकखाई को वण्णे ताई जीवे तो वास कोडी ५ ( उपदेश माला) नरक में जो शारीरिक अति कठोर और मानसिक अतितीक्ष्ण दुःखो अग्निदाहशालमलीवन-असिपत्रवन - वैतरणी नदी और सेंकडो शस्त्रोकी जो पीडाओ होती है। उसे करोड़ वर्ष आयुष्यवाला भी आजीवन वर्णन करे फिर भी पूर्ण वर्णन कौन कर सके क्योंकि वह दुःखो की कोई सीमा ही नहीं होती । पापो के फल का वर्णन करोडो वर्षो तक करे तो नहीं सकता फिर भी यथाशक्ति वर्णन करने का प्रयास मैने किया है। मद्रास में वर्ष की आयु में स्कूल में पढ़ता था तभी छोटी पुस्तक में नरकके चित्रो को देखकर १३ रात्री भोजन का त्याग किया। दीक्षा बाद गुरूदेव के पास जीवाभिगममें नरक का वर्णन पढ़कर भवनिर्वेद हुआ और वैराग्यकी वृद्धि के साथ सजाग बनने का मन हुआ | नरकका वर्णन आबाल गोपाल सबको उपयोगी हो और उसके फलरूप में पापोंसे पीछे हटे। शायद पाप न छोड़ सके तो पश्चाताप हो । और जल्दीसे जल्दी पाप छोडनेके लिए कटीबद्ध हो । यही आशय से नरक के वर्णन का पुस्तक लिखने की भावना हुई, मेरी पुस्तक में नरके वर्णन के साथ दिए हुए चित्रो के लिए पू.आ. जिनेन्द्र सू. म. सा. का सचित्र नारकी पुस्तक का भी आधार लिया गया है। तथा हिंसादि पापोके विपाक का वर्णन प.पू.पं. अरुणविजयजी म.सा. में से लिया गया है । तत्वार्थ सूत्र - लोकप्रकाशभवभावना आदि ग्रंथोमेंसे लिया हुआ है। पूर्व पू. आ. श्री जिनेन्द्र सू. म. सा. पू. आ. श्री हेमचंद्रसूरि म.सा., पू. आ. रत्नाकर सू. म. सा. तथा पू. आ. श्री राजेन्द्र सू. म. सा. ने भी नरके लिऐ पुस्तक लिखी हुई है । वर्तमान में अतिशय उपयोगी होने से मैने भी यह पुस्तक लिखी । उसमें भी नवसारी के गमनभाई ने सं. २०५८ के चातुर्मास मे व्याख्यान में सामान्य नरक की बात भी कहा आप नरक के लियए सुंदर पुस्तक तैयार कीजिए । चिंतामणी संघ के ज्ञान खाते मेसे अच्छी रकमकी ओफर से यह पुस्तक का लेखन तैयार किया । और मुंबई के सुश्रावकोकी श्रुतभावना से तैयार हुई थी । प्रथम आवृत्ति ४१०० नकल, दुसरी आवृत्ति ४००० कुल गुजराती ८००० अधिक नकल प्रगट हो चुकी, इंग्लीश में २५०० नकल, हिन्दी नकल ३०००, तीनों भाषा: प्रगट करने की भावना सफल हुई सिर्फ एक उदेश्य पाप से पीछे हटकर दुर्गति से बचे । - पू. गणिवर्य श्री विमलप्रभ वि. म. सा. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To पेज नं. a अनुक्रमणिका r ............. in 16 - 0wo 39 0 Y Y Y Y rw ...... a ............. Y ............. My ० My My पैसे ज्यादा लेना पर सामान बराबर नहीं देना Na a a a aa a or now 9 0 ० aa a a r My ..................... अनुक्रमणिका विषय नरक दुःख वेदना अति तीव .... नरक के दुःखो से छुटकारा पाने के उपाय ........... नरक चित्रावली... ....... हिंसा आदि पाप की भयंकर सजा.. विश्व में चारों ओर कितनी हिंसा ......... अंडे खाने में पंचेन्द्रिय जीव की हत्या ....... गर्भपात............................ पंचेन्द्रिय जीव की हत्या ................. हिंसा का फल - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती. असत्य का फल - कौशिक तापस चोरी का फल................... अब पाप का फल ........... परिग्रह पाप का फल .. तिलक शेठ...................... नंदराजा .................... क्रोध का फल-सुभूम चक्रवर्ति और परशुराम ..... अग्नि शर्मा तापस ........... लोभ का फल - कौणिक............ गुणचंद्र और बालचंद्र .... द्वेष करने से नुक्सान ............ किये हुए पापों की सजा............. शशी और सूर की कथा ........ सूभूम चक्रवर्ति ............. कंदमूल भक्षण नरक का अंतीम द्वार .... नरक के विषय में शंका ...... नारक सिध्धि.... नरक गति के आयुष्य बंध के कारण ........... सात नारकों का आयुष्य.................. नारक के आवास नारको की लेश्या .......... कौन, कौनसी नरक तक जा सकता है ? अलग अलग संघयण वाले जीव की नरकगति .. नरक में से निकला हुआ जीव क्या बन सकता है..... नरकावास कौन से आकार-संस्थान से है . नरकावास की लंबाई, चौडाई और परिधि......... रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास कितने बडे है ? ..... नरक की भयानक स्थिति. सात नरकों का स्वरूप............. नारकी की उठण वेदना. नारकी में अति शीत वेदना .... My My : My : My : " rm 1 9 0 My My My my ....... r धार्मिक मालमत्ता का खराब उपयोग r r my r 0 So ० ० So ............. r So ........... So ............ .......... दूसरों की मालमत्ता लूटना : : r r r r in n n 0 9 Wr orm o 30 9 0 in n in in n n : : So So So So So So mm Y 33wwer So So So So So So : : ........... ......... मांसाहार भक्षण in वदना ........... to ० So Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ० ० ० .......... गर्मपात मापापो. अंडे में जीवन है। किसी का जीवन छीन लेने का हमाराकाधिकार इमों की हत्या कर जोकर विभागा, वह क्या मानवाता है। ............. ............. 000000000533333333wwwwwwwwww 9 9 9 9 9 9 9 9 9 Now 9vor or mow WORK मिशिगन विश्व विद्यालय, मेरिका में पेशानियों पुरपार किया है कि फलित या अफलिम कोई भी अंडा निजीक नहीं होता है। हर अंडे में जीपम है। जगणे प्रवासाच्या अचापचय आदि क्रियाशाली नारकी में भूख और प्यास कैसी होती है ? ......... नारकी में वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा ........ रत्नप्रभा आदि पृथ्वी के आवासों में वर्ण, स्पर्श आदि .. नरक में कौन जाता है ?. पापकर्म का दारूण विपाक ....... क्षेत्रकृत वेदना ......... आगम सूत्र ............ नारकी के द्वार.................... ............. नारकी का उत्तर वैक्रिय शरीर .............. नरक में नारकी को साता कब ....... नरक की सात पृथ्वी का स्वरूप ............... रत्नप्रभा, शर्कशप्रभा आदि पृथ्वी की जाड़ाई और चौड़ाई....... नरक में १५ प्रकार के परमाधामी कृत वेदना .... परमाधामी मरकर अंडगोलिक मनुष्य बनते है ........... परमाधामी नारकों को दुःख देकर आनंदित क्यो होते हैं .. नारकों के आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति .......... कौन से जीव नरक से आये है और पुनः नरक में जायेंगे ........ नरक में क्या नहीं होता ... वेद नरक में क्यों और कैसे जाते है ? .......... नारकों की गति .......... नरक की साबिती ........... वैमानिक देव अवधिज्ञान से नरक का कितना उत्कृष्ट क्षेत्र .......... त्रैवेयक और अनुत्तर देवों का अवधिज्ञान ....... अवधिज्ञान का जधन्य विषय क्षेत्र ............. ............. नारकी अवधिज्ञान से कौनसी दिशा तरफ ज्यादा देखती है, भवनपति आदि देवों के भवनप्रत्ययिक अवधिज्ञान के क्षेत्र का यंत्र ............. सातो नरक पृथ्वी के नारकी का उत्कृष्ट और जधन्य आयुष्य रत्नप्रभा के हर एक प्रस्तर में उत्कृष्ट और जधन्य आयु. .. १० प्रकार से क्षेत्र वेदना............ ३ वेदना में से कौनसी वेदना कितनी नरक तक होती है... ...... ............ सातो नरक पृथ्वी का पिंड और उसका आधार....... ........... नरक पृथ्वी की धनोदधि तीनो वलयों का विस्तार .... सातों पृथ्वी के आवलिकगत नरकवासा ............. सातों नरक को नरकवासा की कुल संख्या का यंत्र....... ............ नरकावास की उँचाई, चौडाइ और लंबाई ................. नरक पृथ्वी के पिंड के आंतरा की गिनती का यंत्र ............... ........ कौन से कारणों से जीव नरक आयु बांधे ? .................... ................. सातो नरक पृथ्वी के नारकी का शरीर, विरहकाल, उपतात संख्या, च्यवन संख्या और गति आगति का यंत्र ... आपके अभिप्राय .. આ નનામી દરરોજ બે હજાર લોકોનું વાન બને છે ! NA Mmm o r 9 9 9 9 9 9 9 3333333333333wwwwwwwwwwww 0 0 ० ० ० M m m 0 0 0 NATIનતી ન ભારતમાં રોજ anो पाने ............... पEDIA પાનધી થનાં મૃત્યુની સંખ્યા. पाine day निकामनाname. -RabariaHindi - RANIUMinist RHLOG Rasi RRIA पुण्य ........... !!! भोत निमंत्र !! swinitel BrainineneigRail I ndia ......... alamना M AAPraa danesellenismauntertainment : : Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) नरक दुःख वेदना अति तीव्र... सर्वज्ञ भगवंतो ने अपने ज्ञानबल से इन नरकों को प्रत्यक्ष रुप से देखकर इसका वर्णन किया है। वर्तमान में सूयमडांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, जिवाभिगम सूत्र आदि । अनेक आगम शास्त्रो में उपरांत कुवलयमाला, उपमिति भव प्रपंचा कथा, भव-भावना, लोक प्रकाश, त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र, बृहत संग्रहणी, देवेन्द्र नरकेन्द्र प्रकरण इत्यादि अनेक शास्त्रों में भी नरकगति का वर्णन प्राप्त होता है | श्री उमास्वाति लिखित तत्वार्थ सूत्र में भी इसका बखूबी वर्णन है | नर्क से बचने के लिये संयम, तप प्रभु भक्ति, साधुसाध्वी वैयावच्च आदि गुणों को आत्मसात कर इस जीवन को सफल बनाये और मुक्ति (मोक्ष) पाइये। गर्भपात कराने वाली महिलायें, करने वाले डॉकटर लोग या उसे प्रोत्साहित करनेवाले आदि सब नर्क में जाते है। वहाँ पर वे अति भयंकर अवर्णनीय दुःख सहन करते है । सात व्यसन और अंडे आमलेट आदि खानेवाला मांसाहारी जीव भी तीव्र पापोदय से नरक में जाते है। मांसाहारी मछुआरे, कसाई, बडे हिंसक प्रोजेक्ट को अमल में लानेवालो, गर्भहत्या करनेवाले डॉकटर, ऐसी माताएं और उसके सहायक सर्व जीव नरक गति का आयुष्य बाँध कर यहाँ से मृत्यु के पश्चात निष्कुट नरकमें उत्पन्न होते है। शेर भालु, चिता, बिल्ली हिंसक पक्षी जानवर या घुबड, उल्लु जैसे हिंसक पक्षी भी नरक आयुष्य बाँधकर नरक में उत्पन्न होते है। १ सागरापोम-१० करोड पल्योपम, १० करोड पल्योपम-असंख्य वर्ष,१धनुष्य-४हाथ हाथ-२४ अंगुल | पृथ्वी के नाम गोत्र के नाम जधन्टा आयुष्य १. रत्नप्रभा धम्मा वंशा २. शकराप्रभा ३. वालुकाप्रभा ४. पंक प्रभा ५. धूम प्रभा ६. तमः प्रभा शैला अंजना रिटा १० हजार वर्ष १सागरोपम ४ सागरोपम ७ सागरोपम १० सागरोपम १७ सागरोपम २२ सागरोपम उत्कृष्ट आयुष्य देहभान धनु अंगुल १ सागरोपम ९१११६ ३ सागरोपम १५११११२ ७ सागरोपम ३१११ १० सागरोपम ६२१११ १७ सागरोपम १२५ २२ सागरोपम २५० ३३ सागरोपम ५०० मधा ७. महातमः प्रभा माधवती समस्त समुद्रों का सर्व जल पीने के बाद भी तृषा शांत न होती है। ऐसी सतत खुजली रहती है। तीव्रता इतनी । कि तीक्ष्ण छुरिओं से खुजालने पर भी न मीटे । खुजली की पीड़ा अर्थात परवशता - अन्य पर आधीन रहने की वेदना नारकों को सदैव रहती है। बुखार, तो यहाँ के उत्कृष्ट ज्वर से भी अनंतगुना होता है। सुख में व्यतीत नहीं होता। ___नर्कागार में ऐसी तीव्र पीडा सहन करते हुए सम्यक दृष्टि जीव प्रायः यह सोचता है की जीव पूर्व के अशुभ कर्म जिसे तुमने स्वयं किये है उसका यह परिणाम है इसलिये अगर तुझे रोष करना है तो अपने कर्मो पर करना अन्य किसी पर नहीं कारण परमात्माने कहा है कि - जीव को दुःख या सुख जो प्राप्त होता है, वे सब पूर्व के कर्मो का फलविपाक है, अन्य तो इसमें सिर्फ निमित्त होते है । (परमधामी आदि) ___ ऐसे शुभ ध्यान से तीव्र वेदना को सहता हुआ अशुभ कर्मो को खतम करके नरक में से नीकलते राजकुल आदि में उत्पन्न होकर क्रमश : सिद्धिगति(मोक्ष) प्राप्त करता है। नारकी जीवों की पीडा देख क्रूर स्वभावी परमाधामी आनंदित होते है। परमाधमी देव पापी और निर्दयी होते है। (13) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व भव में पंचाग्नि आदि बाल तप(अज्ञान तप) के फल स्वरूप उनको देव की समृद्धि प्राप्त हुई होती है। (३) नरक के दुःखो से छुटकारा पाने के उपाय * सोउण णिरयटुटखां तवचारणे होइ जइयटवं ।। - सूयगडांग-नियुक्ति __ अच्छे भाव न आने की वजह से जीव हरदम अशुभ भाव और भयंकर पाप करके नरक में जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। अरे जो जीव कुछ समय बाद नजदिक के भविष्य मे तीर्थंकर बनकर मोक्ष में जानेवाले है, वे श्रेणिक महाराजा, कृष्ण वासुदेव, लक्ष्मण, रावण आदिजीव भी अभी नरक में घोर यातना भुगद रहे हैं। नरकगति से बचानेवाला चारित्र और तप है। बारबार सोचो कि तप और चारित्र से अगर नरककी घोर यातना से बचा जा सकता है तो तप और चारित्र के कष्ट सहने में क्या परेशानी ? नरक के अति घोर दुःख से बचने उसके कुछ अंशजैसा संयम और तप के कष्ट क्यों नहीं सहन करना ? १५ कर्मभूमिसेजीव मोक्षमें जाता है। युगलिक मनुष्य नरक में भी नहीं जाते और मोक्ष में भी नही आज का मानव पापजैसा टी.वी. छोड़ने को तैयार नहीं है। नरक दो-चार नहीं है, सात है फिर भी उसे न कोई डर है न घबराहट ! कैसी आश्चर्य की बात है ? हृदय कितना मजबुत है आदमी का ! चार गति में अति त्रासदायक शारीरिक और मानसिक दुःखो की यातनाएँ नरक में अनुभव करनी पड़ती है। अठारह पाप स्थानकों से अपने आत्मा को बचाना चाहिए | जिज्ञासा का पालन किजीए जिससे परमाधामी (पाप) अपनी काया का स्पर्श भी न कर सके । काया से तप और त्याग का आचरण कर सदगति बंध करना ही उचित है। ___ हमारे दादागुरु श्री कनकसूरिजी अमदावाद के श्रेष्टिओंको पुछते ? आपकी मीले (फेक्टरी) कितनी ? जितनी मीले उतनी नरक है। राजा श्रेणिक नरक से बचने का भगवान से उपाय पुछता है। क्या अपने को श्रेणिक महाराजा, जितना भय नरक का है ? चाणक्य के पिता ने उसके जन्म होते ही दांत घीसवा दिये क्योंकि उन्हें ज्योतिष ने बताया कि दांत बहार है इसलिये वह राजा बनेगा। धर्मयुक्त पिता को चाणक्य को राजा नहीं बनाना था क्योंकि राजा धार्मिक क्रियाएं आदि नहीं कर सकता जो दुर्गति का कारण बन जाती है। इसलिये उसके दांत घीसवा दिये ताकि वह राजा न बन सके। क्षीरकदंबक पाठक को जब परिक्षा द्वारा मालुम हुआ कि उसका पुत्र नरकमें जाने वाला है तब यह पुत्र के आत्मकल्याण के लिये घरबार छोडकर निकल पडा । धन्यवाद है ऐसे पिता को जिसे अपने बेटे की दुर्गति की सतत चिंता थी। सह सह विषीद मा, भो ? यहाँ तप-त्याग को कष्ट और दुःख नहिंवत है इसलिये सहन कर ले (अन्यथा) भविष्यमें अनंतगुना दुःख और कष्ट नरकमें भुगतने को तैयार रहना पडेगा। हे आत्मन!थोडा सोच ले। किसे कितनी कब नरकगति प्राप्त होगी उसकी गति-स्थिति आवासवर्ण-आयुष्य आदि का वर्णन शास्त्रो में उपलब्ध है। हर एक जीव को अलग प्रकार की वेदनाएं होती है। सर्व पापों का अंतीम फल तीव्र परिणामी होता है। पाप का विपाक नरक में रो रो कर सहन करना पड़ता है। यह द्रश्य देखकर सर्व पाप छोड दो, धर्म के आदेश से ज्ञान, ध्यान, तप, जप आदि प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करेंगे तो संसार भ्रमण का अंत हो जायेगा । मांसभक्षण का फल देखकर कौन बुद्धिमान उसे खायेगा जिससे नरक में वैतरणी नदीमें अपने को सिकवाना पडे । नरक में अति दारुण्य महावेदना झेलकर वापस प्रसाद में रहेने से ऐसी वेदनाएँ और पीड़ा कई बार सह चुका है, अब आत्मा को सावध कर जिससे ऐसी गलती दुबारा न हो कि फिर नरक में जाना पड़ जाये। सात नरको में शस्त्रों की मार से उठाती वेदना परमाधामी देवों द्वारा पहुंचाई जाती वेदना पंचेन्द्रिय की हत्या, गर्भपात, मांसाहार आदि के कारण होती है। दुःखो की पारावार असह्य कष्ट यातनाएँ अंतिम कक्षाके दुःखो नरक में भुगतना पडता है, अधिकतर पापो का फल भुगतने के लिए लंबा दीर्घ आयुष्य चाहिए | इसलिए अधिक दुःखो का स्थान नरक में जाना पडता है। तप जप की असीम शक्ती है कि जीवों को नरक में जाने से रोक सके। नवकारशी से १०० वर्ष पोरिसीसे १000 वर्ष। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (14) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साढ पोरीसीसे १०,००० वर्ष, पुरिमुड्ड से 1,00,000 वर्ष अवडढ़ से १० लाख वर्ष, एकासना करने से नारकी का जीव एक करोड वर्ष, आयंबील करने से १००० करोड वर्ष, नवी करने से नारकी का जीव १० करोड वर्ष, एकलठानुं से १०० करोड वर्ष, एक उपवास करने से १० हजार करोड वर्ष, अट्ठम, पक्वान करने (दस लाख करोड वर्ष ) नरक कमी होती है। अकाम निर्जरा द्वारा जो नरक जीव दुःख सहते हुए कर्मक्षय करते है। उन जीवों का जिज्ञासा से तपोबल से कर्मक्षय होता है। संपूर्ण १०८ नवकार गिनने से ५४००० सागरोपम, एक पूर्ण नवकार गिनेने से ५०० सागरोपम, नवकार के पद से ५० सागरोपम और मात्र नवकार का न एकाक्षर द्वारा ७ सागरोपम नरक का आयुष्यवध तुटता है। इस तरह तप और जप के प्रभाव से नर्क की दुःख भरी वेदनाएं कम होती है। नवलाख नवकार गिनता नरक निवारे । नरक का वर्णन सुनने के बाद, नरक है ऐसा विश्वास पैदा हो जाय तो जीवन परिवर्तन जरुर होता है। ज्यादातर लोगों को नर्क का भय नहीं है । रात्री भोजन नरक का प्रथम द्वार है, पर आप क्या उत्तर देंगे रात को खाना खाये बगैर कैसे चलेगा। नौकरी धंधे ही ऐसे हो गये है। जब परमाधमी आपके ऐसे बहाने सुनकर आपको छोड तो नही देगा । आप एक रात भी यहाँ भूखे नहीं रह सकते तो वहाँ नरक में हजारों, लाखो और अनगिनत वर्षो तक खाना भी नहीं मिलेगा और न पीने को पानी । उस समय भूख-प्यास कैसे सहन करोगे ? शायद आप ऐसा सोच रहे होंगे। कि जो पाप करनेवालों का होगा वह मेरा होगा ऐसा समझकर पाप कर्म चालू रखा तो फिर नरक से कोन बचायेगा ? आप ऐसा सोच रहे हो कि नरक नहीं है । अगर नरक निकली तो क्या हालत होगी इतना विचार किया कभी ? भगवान के परम भक्त श्रेणिक और कृष्ण को भी नरक में जाना पड़ा | भगवान से उनकी मुलाकात के पहले काय उन्होने बाँध लिया था। आज जरा सा दुःख आते ही उपर-नीचे हो जाते हैं, फिर एक साथ नरक के इतने दुःख कैसे सहन करोगे । नरक में न जाना हो तो तप त्याग और संयम की साधना किजीये जिससे कर्मों (15) का क्षय होगा। तीर्थंकर के कल्याणक के समय सातों नरक उजाला (प्रकाश) होता है। ४ सातों नरक में प्रकाश वर्णन : प्रथम नरक में सूर्य के प्रकाश जैसा, दुसरी नरकमें बादल छाये हुए सूर्य जैसा, तिसरी नरक में पूर्णिमा के चंद्र जैसा, चौथी नरक में बदली छाड़ हुई चंद्र जैसा, पाँचवी नरक में ग्रहों के प्रकाश जैसा, छठी नरक मे नक्षत्र के प्रकाश जैसा, सातवी नरक में तारा के प्रकाश जैसा राजा श्रेणिक प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तर में ८४ हजार वर्ष तक रहेंगे। लोक स्वरुप भावना एवं बृहत संग्रहणीमें नरक यातना का वृत्तांत रोंगटे खड़ा करनेवाला होता है । नरक में मुझे नहीं जाना : मगध सम्राट श्रेणिक पभु वीर को वंदना करने जा रहे हैं। वंदन के बाद पुछते है, भगवंत | मै मरने के बाद कहाँ जाउंगा। भगवान उत्तर देते है, तुम नर्क मे जाओगे। भगवान आपका सेवक नरक में जायेगा । हे प्रभु, कुछ ऐसा उपाय बताओ जिससे मेरा नरक का दुःख टल जाये दुःख की परंपरा ही खत्म हो जाये । आप जो कहेंगे सो करने को तैयार हूँ पर मुझे नरक में नहीं जाना | भगवान कहते है कि कर्म के आगे सत्ता - • संपत्ति, शक्ति सब कुछ किसी काम का नहीं, कर्म तुमने बाँधे तो उसका फल भी तुझे ही भुगतना पड़ेगा। तुमने शिकार किये, निर्दोष गर्भवती हिरण को तुम्हारे बाण का निशाना बनाया । दो दो जीवों को मारने के बाद भी तुझे तनिक भी दया नहीं आयी परंतु हर्ष हुआ। मै कितना पराक्रमी कि एक ही तीर से दो जीवों की हत्या की। उसी क्षण तुमने नरक का आयुष्य बाँध लिया था । उसे बदलने की न तुझमें या मुझमें शक्ति है । हंसते खेलते बांधे हुए कर्मो का फल तुझे नरक में भुगतने के अलावा कोई चारा न रहेगा। कर्म ने आज तक किसी नहीं छोड़ा चाहे वह प्रभु वीर का परम भक्त श्रेणिक हो या लंकापति रावण हो या फिर नेमनाथ भगवान के चचेरे भाई श्रीकृष्ण महाराजा हो । नरकगति की अति तीव्र दारुण पीडा का वर्णन बिना अर्थात पापाचरण के नाश किये बगैर नरक से बच पाना मुश्किल है । दुलिया मच्छ: मगरमच्छ की पलक पर रहता है । मगर के मुँह में कितनी मछली फंसती है और कितनी छूट हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है यह देखकर वह सोचता है कि अगर में होता तो एक भी मछली जबडे से छूट नहीं सकती थी । इस प्रकार से सिर्फ हिंसक विचार के कारण तंदुलिया मच्छ ७ वीं नरक में गया इसलिये विचारशील मानव सोच समझ कर आगे कदम रखना । खाने की तीव्र लालसा कंडरिक मुनि को ७ वी नरक में ले जा सकती थी। उन्होंने थुक को अमृत मान कर भोजन किया, धुंकने वाले गुरूभाई पर तनिक भी क्रोध नहिं किया। इसलिये उन्हे केवल ज्ञान हआ। अनाशक्त भाव से क्रिया करने से कर्मनाश होता है। अनंत बार नरक में गये, दुःख सहन किये फिर भी मैं रात्री भोजन त्याग नहीं कर सकता क्योंकि नौकरी धंधे ऐसे ही हो गये है। अपनी कमजोरी और भूल का स्वीकार न करना सबसे बड़ी कायरता है। नरक गति से मुक्त होना मुश्किल है पर उससे भी ज्यादा मुश्किल उसके कारणों से मुक्त होना है। बड़े धर्मात्मा भी उन कारणों से मुक्त नहीं रह सकते। गर्मी की ऋतु में बर्फ का पानी, साल भर फीज का ठंडा पानी पीने से असंख्य जीवों का घात होता है। किंत जब पशु-पंखी योनि में गंदे नाले में कचरा वाला पानी पीना पडेगा। थोडी सी भूख-प्यास के डर से चोविहार, नवकारशी, एकासना आयंबील भी नहीं करता पर जब नर्क गति में अनंत असाध्य दुःख सहने पडेंगे तब तुम क्या करोगे ? इस समय अगर साधना नहीं कर शके तो भविष्य में कैसे करेगा ? अचरमावर्त में एक भी दःख ऐसा नहीं है कि जो हमने नहीं सहे हो, कोई पाप भी ऐसा न होगा जो न किया पाप और दुःख से दूर रखकर उर्ध्व गति प्राप्त कराता है तथा उसे अधःपतन से बचाता है । जगत के सर्व दर्शनो में भी जैन दर्शन ही ऐसा है जो आत्मा की उन्नति के लिए उसे संसार परिभमण से दूर रख कर केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही प्रयत्नशील हो । जैन धर्म ने ही आत्मोन्नति के लिए यमनियम, व्रत, महाव्रत आदि धार्मिक आचार दर्शाये है। जैन धर्म के आचार में जिस प्रकार से अहिंसा की सूक्ष्मता रही है, उसकी वजह से सांसारिक जीव कर्मबंध से बच जाता है । जीव अशुभ कर्मोपार्जन कर दुर्गति में न चला जाय इसी कारण से नरक का स्वरूप वर्णन करना यह प्रकाशन प्रत्येक जीव को शुभ कार्यो में प्रवृत करेंगे और अशुभ कार्यो से पीछे हठ करवायेगा। जब चारों और जडता, नास्तिकता, तथा स्वच्छंदता का ही बोलबोला है ऐसे समय में आत्मार्थी बालजीवों को पाप कर्मो के दारूण कुपरिणाम उनके कोमल मन को छु जाये इस तरह पेश कर दुष्ट कर्मो के भय का चित्रण करता वर्णन आत्मा को पाप कर्म किये जाने पर नरक गति में जाकर भी भोगना पड़ता है उसका भावपूर्ण वृत्तांत जिस प्रकार चिंत्रो द्वारा दर्शाया गया है वह हर तरह से उपकारी हो। श्रन्दावान छोटे-बडे, आबाल-वृन्द तथा हर किसी के लिये शास्त्रो द्वारा दर्शित पाप कर्मो के कुपरिणाम स्पष्टता से समझने के लिये यह प्रकाशन खास उपकारी है। जो जन हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, अब्रह्मचर्य, व्यसन, अप्रमाणिक, अनीति, छल, कपट, देव, गुरू, धर्म की आशातना, धर्म आचरण करनेवालो की टीका, गुणीजनों की निंदा, रात्रीभोजन, कंदमूल भक्षण बड़ो का अपमान इत्यादि पापों का आचरण करता हो उसे कैसी वेदना भुगतनी पड़ती है यह हकिकत स्पष्ट तरीके से चित्रों में दिखाया गया ७. नरक चित्रावली: महान संतो ने पंचेन्द्रि प्राणि वध, महारंभ, महापरिग्रह, मासांहार निरनग्रहशीलता आदि को नरकगति का कारण दर्शाकर वर्णन किया है। हिंसा आदि कोई भी पाप जो उसमें तीव्र रस लेकर किया जाय तो नरक गति की प्राप्ति का कारण बनता है उसमें कोई संदेह नहीं। अति राग-द्वेष के कारण ही जीव हिंसा आदि पापों का सेवन तीव्र रस से करता हँसते हँसते बाँधे हुए कर्म तो रोते रोते भी न छुटे। आज के युग में बढता पापाचार तथा उसके प्रति घटती धृणा व पाप करने में निर्भयता, धर्माचरण के प्रति उदासीनता वगेरेह इन दुष्ट तत्वों के लिए यह प्रकाशन एक लालबत्ती के समान है। शास्त्रो में नरक भूमि का वर्णन देखने को मिलता है। श्रद्धा संपन्न जीवों का नरक के अस्तित्व में संदेह नहीं है। धर्म एक ऐसी शक्ति है जो आत्मा को संसार के अनेक हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (16) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकवर्ग के दिल और दिमाग पर पाप कर्मों के प्रति और घृणा पैदा करने में यह प्रकाशन अवश्य ही सफल होगा । चार गतिओं में भी नरक में अत्याधिक दुःख होते है तथा वह दुःख खुद आत्मा को ही सहन करना पड़ता है । हीं ? कीय दुःख है या नहीं ? ऐसी शंका व्यक्तिओं के मन में उत्पन्न हो सकती है। परंतु पुरी चित्रावली के पन्नों पर प्रकाशित शास्त्रों के प्रमाणो के अक्षरशः वाचन से यह शंका दूर होगी । रौद्र ध्यान आदि तीव्र अशुभ परिणाम जीव को नरकगति का अनुबंध कराता है। भयंकर पाप कर्म करने वाले पापी भी पश्चाताप, प्रायश्चित संयम आदि तप करले पाप से मुक्त होकर सद्गति पाता है। एक असत्य वचन से वसुराजा नरक में उत्पन्न हुआ । नरक के चार दरवाजे है- प्रथम रात्री भोजन, दुसरा परस्त्री गमन, तिसरा बोर आचार, चौथा अनंतकाय भक्षण । लोग रात्री भोजन करते है, शील और संयम विहिन है । मध, मंदीरा, मांस के भक्षण में तत्पर है, वे मरने के बाद महानरक में जाते है । यहाँ रात्रि भोजन के फल में विभिन्नता है । शास्त्रो में नारकी के लिए विस्तार से विवेचन है । श्री भगवती सूत्र, ' श्री प्रश्न व्याकरण, श्री जीवाभिगम सूत्र, श्री भवभावना आदि में नरक के बड़े बड़े वर्णन है । सूत्र ख्रिश्चन बाइबल में हेल नारकी का उल्लेख है । कुरान में जहन्नम - नरक के दुःख सहन करने का लिखा है । चार्वाक के सिवाय सब ने पाप के फल को माना है। और अति पाप से नरक दुःख भुगतना पड़ेगा ऐसा माना है । जीव हिंसा झूठ, चोरी, पापी, रौद्रध्यानी, परद्रोही, क्रूर और व्यभिचारी होता है वह भी नरकगति प्राप्त करता है । प्रमाद से आशक्त देव, मनुष्य और विद्याधर के भव में सुख भुगतने के बाद नरक में डर, डर, भय शब्दों के उच्चारण करते हुए जीव सीसा और तांबा रुप प्रवाही पीता है। (17) जो जीव आसक्त, दुष्ट और मूढ पापकर्म इस लोक में करता है वे पाप उसे अतिशय वेदना देनेवाले भयंकर नरक जाते है । भक्रखणे देवदव्वस्स, परत्थीगमणेण य । सतमं नरयं जंति सत्त - वाराउ गोयमा || भावार्थ : हे गौतम, देवद्रव्य का भक्षण और परस्त्री गमन से जीव सातवी नरक में सात बार जाते है। अणुत्तरेसु नरएस वेयणाओ अणुत्तरा । पमाए वट्टमाणेणं मए पत्ता अनंतसो || भावार्थ : विषय, कषाय आदि प्रमाद को वश होकर मैंने भयंकर नरको में भयंकर वेदना अनंतबार सहन की है । हे राजन ! चौदश अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा सूर्यक्रांति पर्व है । इन दिनों में तेल, स्त्री और मांस का भोगी यहाँ सूत्र का ही भोजन है ऐसी विष्ट मूत्र भोजन नामक नरक में जायेगा। (अन्य धर्म में बताया है ।) अक्वाई राठोड : वैध और परिवारजनों से त्यजा हुआ औषध से तंग, सोलह महारोग से युक्त राज्य, राष्ट, और अंतर में मुर्च्छित राज्य की कामना करनेवाला, प्रार्थना करनेवाल शरीर और मन से दुःखी ऐसा वह (२५०) साल का आयुष्य भोगने के बाद रत्नप्रभा नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नारकी रुप उत्पन्न हुआ । परलोक में नारक मेरु पर्वत की तरह सास्वत नहीं है । जो कोई पाप का आचरण करता है वह नारक बनता है । नारक मरने के बाद नारक तरीके से उत्पन्न होते नहीं है इसलिये वे दुसरे भव में नारक नहीं कह सकते हैं । जो जीव माता, पिता, गुरुदेव, आचार्य और पूज्यों का अनादर और अवहेलना करता है वे वैतरणी नदी में डूब जाता है। जो जीव पतिव्रता, सती, कुलीन, विनम्र ऐसी पत्निओं का द्वेष बुद्धि से त्याग करते है। वे अवश्य वैतरणी में गिरते है सज्जनों के हजारो गुण पर जो दोषोरोपण करता है । उनकी अवज्ञा करते है वे सब वैतरणी में पड़ते है । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरएस वेअणाओ अणोवमाओ असायबहलाओ। कायनिमित्तं पत्तो अणंतखतो बहुविहाओ ।। भावार्थ : जीव ने काया के द्वारा अनुपम अशाता वेदनीयता, परम रुदनवाली विविध वेदनाएँ अनंतीवार प्राप्त की है। जो स्त्री अपने पति पर दोषारोपण कर अन्य पुरुष का चिंतवन करती है, वे स्त्रिर्या शाल्मलीवृक्ष पर अनेक प्रकार से पीडा सहती है। नास्तिक, मर्यादा का भंग करनेवाली, लोभी, विषय लंपट, पाखंडी, अकृतज्ञ छ: नारको में जाती है। ___ इमीसे णं भते । रयणप्पहो पुढवीए नेरइया एक्रसमएणं केवतिया उववजंति ? गोयमा जहण्णेणं एक्रो वा दो वा तिन्नि का उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंख्यज्जा वा उवज्जंति एवं जाव अधे सत्तमाए। हे भगवान । वह रत्नप्रभा पृथ्वी में एक समय में कितने नारकजीव उत्पन्न होते है ? है गौतम, जधन्य से एक, दो या तीन, उत्कृष्ट से संख्याता या असंख्याता नारकीजीव पैदा होते है। इस प्रकार से सातवी नरक तक का जाना। राजा की रानी की इच्छा करने वाले परस्त्री का अपहरण कार, अपरणित कन्या और सती स्त्री को दुषण देनेवाले दुष्ट नरक में जाता है। झूठी साक्षी देनेवाले, कूटनिति करने वाले छल कपट से द्रव्य कमाने वाला, चोरी करनेवाला, वृक्ष छेदन करनेवाला वन-उपवन-उद्यान बगीचा का विनाश करनेवाला, अव्रती बनकर विधवा के शील का भंग करनेवाले मनुष्य अवश्य नरक में जाता है। शस्त्राणां ये च कर्तारः शराणां धनुषां तथा । विक्रेताश्व ये तेषां ते वे नरकगामिनः ।। भावार्थ : जो हथियार बनाते है धनुष्य बनाते है, या उसे बेचते है सचमुच नरक में जाते है। नरकगति में भाला के अग्न भाग से भेदाना, करवत से मस्तक अलग होना, शुली पर चढ़ाना कुंभार के भट्टे कुंभि में पकाना, असि पत्रवन से नासिका और कर्ण का छिदवाना, कदस्थ पुष्पाकार रीत से रेती पर चलना इत्यादि अनेक प्रकार के दुःख निरंतर रहते है, पलक झपकने तक के क्षत्र मात्र भी सुख नहीं है। जहां इहं अगणी उण्हो, एत्तोऽणंतगुणो तहिं । नरएसु वेयणा उण्हा, असाया वेझ्या मए || जहा इहं इमं सीयं एत्तोऽणंतुगुणो तहिं। नरएम वेयणा सीया, असाया वेझ्या मए ।। भावार्थ : यहाँ पर अग्नि जितना उष्ण है, उससे अनंत गुना उष्ण नरक में है, नरकों में मैंने उष्ण अशाता वेदना को सहा है यहाँ जितनी ठंड है उससे अनंता गुना ठंड वहाँ है, नरको में मैंने ठंड की अशाता वेदना भी सही है। देवद्रव्य का उपभोग करनेवाले भयंकर दरिद्रता से जन्मजन्मांतर भव अटवि और नरकगति में फंस जाते है। ___ श्रीकृष्ण प्रबल वेदना से ग्रस्त तीसरी नरक से निकलकर आनेवाली उसर्पिणी में जंबूद्विप में भरतक्षेत्र के पुंढदेश के अंतद्वार नगर में बारहवाँ अममस्वामी नाम से तीर्थंकर होंगे । वहाँ से सिदिगति में जायेंगे। ___एक ही बार बोला हुआ असत्य कितने ही सत्य वचनों का नाश करता है। एक ही असत्य वचन के कारण वसुराजा नरक में गया। गोयमा ! नेरइया सीतं वेयणं वेयंति, उसिणं वेयणं वेयंति सीतोसिणं वेयणं वेयंति ।। भावार्थ : हे गौतम, नारको शीत वेदना सहते है, उष्ण वेदना सहते है, शीतोष्ण वेदना सहते है। वह रेवती(गृहपतिनी) सात रात्री में विशुचिका, विशेष लक्षण की बिमारी से ग्रस्त होकर आर्त ध्यान में काल को प्राप्त कर रत्नप्रभा नामकी पृथ्वी में लोलुक नरक आवास में (८४) चौन्याँशी हजार वर्ष के आयुष्यवाले नारको में नारकी की तरह पेदा हुई। नेरइयत्ताए कम्म पकरेता नेरइएसु उववज्जन्ति तंजहा महारम्यमाए महापरिग्गहयाए पन्दियवहेणं कुणिमाहारेणं। भावार्थ : नारक योग्य कर्म कर के जीव नारकी में पैदा होता है वे कर्म चार प्रकार के है महाआरंभ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय वध और मांस भक्षण करना। णगउववाते परियायं एति परिपच्चंति। नरक में उत्पन्न होने के बाद जीव परिताप और दुःख प्राप्त करता है। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (18) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेरइया णं भंते! कतोहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मणुस्सेहिंतो उवज्जंति, नो देवॆहिंतो उववज्जंति । भावार्थ : हे भगवान! नारकीओ कहाँ से आकर उत्पन्न होते है ? हे गौतम! नारकीओ नरक में से आकर पैदा नहीं होते, वे तिर्यंचगति से उत्पन्न होते हैं, मनुष्य गति से उत्पन्न होते है, देवगति से उत्पन्न नहीं होते । हे भगवान! नारकीओ क्या सम्यकत्वी, मिथ्यात्वी या सम्यक मिथ्यात्वी होते है ? है गोतम ! सम्यकत्वी होते है मिथ्यात्व होते है और सम्यग्मिथ्यात्वी भी होते है । नेरझ्या णं भंते! किं सायं वेदणं वेदंति, सायसाय वेदणं वेदेंति ? गोयमा ! तिविहंपि वेदणं वेदेंति । हे भगवान ! नारकीओ क्या शाता, अशाता या शाताशाता वेदना सहते है ? हे गौतम तीनों वेदना सहते है। तीर्थंकर के जन्म आदि समयमें शाता वेदना, सिवाय अशाता वेदना, पूर्वभव के मित्र देव या दानव के वचन से मन में शाता, शरीर क्षेत्र से अशाता या उनके दर्शन वचन से शाता और पश्चाताप से अशाता इस तरह शाता अशाता वेदना का अनुभव करता है । चत्वारो नरकद्वाराः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमनं चैच, सन्धानान्तकायिके । नरक के चार दरवाजे है, पहला रात्री भोजन, दुसरा परस्त्रीगमन तीसरा बोरा का आचार, चौथा अनंतकाय का भक्षण | नेरइयाणं भंते! केवइकालं ठिई पन्नता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसणं, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिझं पन्नता । हे भगवंत ! नारकीओं की स्थिति कितने काल की होती है । से हे गौतम! जधन्य से दशहजार वर्ष और उत्कृष्ट : तैतीस सागरोपम की स्थिति है। (19) सात नरक भूमिओं ने नारकी के निवासों की संख्या पहली में (३०) त्रीस लाख, दूसरी मे २५ लाख, तीसरी मे १५ लाख, चौथी में (१०) दश लाख, पांचवी में ३ लाख, छसी में ९९९९५ और सातवी नरकमें ५ स्थान है । नारकी के जीव आत्मा के वश संयम से नहीं पर आत्मा के अवश-असंयम से उत्पन्न होते है । उनके शरीर पर अति दुःखदायक खरज (खुजली) उत्पन्न होती है जो छुर आदि से कुरेदने पर भी शांत नहीं होती । यहाँ के बुखार से अनंतगुना ज्यादा बुखार वहाँ होता है । उनको दाह, शोक, भय, पराधिनता इत्यादि कई गुना यहाँ से ज्यादा होता है। शत्रु तथा उनके शस्त्रादि देखकर भय पेदा होता है। उनका विशेष ज्ञान भी कष्टदायी है। से दुक्खाए-मोहाए- माराए- परगाए - णरगतिरिक्खाए । भोग आशक्ति से जीव दुःख, मोह, मरण, नरक और तिर्यंच को प्राप्त करता है। सद्यः संमूर्छितानंत जंतुसंतानदूषितम् । नरकाध्वनि पाथैयं कोऽश्रीयात् पिशिंत सुधीः || प्राणीओं का घात करने के बाद तत्काल उसमें अनंत जीवों की परंपरा का सर्जन हो जाता है । उसका मांस भक्षण मनुष्य को नरक गतिमें ले जाता है। अनुत्तर नरक में महावेदनाओ झेल कर वापस प्रमादमें रहेने से भी वे दुःख अनंत बार प्राप्त कर लिये । पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं । पंदह परमाधामी से (प्रतिक्रमण करता हूँ।) अधर्मो नरकादीनां हेतुर्निन्दितकर्मजः । नरकादि का हेतु अधर्म है । निंदीत कार्य से अधर्म उत्पन्न होता है । १) हिंसा आदि पाप की भयंकर सजा : पापकर्म है तो उसे भोगने के लिये अधो लोक का ७ रज्जु प्रमाण विशाल नरक क्षेत्र भी है। जहाँ पापी जीव भयंकर सजा भुगत रहे होते है। ऐसे पाप की प्रवृत्ति और उसकी कडक शिक्षा सहन करना भी एक शाश्वत क्रम है। हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापो की सजा का रौद्र-डरावना स्वरुप देखने-जानने के बाद ऐसे दुःखी कोई भी जीव न हो । कब ? जब सर्वथा सर्व पाप न करने की प्रतिज्ञा लेंगे तब, क्योंकि अगर पाप किया तो उसके उदय होते ही उसकी सजा जीवों को भुगदनी पड़ती है। यह शाश्वत नियम है। पाप से अनजाना कोई भी व्यक्ति नहीं होता । व्यक्ति खुद जीवनमें पाप करता है, इसलिये वह पापों को प्रत्यक्षरुप से पहचानता है । हिंसा, जठ, चोरी, दराचार, व्यभिचार क्रोध, अभिमान, माया, कपट, छल-प्रपंच, अतिलोभ, चाडी-चुगली क्लेश-कषाय, कलह कंकास, आक्षेप-आरोप, अभ्याख्यान, संग्रहपरिग्रह, इर्ष्या-द्वेष, परनिंदा, मिथ्यात्व आदि कई प्रकारके पाप है। इन सब पापों का आचरण मानवी प्रतिदिन करते रहते है। अरे ! बहुतसे लोग खुद पाप नहीं करते पर दुसरों से करवाते है। कभी कभी ऐसे पाप और पापीओं की प्रशंसाअनमोदना भी की जाती है। इस तरह से इतने सब पाप जो मानव दैनिक जीवन में कर रहा हो वह पाप से अनभिज्ञ नहीं हो सकता। __ इन पापों को तो जिंदगी में हजारों बार कर चुके हैं। इसलिये एक एक पाप से अच्छी तरह परिचित हम हैं। कौनसा पाप किस तरह जाय उसके हर पहलु से हम बाकिफ है। कब यहाँ किस प्रकार से झूठ बोलना, बड़े की हाजरी में कैसे सिफत पूर्वक चोरी की जाय एसी कला में मुझे अच्छी तरह आती है। क्योंकी-हिंसा. झठ चोरी इत्यादी पाप मैने कई बार किये है। अनंत भवोकी वात ही कहां ? इस वर्तमान भव का विचार कर कि अपने जन्म से आज तक कितनी बार बोले ? किन बाबतौं में बोले ? किन किन विषयो पर गलत बोले ? अथवा एक विषय में, एक ही बाबतमें जिवन के इतने वर्षोक आयुष्य में कितनी बार बोले होंगे ? तथा कितनो के समक्ष जूठ बोले होंगे ? इसकी क्या कोई गीनती है ? किसी ने भी अपने किये हुए पापो का हिसाब रखा है। कौन रखता है ? पाप करते है, करबाते है, तथा करते जाते है। इसलिये हर एक पाप से हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है अनजान नहीं है। यह तो जूठ नाम के एक पाप की बात की इस तरह चोरी, इसी तरह जीव हिंसा, क्रोध गुस्सा करना, मान अभिमान करना, माया कपट करना, अतिलोभ करता, राग द्वेष करना, इर्ष्या प्रत्यारोप करना चुगलखोरी करना, अतिसंग्रह करना औरो की निंदा करना पसंद नापसंद के बारे में अच्छा बुरा कहकर खुशी अथवा दुःख जाहीर करना, माया व कपट पूर्वक छल प्रपंच से सच्चे झूठ खेल खेलना, मिथ्या वृति से देव-धर्म तथा तत्त्वों को न मानना आदि अठारह पापों को आज तक हर जिवो ने कितनी बार, किस तरह कहां कहां किस किस के साथ किन बातो पर, किन विषयो पर पापो को पोषा है। ऐसे एक एक पाप कितनी ही बार किये है इसका हिसाब कहाँ है। अपने आप द्वारा किये गये पापोकी संख्या देखकर चकर आ जाते है। यह तो सिर्फ वर्तमान ने एक भव की बात है, उससे भी अवसपीणी काल के पांचवे आरे के कम आयु वाले छोटे भव की बात है तो फिर कल्पना करो के ? दुसरे, तीसरे व चौथे आरे के लाखो, करोडो अरबो वर्ष के आयुष्य काल वाले बडे भवो में एक एक पाप कितनी बार किये होगें ? इसका हिसाब कैसे करोगे? इस तरह अनेक भवो के सब पाप इकट्टा करे तो कैवल्य ज्ञानी भगवान भी उसकी संख्या अनंत है कैसे बतायेंगे। इस तरह अनंत जन्मों से भवो से जीवो को पाप करने की आदत है। व्यसन है। अनंत भव बिते, काल अनंत गुणा बिता, इसमे अनंतगुणा पाप किये हुऐ, इस तरह यह स्पष्ट है कि जीव पापो से रंगा हुआ है। पाप करने की आदत, व्यसन तथा संस्कार, पाप करने की इस वृत्ती के कारण पूर्व संस्कारो के कारण आगामी काल तथा भवों में भी पाप होते रहते है। पापकी इस वृत्तिसे बंधे कर्म अपने, उदयकाल मे वापस पाप वृत्ति कराते है। तथा वापस पाप कर्म बंधते है तथा फिर से कर्मो का उदय होता है। इस तरह पाप का कभी अंत नही आता । फल स्वरुप जीव को चारगति में (८४) ८४ के चक्र छुटकारा नहीं मिलता। __आप पाप में मानते हो और सजा में मानो के न मानो उससे क्या फरक पडेगा ? सजा चाहिये या नहीं वह तो मिलेगी ही और भुगतनी ही पडेगी । जिस तरह जहर को भले ही न मानो पर पीने के बाद, पेट में गया फिर जो असर होती है वह होकर ही रहेगी। उसमें कोई विकल्प नहीं है। महावीर प्रभु के जीव ने १९ वे भव में ७वी नरक में ३३ सागरोपम जितने दीर्घ समय पर्यंत कडक सजा सहन की है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (20) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । हाँ... पापके आधार तीव्रता के प्रमाण से पहली नरक से लगाकर सातवीं नरक तक जीव को जाना पड़ता है। वहाँ कानून | ठराव के मुताबिक जीव को असह्य वेदना भुगतनी पडती है। जो उसने किये हुए पाप कर्मों का फल होता है । श्रीकृष्ण गीता में कहते है, कृर्त कर्म अवश्यमेव भोक्तव्यं, कल्पकोटि शतैरपि करोडों साल का लंबा समय बित जाय फिर भी जो पाप कर्म किये है। उसकी सजा अवश्य भूगतनी ही पडती है, उससे कोई छूट नहीं सकता । सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर परमात्मा अंतीम देशनारुप उतराध्ययन सूत्र में स्पष्ट शब्दो में कहते है कडाण कम्माण मक्खति । किये हुए कर्मों से कोई छूट नहीं सकता । जो कर्म जिस रीत से किया हो उसकी सजा सहन करनी पडती है । न्यायाधीश किसी को क्या सजा देगा ? जब कर्म खुद ही जीव को सजा देते है वह बहुत ही लंबी और भयंकर होगी। जिसका अंत शायद कितने ही जन्मों के बाद होगा यह तो सिर्फ ज्ञानीजन ही बता सकेंगे । अगर पाप की सजा कीस तरफ निगाह डाली जाय तो सजा की भयंकरता समझाती है जिससे पापों से मन जल्दि विमुख हो सकता है। यहाँ जेल में दी जाने वाली सजा हम देख नहीं सकते तो फिर नरक में जाकर वैसी सजा कब और कैसे देख सकेंगे ? क्या नरकमें जाकरके देख आना संभव है ? ना, क्योंकि नरक में जाकर तो वहाँ से शायद सीधे ही यहाँ आये है परंतु यहाँ नरक की कोई भी बात याद नहीं । सहन की हुई सर्व प्रक्रिया, यहाँ तक कह देते है कि..... नरक है ही नहीं ? कहाँ है नरक ? कौन कहता है नरक है ? ये तो सिर्फ अपने जैसे लोगों को डराने की बात है। ऐसी बातों से मिथ्यात्वी जीव नरक वगैरह कुछ नहीं उनके विचारों से खुद तो छूट जाता है और अन्य को भी बहताता है। इसलिये पाप करने का छूटा दौर प्राप्त हो जाता है। जो सर्वज्ञ परमात्मा ने नरक का वर्णन स्वमुख से अनंतज्ञान से किया था, वह अक्षरश: आगमशास्त्रो में स्पष्ट शब्दो में वर्णित है । श्री उतराध्ययन सूत्र में महावीर प्रभु स्वयं स्पष्ट शब्दो में और सूयगडांग - सूत्रकृतांग सूत्र में भी नरक का, नरकगति के दुःखो का वर्णन ऐसे धारदार शैली (21) जू किया है जिसे सुनते ही अपने रोम रोम खड़े हो जाय, काँपने लगे । ये वर्णन पढने सुनने से आज भी मानसपट्ट परचित्र अंकित हो जाते है, जिससे शायद इन भयंकर पापों से बचना और फिर दुबारा उसे नहीं करने का मन करेगा । शास्त्रो में सिर्फ पाप नहीं, अपितु उसकी सजा कितनी रावनी और दारुण है यह भी विस्तार से लिखा है, इसलिये सिर्फ पाप देखकर उषका अनुकरण करनेवाला क्या सजा और दुःख तरफ नजर नहीं करेगा क्यों ? १८ वा भव में त्रिपुष्ट वासुदेव बने... तीन खंड के राज्य सता के स्वामी बने... खुद ने किये हुए पूर्व में संकल्प ( नियाणा) के मुताबिक सिंह को जीर्ण वस्त्रकी तरह चीर कर मार डाला। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पशु को मारने से पंचेन्द्रिय हत्या का पाप लगा । खूद की रानी के साथ कलह किया । रानी ने आर्तध्यान किया। जब वे सत्ताधीश हुए तब संगीत श्रवण करते सो गये । उसमें खलेल होने से शय्या पालक पर I आक्रोश कर कान में गरम गरम शीशा डलवाया। वे सब भयंकर पाप किये। सिंह के हिंसक भव में पेट भरने के लिये कितने ही पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या के सिवाय अन्य कोई विकल्प ही न था । ये सब पाप ही है । जो पाप करेगा वह सजारुप दुःख भोगेगा। जो पुण्य धर्म करेगा वह सुखी होगा। जैसा करोगे ऐसा भरोगे । इसमें किसी के लिये भी कोई भेद नहीं । कर्म के लिये राजारंक का, अमीर-गरीब का कोई भी भेद नहीं होता । १८ वे भव में सिंह को फाडना तथा कान में गरमगरम शीशा डलवाना जैसा भयंकर पापके परिणाम से १९ भव में ऐसे बडे तीन खंड सत्ताधीश वासुदेव त्रिपुष्ट को भी सातवी नरक में जाना पडा । वशा ३३ सागरोपर तक गाढ अंधकारवाली ७ वी महातमः प्रभा नरक में दुःख सहने पडते है । वे सब प्रभु वीर के जीव ने सहन किये। यहाँ प्रश्न यह है कि इतने दुःख नरक में उत्तर में ना कहते है । इसका प्रत्यक्ष पूरावा है कि २७वा भव में दीक्षा लेने के बाद जब वे साधना कर रहे थे तब कान में खीले जड दिये गये । ७वीं नरक में इतने समय रहेने के बाद भी सर्व पाप पूर्ण नहीं हुए । अरे ! नरक में अगर सब पापों का क्षय हो मुक्ति मिल जाती है ? I वहाँ से हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!! Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतु ऐसा नहीं होता । नरक में कर्म निर्जरा हेतु आलंबन रूप देव, गुरु, धर्म कुछ भी नहीं । पाप कर्म करोगे तो उसकी सजा भुगतने दुबारा जन्म लेना पडेगा। एक ही भव में किये हुऐ अनेक पापों की सजा अनेक भवों तक सहन करनी पड़ती है ? विपाक ग्रंथ के १० वें अध्ययन मृगापुत्र आदि दुःख के अध्याय में पहले भव में जीव पाप करता है और असंख्य भवो तक उसका फल भोगता है। इस तरह एक ही भव में किये हुए भयंकर पाप के दारुण विपाक भवो भवो तक जीव सहन करता है । इस प्रकार पापों के कारण उसका संसार चक्र कभी खत्म नहीं होता। पाप करते वक्त कितना समय लगता है ? उसकी सजा सहने में और उसके बाद की सजा में कितना समय बितता है उसका तो अंदाज भी लगाना मुश्किल है। पाप की प्रवृत्ति सफल होते ही जीव 'खूब अभिमान करता है। राजा श्रेणिक का द्रष्टांत स्पष्ट है। हिरनी के शिकार तीव्र चीकने कर्म बांधकर प्रथम नरक का आयुष्य कर्म निकाचित किया । क्या फायदा हुआ ? अनंत भवों से... वर्षो से .. अनंत समय से जीव पाप करते ही आया है। पाप करने के संस्कार भवोभव की आदत और व्यसन के कारण जोरदार है। इस भव में प्रभु का शरण मिला है, वीतराग का शासन और धर्म प्राप्त हुआ है । सर्वोत्कृष्ट देव, गुरु और धर्म की प्राप्ति होने से कर्म निर्जरा द्वारा कर्म को खत्म कर उससे मुक्त हो जाना चाहिये । अगर इस भव में धर्म का सहारा होते हुए भी कर्म है और दुसरी बाजु नये पाप करने चालू रखेंगे तो उसका परिणाम भव परंपरा और दुःख के सिवाय कुछ नहीं होगा । मन जीते जीत रे, मननी हारे हार, मन लड़ जावे मोक्ष मां रे मन ही नरक मोझार... पाप देखनेवाले व्यक्ति का भय के बदले खुद पाप का भय होना चाहिये । पाप देखने वाला अपना इतना बूरा नहीं करेगा जितना हजार गुना पाप कर्म अपना बूरा हाल करेगा । पाप देखनेवाला हमारे साथ अगले भव में नहीं आनेवाला, किये हुए पाप जन्म जन्मांतर तक आत्मा के साथ चिपक कर रहेते है। पाप कर्म के उदय होते ही नरक, तिर्यंच हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (22) आदि दुर्गति में कई जन्मों तक पाप की सजा भुगतनी पडती है । अपने पाप देखनेवाले व्यक्ति को तो शायद हम डरा सकते है । इसलिये वह हमारा तो कुछ न बिगाड़ सकता, सिर्फ थोड़ी सामाजिक बदनामी कर सकता है । परंतु, बांधे पापो में से, जन्मों जनम तक साथ देनेवाले कर्म, कई वो तक नरक आदि जैसी दुर्गतियोंमे हमे दुःखी करते है । इसलिए सच्चाई इसी में है कि पाप देखनेवाले व्यक्ति से डरने के बजाय, पाप से ही डरना चाहिए । पाप कर्म के बंध रुप १८ पाप स्थानक : १. प्राणातिपात-हिंसा जीव को प्राण से रहित करना, वध करना । छोटे बडे कोई भी जीव को मारना वह हिंसा है । २. मृषावाद - असत्या बोलना, जो है उससे अलग स्वरुप बताना । ३. चौर्य- अदत्तादान - अ अर्थात लेना । किसी को पूछे बगैर लेना, मालिक की आज्ञा के बिना लेना अदत्ता दान - चौर्य कहलाता है । ४. मैथून - अब्रह्म - मिथुन, युगल स्त्री-पुरुष साथ कामक्रीड़ा करना। काम वासना में आशक्त रहना । आत्मा में लीन न रहना । ५. . परिग्रह-धन-धान्य आदि में अत्यंत ममत्व भाव होना । तीव्र इच्छा से संग्रह करना ६. क्रोध - गुस्सा, आक्रोश, कषाय है । पापवृत्ति है । ७. मान-कषायजन्य मद, अभिमान, गर्व पाप है । ८. माया छल-कपट अन्य को ठगना । ९. लोभ - तृष्णा, मोहनीय कर्म के उदय से तृष्णा, अतृप्ति के पापजन्य भाव से धन-वैभव-सत्ता की स्पृहा । १०. राग - प्रेम स्नेह, जड पदार्थो में आशक्ति, आकर्षण ११. द्वेष- तिरस्कार, अप्रियता, बेर-झेर १२. कलह - क्लेश, झगड़ा, वृ १३. अभ्याख्यान आरोप, किसी के उपर झूठा आरोप लगाना । - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पैशून्य चाडी - चूगली, किसी के दोष को अन्य के पास खोल देना, आपस में झगडा कराना । १५. रति- अरति - हर्ष, शोक। इष्ट चीज की प्राप्ति में प्रीति-रति- हर्ष । अनिष्ट चीज मिल जाने से शोक करना । इष्ट चीज की निवृत्ति से दुःख होना । १६. पर परिवाद - अन्य की निंदा और स्व की प्रशंसा अन्य की बात को बढ़ा चढ़ाकर नींदा करना । १७. माया - मृषावाद - कपट सहित झूठ बोलना । १८. मिथ्यात्वशल्य - देव, गुरु, धर्म में यथार्थ श्रद्धा न होना ? जीवाजीव के तत्त्वो में अश्रद्धा होना । जगत के महापुरुष कहते है कि जिस तरह जहर परखा नहीं जाता उसी प्रकार से पाप को भी परखा नहीं जाता । जहर का असर तुरंत दिखता है। जब कि किये हुए पापों का असर कुछ समय बाद या कुछ भवों के बाद दिखाई देता है। इसलिये पापों को भोगने का या करने के बाद छोडने का नहीं होता अपितु पापों तो दूर से ही भांपकर (देखकर) छोड देने के होते है । किचड में पहले पव खराब करो फिर उसे I धोनो का नहीं होता । पाप के बुरे फल इस संसार में रोज देखने को मिलते हैं । दुःखी लोगों को अनेक प्रकार से दुःखी होते देखकर, वे सब दुःख उनके किये हुए पापों का फल है यह जानकर तुरंत ऐसे पाप का आचरण करना हमें त्वरित छोड़ देना चाहिये । जिससे वैसे दुःख सहन करने का मौका ही न आये । गुरुजनों के अनुभव ज्ञान से शास्त्रज्ञान से, उनके पास पाप का स्वरुप, परिणाम, सजा आदि की सर्व हकिकत समझकर पाप करना छोड़ देना चाहिये । पाप न करने की प्रतिज्ञा लेना भी अपने ही हित में है । पानी का बाँध तूट जाय उसके पहले ही उसके आसपास मजबूत पाल बाँध लेना या आग लगने से पहेले ही कुआ खोद लेना ज्यादा अकलमंदी का कार्य है। अन्यथा बाद में करनेवाला कार्य मूर्खता है। इसी प्रकार से जब पाप कर्म उदय में आ गये जीव पाप की सजा भुगतने नरक में परमाधामी देवों के समक्ष पहोंच गया तब क्या धर्म करने बैठोगे ? अब मै ऐसा नहीं करुगा, ऐसा बोलकर उनसे विनंती (23) करोगे तो वह क्या सुनेगा ? क्या उसको अपने पर करुणा भाव आयेगा ? क्या वह अपने को छोड़ेगा ? ना... ना... यह संभव नहीं कि वह छोडे । परंतु परमाधमी कहेगा, भाई आगे से तुम पाप न करना पर अब तक जो किये है उसकी सजा तो तुझे मिलेगी ही । अठारह पाप स्थानक मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में अंतराय करनेवाले है । ये पाप मोक्षमार्गरुप धर्मतत्व के धातक और अवरोधक दोनों हे । वे मनुष्य को दुगर्ति में ले जाते है । नरक और तिर्यंच गतिरुप दुर्गति का आयुष्य बंधानेवाला अठारह पापस्थानक साधक मुमुक्षओं को छोड़ देना चाहिये । दिनभर में मैंने मन से कुछ खराब विचार किया हो, जो कुछ बुरा बोला हो और शरीर से जो कुछ पाप किया हो, उसके लिये मैं माफी मांगता हूँ। मिच्छामी दुक्कडम अर्थांत क्षमापना करता हूँ। मेरे सब पाप मिथ्या हो एसी भावना से प्रतिक्रमण प्रारंभ करना चाहिये । पाप त्याग का प्रतिक्रमण होना चाहिये । जो घर में पाप का व्यापार-वाणिज्य हो तो उसमें पुत्र पौत्र को उससे दूर रखकर उन्हे अलग व्यापार सीखना चाहिये ताकि संपूर्णपरिवार धीरे धीरे पाप की कमाई से बच जाये । कालसौरिक नाम कसाई : राजा श्रेणिक के समय यह कसाई रोज ५०० भैसा मारने का व्यापार करता था । उसको पाप से बचाने के लिये श्रेणिक ने उसे सुके कुएँ जिससे वह जीव हत्या न कर सके। वहाँ पर भी वह मट्टी से भैंस जैसी लकीर बनाकर उसको, हाथ से मारता था जैसे वह तलवार से उस पर वार करता हो। इस तरह वह कायिक नही पर मानसिक हिंसा करने लगा। उसका पुत्र सुल था वह बोला पिताजी मैंने प्रभु महावीर देवका उपदेश सुना है, वहाँ करोडों वर्ष उसकी सजा भुगतनी पडेगी । पिता बोला, कुल की परंपरा को त्यागना पाप है । पुत्र सुल ने पिता को समझाया, अगर मै ऐसा पाप करुगा हिंसक वृत्ति वाला अभव्य था । वह यह बात कैसे समझे ? पुत्र सुल कसाई के घर जन्मा था फिर भी प्रभु की देशना सुनकर हिंसा की परंपरा त्याग कर नरक से बच गया। काल सौरिक मरने के बाद सातवी नरक में गया । हम सब जीवों को हिंसा के पाप से बचना चाहिये । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३) श्रेणिक महाराजा से छुटे हुए तीर ने गर्भवती हिरनी को मार गिराया। हिरनी और पेट का गर्भ दोनो तडप कर मर गये। श्रेणिक को जब मालुम पडा, तब उसने पाप की प्रशंसा की । इस तरह हिंसा की अनुमोदना द्वारा खूब गाढ़ निकाचित कर्म बंध किया। बाद में धर्म तरफ अत्यंत श्रध्धा उत्पन्न हुई और आराधना की, तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन भी किया परंतु उसे नरक में जाना पड़ा । कल से कोई ऐसा कहे कि पुरी सृष्टि इश्वर ने मनुष्यों के लिये ही बनायी है तो फिर शेर और चित्ता भी ऐसा कह सकते है कि प्रभु ने मनुष्य सृष्टि हमारी खोराक के लिए बनायी। फिर उसका परिणाम क्या आयेगा ? किसी को बचाना वह हिमालय उठाने जितना बडा कार्य है, अति दुष्कर कार्य है। परंतु किसी को मारना अति सरल है, उसमें कोई बड़ी बात नहीं है। चप्पु या बंदूक से पल भर में किसी को भी आप मार सकते है। मरना कितने को आता है ? और मारना किसे आता है ? मारना लाखो लोगों को आता है। रोज अखबार में समाचार पढ़ते है कि पुत्र ने पिता को मारा, भाई ने भाई को मारा, पतिने पत्नि को मारा, सास ने बहु को मारा । सब को मारना आता है। परंतु मरना कितने को आता है ? यहाँ आत्महत्या की बात नहीं है, कत्ते के जैसी मोत की बात नहीं है । यहाँ तो मृत्यू को महोत्सव मनाकर हँसते हँसते मरने की बात है। किसी ने दुःख से छुटकारा पाने के लिये आत्महत्या कर ली । पर आगे के परिणाम के बारे मे सोचा ? अतप्त तृष्णा, वासना अपूर्ण इच्छा के साथ आर्त और रौद्र ध्यानमें बेचारा मर तो गया, पर बाद में प्रेत योनि में व्यंतर-राक्षस, चुडेल, भूत बनकर तृष्णा में ही भटकता रहेगा। हजारो साल तक इन जीवात्माओं की मुक्ति नहीं होती। उसके बाद भी अनेक जन्म में वह भटकता ही रहेगा। अनेक जन्म बरबाद करने के बदले थोडा सा दुःख सहने में कुछ बुराई नहीं है। मनुष्य जन्म अति मूल्यवान है। यहाँसे ही सर्वोच्च गतिप्राप्त होती हैतोउसे व्यर्थक्योगँवाना ? पशु पंखी बेचारे, निर्दोष प्राणी है, जो जंगली घास खाकर गुजारा करते है, नदी-नाले का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते है, उन्होंने आपका क्या बिगाडा ? ऐसे निर्दोष प्राणीओं की हत्या क्यों ? नरक की दुर्गति ऐसो घातकी, क्रूर और हिंसक मानवो के लिये आज भी तैयार है। १४) विश्व में चारो और कितनी हिंसा ? जिसकी कोई गिनती नहीं जिसकी कोई सीमा नहीं जिसका कोई अंत नहीं और जिसकी कोई मर्यादा भी नहीं। आज के समय में भिन्न र कारणों से अत्याधिक हिंसा हो रही है। कहीं पर खाने के लिये तो कई जगह मौज शौक, सौंदर्य प्रसाधनों के लिये या फिर वस्त्र आदि को बनाने में हिंसा हो रही है। कुछ क्षेत्रो में व्यापार के लियेभी खूब बडे प्रमाण, में हिंसा चल रही है। आधनिक कत्तलखानों में एक ही दिन में १५-२० हजार गाय, बैल, बकरी आदि का वध किया जा रहा है। एक ही झटके में ५00 (पांचसौ) मेंडको मारा जा सकता है। ऐसी तेकनीक को चीन, बैंगलोर के मत्सत्य संस्था ने विकसित करी है। उसे कई गुना अधिक भी किया जा सकता है। अरेरे ! अफसोस की भारत जैसे आर्यदश को आज विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिये हजारो टन मेंडको की, हजारो टन मांस और हजारो टन मछलियों का व्यापार करना है। (बुचरखाने) कत्लखाने में पशुओं का वध किया गया, खून की नदिया बहाई गई, बडे २ ड्रम आदि भरकर दवाई की कम्पनियों ने सौंदर्य प्रसाधन आदि बनाने वाली कम्पनियों के खरीद कर उसका रुपांतरण कर अपने (ग्राहक) के पास भेज रही है। कई एलोपेथीक, दवाई प्राणीजन्य हो गई है। इन दवाइयो का डॉकटर अपने मरीजो के ऊपर जाने या अनजाने उपयोग कर रहे है। __ मांसाहारी मनुष्य मांस का उपयोग करता है। चमार चमड़े से जुते-चप्पल बनाता है और हम आप उसे खरीदते है । हड्डियों का पावडर बना कर उसमें सुगंधित वस्तुएँ मिलाकर आकर्षक डिब्बों में पैक कर बेचा जाता है। पशुओ की चर्बी का उपयोग शुद्ध घी में मिलावट में होता है और लोग भी उसे खरीद कर खाते है। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (24) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य इतने नीम्न स्तर पर जा चुका है - सूअर जो विष्टा खाकर जीता है, मनुष्य ने उसे भी नहीं छोडा । सुअर को पाव बाँधकर अग्नि में लटकाया जाता है और चर्बी निकाली जाती है। यहाँ नहीं बाजार में नमकीन फरसाण को इस प्रकार के तेल में तलकर नमक-मिर्च डालकर स्वादिष्ट बनाकर बेच जाता है और लोग उसे खरीद कर खाते है। लाखो सर्पो को मारते है स्वार्थ के लिए। १५) अंडे खाने में पंचेनिद्रय जीव की हत्या : आज सरकार कर माफ की दलीले देकर देश के कोने २ में पोल्ट्री-फार्म बनाती रही है। इस कारण से चारो- और हजारो - लाखों मुर्गिया पाली जा रही है। इन मुर्गियों को जीवन भर जान के ऊपर खेल कर जीना पड़ता है। उन्हें मछलियों का पावडर आहार के रुपमें दिया जाता है। साथ ही इन मुर्गियों को एक विशेष प्रकार के कृत्रिम उष्णता से निर्मित तापमान में रखा जाता है। और फिर वे बार-बार गर्भवती होती है, प्रसुति के समय अंडे में मौजूद जीव की मृत्यू हो जाती है कृत्रिम तापमान के कारण | __अब विचारिये अंडा शाकाहारी है या मांसाहारी क्या अंडे वृक्ष या झाड पर लगते है ? कदापि नहीं! ये तो सभ्य सुशिक्षित समाज की कमजोरी है। ___ अंडे का उत्पादन १0 गुना बढ़ गया है और उसके उपयोग भी खूब बढ़ा दिये है। आजकल शैम्प, दवाई. आईस्क्रिम और ऐसे कई खाद्य पदार्थो में अंडे का उपयोग किया जा रहा है। कई प्रकार की ब्रेड में भी अंडे का उपयोग किया जाता है। अंडे खाना मतलब मुर्गी के बच्चे की हत्या के समान है। या कहें कि अंडा शाकाहारी तो नहीं है उसमें से भी पंचेन्द्रिय जीव निकलता है - ना कोई पत्थर। अंडा खाना मतलब पंचेन्द्रिय जीव की हत्या का पाप है, दूसरी तरफ अंडे में कई वैषिले पदार्थ होते है जो स्वास्थ्य को खूब नुकसान पहुंचाते है। कई रोगों का कारण अंडा और मांसाहारहै। इसपंचेन्द्रियजीव हिंसासेजरुरबचना चाहिये। १६) गर्भपात गर्भपात करवाने की सलाह देने वाली जैन कुल मे जन्मी महिलाए जब व्रत उपवास, पूजा-पाठ सामायिक, तीर्थ-यात्रा करती है तब खूब आश्चर्य होता है। गर्भपात जीवित मनुष्य की हत्या है। आफ्रिका में मानव मांस भी बिकता है। सुना है युगान्डा के इदी अमीन जीवित मनुष्य का रक्त पीते और मांस भी खाते थे। वर्तमान काल में अश्लील सिनेमा, टी.व्ही. आदि पर देखने का परिणाम है समाज में अनाचार का बढना। युवकयुवतियों की कामवासना भी खूब बढ गई है। कुंवारी कन्या गर्भपात करवा रही है कई-कई बार। आज के युवाओं को भ्रष्ट करने के कई साधन बाजार में उपलब्ध है। कालेज की लड़कियाँ कोल गर्ल का व्यवसाय करती है, हाय कैसा कलयुग।जहाँ लडकियाँ शरीर बेचकर पेट भरती है। अच्छे घर की स्त्री भी आजकल खाली समय में काम करती है। कलयुग की बिडम्बना यह है कि जो कानून रक्षक या आज वो भक्षक बन गया है। कानून ने भूण हत्या को स्वीकृति प्रदान कर दी है। जिसके परिणाम स्वरुप समाज में व्यभिचार, दुराचार बढ़ गया है। गर्भपात के विषय में खुले तौर पर, जाहिर किया जाता है, कि मात्र १५-२० मिनिट में किया जा सकता है और खर्च भी मात्र १00 रुपये आदि । गर्भहत्या एकदम आसान बन गई है और उसमें योगदान वैज्ञानिक तेकनीक का है, जिसके कारण देश के कोने र में मानव हत्या केकत्लखाने चल रहे है, इनमें सुशिक्षित कसाई आधुनिक हत्यारों से ये काम कर रहे है। हाय ! बेचारा गर्भस्थ शिशु का नसीब जोकि गर्भ में उल्टा लटक कर सो रहा है उसे चाकू छुरी से काटकर निकाल देते है। सच कहा जाता है डॉकटर याने डोक (गर्दन) कटर । भूण हत्या का आधुनिकिकरण विज्ञान का महा अभिशाप है | कौन कहता है गर्भ में जीव नहीं होता ? जीव तो पहेले ही क्षण से उसमें होता है, जीवन होते १-२-३ महिने का विकास भी किस प्रकार हो सकता है नहीं तो फिर मृत बालक ही रहता गर्भ में, ये सब बचाव पक्ष की दलीले है। अंधा कानून भूण हत्या को अपराध नहीं मानता पर माँ के गर्भ से नौ मास पूर्ण कर निकले बालक हत्या को बाल हत्या करार देता है। देखो कितना आश्चर्य बालक तो वही है, जीव भी वही है पर मान्यता में अंतर । आज भूण हत्या परम सीमा पर है। (25) हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस धरती पर पाप का बोझ बढ़ता जा रहा है। मनुष्य का पाप का घड़ा भर गया है और अब सर्वनाश, प्रलय से चना है, तो भ्रूण हत्या को बंद करना ही है नहीं तो माँ भी राक्षसी कही जायेगी। लाखों माताओं ने अभी संसार देखा नहीं पर स्वतः निर्दोष बालक की हत्या का पाप करा है। इस प्रकार के कार्य में सहभागी आज का डॉक्टर वर्ग भी है जो मात्र कुछ हजार रुपयों के लिये ये घोर अपराध करते है। भारत के सभी धर्म ने भ्रूण हत्या को महापाप कहा है पर फिर भी कानून इसे स्वीकृति दे रहा है। धरती पर अभी तक जिसने जन्म नहीं लिया ऐसे बालक ने क्या अपराध किया कि उसे दुनिया में आने ही नहीं दिया गया । भारतीय नारी ! आर्य की भूमि पर डाकू, हत्यारे आदि ने गर्भस्थ शिशु की हत्या से द्रवित हो संत बनकर सिद बने । पूर्व भव में की भ्रूण हत्या के कारण परिवार में बालक नहीं जन्म लेते या पशु, पक्षी, मनुष्य के बच्चो का जो वियोग करवाते हैं उन्हे पुत्र/पुत्री नही होते हैं या फिर जन्म के तुरंत बाद मृत्यु हो जाती है । गर्भस्थ शिशु की हत्या करने वाली स्त्रीयों का मुँह देखना भी महापाप है, अमंगल है। मानिशी सूत्र में गौतम स्वामी भगवान से पूछते है सूर्यश्री के बारे में तब प्रभु उत्तर देते है कि छठी नरक में गई है। हे प्रभु किस कर्म के उदय से बेचारी वहाँ पहुँच गयी ? गर्भपात विचार मात्र से सूर्य श्री छठी नरक में गई, भ्रूण हत्या से नरक का रास्ता निश्चित हो जाता है । दवाखाने या कसाईखाने ? भ्रूण हत्या खूब बढ़ गई है जिसके कारण संसार में चारों और अशांति का वातावरण है । गर्भ हत्या जैसे पाप के बारे मे तुम कभी विचार भी न करना । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (26) कैची जैसा हथियार अंदर डालकर जीवित शिशु को काट-पीट कर लहूलुहान कर बाहर निकाला जाता है, इस दौरान मासूम जीव को असह्य वेदना झेलनी पड़ती है। फिर चम्मच जैसे साधन द्वारा उन टुकडो को बाहर निकाला जाता है । अंधेरे में तीर मारने के समान ये ओपरेशन होता है । जीवित बालक के पैने हथियारों से छलनी किया जाता है। कई दयालु उन्हे गोद भी ले लेते है । अहिंसा का दर्शन भारत वर्ष में खूब समझा है। यहाँ जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है और उसमें पंचेन्द्रिय से एकेंद्रिय जीव को मारने की हिंसा करार दिया है। गौ हत्या बंद कराने के लिये आचार्य, संत आदि उपवास । अनशन आदि करते है तो गांधी के इस देश में भ्रूण हत्या को सरकार प्रोत्साहन दे रही है। गुजरात राज्य में संपूर्ण गौवंश हत्या (वध) प्रतिबंध सुप्रिम कोर्ट ने दिया । नरेन्द्र मोदी का साथ लेकर विनियोग परिवारने सबसे महान कार्य में वर्षो के बाद सफलता मिली। महिलाये जब परिवार कल्याण केंन्द्र पर जाती हैं तो उन्शे गर्भपात के लिये तैयार किया जाता है। उन्हे कहा जाता है इस बालक की अभी जरुरत नहीं है, तुम्हारा रुप, अचूक रखना हो तो गर्भपात करा लो। तुम्हे नौकरी करनी है, पति को कंपनी देनी है, विदेश यात्रा आदि करनी है या मौज-मजे करने है तो ये बालक उसमें बाधक बन रहा है इसलिये गर्भपात करा लो । कानून ने भी गर्भपात को स्वीकृति दे दी है। गर्भपात में कोई तकलीफ नहीं होती, नौकरी कर रहे हो तो चालू तनख्वाह पर छुट्टी भी मिलती है । हजारों वर्षो के धार्मिक संस्कार लिये. भारतीय हुए नारी इस अपराध करने में हिचकती है। तब उसे समझाया जाता है अभी शुरुआत है - उसमें जीव नहीं आया, यह तो, मांस का लोंदा है इसे निकाल देने में कोई अपराध नहीं, पाप नहीं । आठ दिन में तो फिर तुम तैयार हो जाओगे और किसी को खबर भी नहीं लगेगी। इन सब बातों में स्त्री आ है पर उस मूर्ख को यह पता नहीं कि तिसरे महिने में तो बालक पेट में हलचल शुरु कर देता है और जीव तो उसमें गर्भाधान के वक्त ही आ जाता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही जीव को जन्म दे सकता है । मृत पदार्थ में से जीवन संभव ही नहीं । जन संख्या कम करने की यह एक नीच - खूनी चाल है। कुँवारी माता लोकलाज के कारण गर्भपात कराती है उससे कही ज्यादा विवाहित महिलाएँ कायदे के आधार पर खुलेआम भ्रूण हत्या करती है। बच्चे नहीं चाहिये तो विवाह क्यों किया ? मौज करने के लिये लग्न किये तो फिर सुरक्षा साधन नहीं चापरे और अगर भूल हो गई तो उसे नही भुगतनी ? अकाल समय पर निकाले गये शिशु अगर माँ-बाप के समान कोर्ट में खडे हो तो ? या सरकारी वकील की उन्हें मदद मिले तो ? अपने माँ-बापने अपने को इस प्रकार निकाल बहार फेंका होता तो ? अनइच्छित बालक को जीवन प्रदान करने से बेहतर है उसे गिरा देना । अगर ये दलील चल सकती है तो आने वाले समय में अनइच्छित पत्निया को जला देना एक दिन राष्ट्रसेवा माना जायेगा । अंधे, लूले, लंगडे या मंदबुद्धि बालकों को और बोझ रुप बने वृद्धों को भी जहर का इंजेक्शन देकर खत्म करने का कानून बन सकता है। लोक में बहुत पाने वाले के मनपसंद कानून बन सकता है । सत्ताधारीओंको भी बहुमती के मतकी जरुरत पडती है। बहुमती समाज बीडी, सिगरेट, दारु, भांग आदि नशा करें तो कल्याण राज्यमें क्या शिष्टाचार गिना जायेगा ? डोक्टरों के सोगंधविधि में स्पष्ट कहेने में आता है कि गर्भपात करके हमने कितने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गांधी, नेहरु और अन्य महान विभूतिओं को धरती पर आने से पहले ही मार डालते है। मैं डॉक्टर बना जीवन बचाने के लिये - जीवन नाश करने के लिये नहीं । गर्भपात यह सब पढ़ने के बाद संकल्प करें कि जीवन में कभी से पाप (भ्रूण हत्या) जो सीधा नरक गति में ले जाता है। अतः हम नहीं करेंगे । भूल से अगर ये पाप हो गया तो किसी महापुरुष या गुरु भगवंत के पास जाकर पाप का प्रायश्चित सच्चे हृदय से करें और इसकी निंदा गर्हा बार२ करें तो बांधे कर्म निर्बल बनेंगे। शायद आयुष्य का बंध हुआ हो नरकादि की दुर्गति से बच सकते हो । (27) पशु-पक्षी भी अपने बच्चों से प्यार करते हैं। कुतिया कभी - २ अत्याधिक भूख के कारण अपने तुरंत जन्मे बच्चे को खा जाती है। आज की नारी तो बिना कारण बस स्वतः की मौज-मस्ती के निमित्त जन्मे बालकका खून करवा देती है। ये नारी तो उस कुतिया से भी गई-गुजरी | १७) पंचेद्रिय जीव की हत्या तिर्यच - गाय, बैल, बकरी, बाघ-सिंह, पक्षी, मछली आदि की हत्या से नरकायु का बंध होता है। श्रेणिक महाराजा ने शिकार के समय गर्भवती हिरणी की हत्या की और फिर उसकी प्रशंसा करी... नरकायु बंध हुआ और १ली | प्रभु महावीरका संसर्ग पाकर धर्म समझा तीर्थंकर नामकर्म बांधकर आनेवाली चौवीसी में प्रथम तीर्थंकर बनेंगे। पर हिरणी के शिकार द्वारा बंधी नरकायु में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो विचार करे आज के समय में कत्तलखाने चलाने वाले, मछली पकड़ने वाले, बचनेवाले आदि की गति होगी। मनुष्य की हत्या करने वाले और करवाने वाले भी नरक की हवा खाएंगे। मासांहार पंचेन्द्रिय जीव जैसे पशु-पक्षी, का मांस खाने वाले मछली आदि खाने वाले, मुर्गी चिकन आदि खाने ज्यादातर मृत्यु के बाद नरक में जाते है । मनुष्य क्रूर हत्यारा बन गया है। खुद की सुंदरता के लिये कितने ही सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करता है । जिनमें इन मूक जीवों से निकले पदार्थ मिलाये जाते है या फिर इन सौंदर्य-प्रसाधनों को तैयार करने के बाद खरगोश, बंदर आदि जानवरों पर टेस्ट परिक्षित किया जाता है यह ने के लिये की इनका कोई द्रव्य भाव उपयोग करने वा 'मनुष्य पर तो नहीं पडेगा । आजकल लिपस्टीक, परफ्युम आदि भी प्राणी जन्य ही चुके है। १०० ग्राम रेशम बनाने में १५०० रेशम के कीड़ो को उबलते पानी में डालकर मौत के घाट उतार दिया जाता है जरा विचार करे आपकी रेशम की साड़ी का वजन और उसमें होने वाली हिंसा की कल्पना कर हृदय हिल जायेगा... बैंग्लोर आदि शहरो में सिल्क रेशम के बड़े २ कारखाने है और उसमें मौत के घाट उतारे जा रहे रेशम कीड़ो की हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या...हाय ! ये सिल्क के परिधान जो आपकी शान दिखाते है अत्यंत हिंसक तरीके से बने हैं। जिंदगी का दोहरा मापदंड एक तरफ अत्यंत धार्मिक जीवन सुबह के समय और शाम को शान बढ़ाने वाले हिंसा जनीत परिधान। हाथी दात : आफ्रिका, केन्या आदि देशों में हाथियों की बड़े पैमाने पर हत्या हो रही है जहरीले तीरों से ताकि हाथी दांत लेकर आभूषणो का निर्माण किया जा सके। लेदर : जानवरो को मारकर चमड़ा उतारकर पर्स, चप्पल, जुते, बेल्ट आदि बनाये जाते है। यह चमड़ा भी अगर नवजात पशु का हो तो उससे निर्मित वस्तुएं बाजार में खूब महंगी बिकती है। (काफ लेदर) के नाम से क्योंकि ये वस्तुएं खूब मुलायम होती है। बड़ी संख्या (पचास हजार के करीब) में व्हेल मछली का शिकार हो रहा है। चर्बी और तेल के लिये। शेम्पू, क्रीम, साबुन आदि के लिये हजारों खरगोश पकड़कर गर्दन बाहर रखकर बाकि शरीर पेटी में डालकर बंद कर दिये जाते है। उसके पश्चात शेम्पु आदि उनकी आंख में डालकर प्रयोग किया जाता है और परिणाम रुप कई बेचारे अंधे हो जाते है। एलोपेथी दवाई का भी इस प्रकार परिक्षण किया जाता है इन मूक प्राणियों पर अंत में इन प्राणियों की चमड़ी उतार कर पर्स आदि बनाये जाते है। हजारो की संख्या में बंदरो का निर्यात होता है, उन्हे भी इसी प्रकार बांधकर विभिन्न प्रयोग करे जाते है और अंत में मृत्यु हो जाती है उनकी नाभि में से कस्तुरी निकाल कर खूब महेंगे दाम पर बेचा जाता है। अरेरे ! मानव के सौंदर्य की अभिलाषा ने भयंकर क्रूर आचरण कर लिया है। स्त्री रोग में दी जानेवाली, ऑस्ट्रेजन नाम का हारमोन जीवित गर्भवती घोड़ी में अत्यंत त्रास पूर्वक निकाला जाता है विटामीन ए और डी वाली दवाएँ। डायबिटीज के मरीज को दिया जानेवाला इंसुलिन भी जानवरों के लीवर में से बनाया जाता है । दम-अस्थमा के इलाज में उपयोग आनेवाली दवा... कत्ल करे जानवरों की ग्रंथियों में से बनाई जाती है। आजकल अब सिंथेटिक भी बनाई जा रही है। दवाइयाँ प्राणियों की कुर हिंसा के द्वारा बनायी जाती है। १८) हिंसा का फल - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती कांपिल्यपुर के राजा ब्रह्मदत्त ने राज्याभिषेक कर अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को राजा बनाया। ब्रह्मदत्त अपने बाहुबल से षखंड जीतकर चक्रवर्ती बने । एक दिन एक ब्राह्मण ने उनसे भोजन की मांग की। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने भोजन कराया चक्रवर्ती ने उसे पकड़वा लिया और पूरे परिवार के साथ उसे मारकर वंश समाप्त कर दिया । चक्रवर्ती ने मंत्री से कहा हर रोज ब्राह्मण को मारकर उसकी आंखे लाओ मै नींद में से उठकर दोनो हाथो से उनको मसलकर आनंद प्राप्त करुगा । चक्रवर्ती की आज्ञा पालन अपना फर्ज समझकर मंत्री उसी प्रकार किया और आँखो को थाली में रखकर चक्रवर्ती के सामने रखी । ब्रह्मदत्त ने आँखे खूब जोर से मसलकर कहा इसी प्रकार रोज लेकर आना। १९) अक्खाई महावीर भगवान को वंदना कर गौतम स्वामी एक दिन मृगागाम में मृगाराणी के घर गोचरी लेने गये। मृगापुत्र को देखकर उन्होंने आकर प्रभु से पुछा - है कृपालु ! इस जीव के ऐसे कौन से पाप कर्म है ? तब प्रभु ने मृगापुत्र के पूर्व भवका इस प्रकार वर्णन किया। वह महाशतद्वार नगर का स्वामी धनपति राजा का सामंत अक्खाई राठोड (राष्ट्रकुट वंश) नामक था वह ५00 गाँव का स्वामी था। वह महापापी, हिंसक, लंपट और व्यसनी था । कर वसुलने के लिये प्रजा को खूब हैरान करता था और खुद मौज मजे करता । किसी की आँखे फोड़नी, हाथ पैर काटने, नाक कान काटने आदि के कुर आचरण करना। अंत में कमजोर और रोगी हो गया । महाहिंसा या तीव्र पापो की सजा यही भोगनी पड़ती है। २५० वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर राठोड मर गया । हे गौतम ! राठोड का जीव मरकर मृगाराणी की कुख से जन्म लेता है। जन्म के साथ ही भूमिगृह में दुर्गंध फैल जाती है, आँखे नहीं होने के कारण अंधा है। कान - नाक भी नहीं। गुंगा - बहरा है, नाक के स्थान पर एक छिद्र है उसी से श्वास आ जा रहा है, मुँह भी पूरा नहीं, हाथ पैर भी नहीं। मात्र माँस का पिंड जैसा शरीर है। भयंकर वेदना भोग रहा हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (28) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। असंख्य सुई एक साथ चुभाने पर जो वेदना होती है वैसी छात्रो को पढ़ाता था। एक बार नारद पर्वत से मिलने गया तीव्र वेदना झेल रहा है। एक साथ अनेक महारोग का उदय तब पर्वत छात्रोको अज का अर्थ बकरा बता रहा था। यज्ञ हुआ था। में अज का होम करो मतलब यज्ञ में बकरे की बलि चढाओ। प्रभु के द्वारा यह वर्णन सुनकर गौतम स्तब्ध रह यह सुनकर कितने ही विधार्थी ऊपर-नीचे हो गये । चतुर गये और मुँह में से शब्द निकले - साक्षात नरक यही तो है नारद ने कहा अपने गुरु ने अज का अर्थ... किया है और और क्या ? प्रभु ने कहा है गौतम ! ३२ वर्ष की आयु इस इस अर्थ से पाठ किया है उसने स्पष्ट कहा अज - जिसका स्थित में पूर्ण करके यहाँ से मरकर सिंह योनि मे जन्मकर __ जन्मफिर से न हो। जूनी डाल को फिर से जमीन में उगाओ फिर १ ली नरक में जायेगा। ऐसे अनेक भव नीची गति मे तो उगती नहीं है । पर्वत को नारद की बात स्वीकारने में पूरा करेगा। सच में, पाप की सजा खूब भारी है यह प्रसंग अपमान लग रहा था। इसलिये हठपूर्वक कहने लगा- अज विपाक सूत्र के ११वें अंगसूत्र में दुःख विपाक नाम के प्रथम मतलब बकरा और यज्ञ में होम करने की बात है। नारद अध्यन में आता है। उसे मित्र वसुराजा के पास ले गये जिसकी सत्यवादी के तौर पर किर्ती फैली हुई थी। पर्वत ने शर्त रखी की जो झूठा आत्मन : प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् पड़ेगा उसे अपनी जीभ काटनी पड़ेगी। दोनो ने शर्त मान स्वतः के लिये जो प्रतिकुल है उसे दुसरो के प्रति । ली और वसुराजा के पास जाना निश्चित किया। कभी आचरण नहीं करना चाहिये । इधर पर्वत ने यह बात अपनी माता को बताई। माता २०) असत्य का फल - कौशिक तापस एकदम दुःखी होकर बोली तुम्हारे पिता जब पढाते थे तब ऐसा सत्य नहीं बोलना चाहिये जिससे दुसरे को पीड़ा मैने भी सुना है अज का अर्थ यज्ञ में क्या बकरे को होम हो हो या दुःख पहुँचे । कौशिक तापस की बात सुनकर पता सकते है ? अरे ! अब तू क्या करेगा ? पुत्र को बचाने माँ चलेगा वसुराज के पास गई। पर्वत, नारद प्रेम वशीभूत होकर गलत अर्थ पर सहमति देकर पर्वत को बचाया जा सके, यह कौशिक तापस गंगा किनारे रहता था। लोगो में स्वीकार किया। उसकी गिनती सत्यवादी के के रुप में होती थी। कछ चोर पास के गांव से चोरी कर दौडते हुए पास की झाड़ी में घुस तीसरे दिन पर्वत, नारद वसुराजा के पास गये और गये। उनके पीछे गांव के लोग भाले - तलवार लेकर चोरों अपने पक्ष प्रस्तुत किये गुरुमाता को दिये वचन में बंदी होने को ढूंढने आये। लोगोने चोरो के बारे में तापस से पूछा - के कारण पर्वत के पक्ष में निर्णय दिया । स्वीकार लिया कहते की आप तो सत्यवादी हो कृपा कर बताओ कहाँ छुपा गया की अज का अर्थ बकरे का होम करना यज्ञमें। है चोर ? कौशिक विचारने लगा - सत्यवादी नाम से प्रसिद्ध यह अर्थ का अंतर सुनकर शासनदेवी कोपायमान हूँ तो झूठ बोल नहीं सकता । उसने बता दिया चोरों का हुई, सत्य के कारण जो देव वसुराजा के अनुचर थे छुट गये ठिकाना और लोगोंने चोरों का वहाँ जाकर मार डाला। इन और सिंहासन से नीचे उतार दिया । सत्यवादी झूठा करार सब सत्य बोलने से पहले जीवदया - जीवरक्षा, अहिंसा हिंसा दिया गया। पर्वत भी राज्य छोडकर चला गया और अंत में आदि का ख्याल करना चाहिये। कौशिक मर कर नरक में सत्य की विजय हुई सत्य मेव जयते । वसुराजा और पर्वत गया। दोनो मरकर नरकगामी बने जूठ बोलने हेतु से २१) वसुराजा - झूठा अर्थ समझने के कारण २२) दत्तराजा ने आचार्य कालकासूरि को मृत्यू की वसुराजा नर्क में गये। धमकी दी पर उन्होंने असत्य कथा नहीं करा । वसुराजा सत्यवादी के नाम से प्रसिद्ध था। उसके दो अल्पादपिमृणावादाद, रौरवादिषु सम्भवः । मित्र थे नारद और गुरुपुत्र पर्वत । पर्वत कुलपति हुआ और अन्यथा वदतां जैनी, वाचं त्वहहः का गतिः ।। (29) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा भी झूठ बोलने पर रौखादि नरक मे जाना पड़ता है नहीं तो दुर्गति में जाना पड़ता है तो फिर भगवानके सिन्दांत का विपरीत अर्थ करना, महामृषावादी की तो क्या गति होगी ? हेमचंद आचार्य योगशास्त्र में बिना संकोच कहते हैं कि ऐसे असत्यवादी के लिये निगोद के सिवाय कोई स्थान नहीं। निगोदेष्वथ तिर्यक्ष तथा नरका वासिषु । उत्पद्यन्ते मृषावादप्रसादेन शरीरिण : || झूठ के कारण आने वाले जन्मो में जीव अनंतकाय निगोद में उत्पन्न होता है और अनंतकाल तक जन्ममरण करता रहता है। जहाँ पलक झपकने में लगनेवाले समयमें १७१/२ बार जन्म मरण होता है। ऐसी भयंकर स्थिति में जीव कितना समय यहाँ निकालता है और नरक के फेरे भी करता है। निगोद - तिर्यंच और नरक गति मृषावाद के कारण होती है। २३) चोरी का फल : अभग्नसेन चोर को भयंकर सजा विपाक सूत्र में दुःख विपाक के दुसरे अध्ययन में इस कथा का वर्णन है। पुरिमताल नगरके राजा महाबल थे। नगर के बाहार अमोध दर्शन नाम का बगीचा था। एक प्रभु महावीर गौतम आदि के साथ इस बगीचे मे पधारे। देवताने समवसरण की रचना की और प्रभु ने देशना दी । गौतमस्वामी प्रभु आज्ञा से गोचरी के लिये गये, तब पुरिमताल के राज मार्ग से जा रहे थे तो एक प्रसंग सामने आया - अनेक हाथी-घोडे, राज सैनिक आदि खडे थे, इन सब के बीच एक मनुष्य को स्तंभ से उल्टा लटका रखा था। उसके नाक-कान काट लिये थे। आसपास खडे पहलवान उसे मार रहे थे। उसके बाद उसके आठ काका को मारा | फिर आठ काकीओ को, फिर पुत्र, पुत्रवधुजमाई, पौत्र-पौत्री आदि संबंधिओं को सैनिक ने खूब मारा। उससे भी करुणा जनक स्थिति स्तंभ से बंधे मानव की थी उसे भालो से छेदा जा रहा था, उसका मांस और रक्त उसीको पिलाया जा रहा था। यह कूर प्रसंग गौतम स्वामी ने देखा और उद्गार निकले साक्षात नरक का द्रश्य । समवसरणमें बिराजित प्रभु के पास गौतम स्वामी ने प्रसंग वर्णन किया और पूछा। ये मनुष्य कौन है और इसका इस जन्म का पाप या पूर्वजन्म का ? हे गौतम पुरिमताल नगर के बाहर चोरों की बस्ती है, पहाड़ो के बीच गुफा भी है। इस बस्ती में महाभयंकर चोर विजय रहता है। वह क्रूर, हिंसक, लंपट और शूरवीर भी था। दुसरों की चोरी करना सिखाता था और इन्ही सबमें उसका जीवन व्यतीत हो रहा था। उसकी स्कंदश्री नामकी पत्नी थी जिससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम अमग्न सेन था और पूर्व भव में अंडे का व्यापार करता था। निहन्न नाम का व्यापारी जिसकी मदद के लिये पांच सौ व्यक्ति थे, जंगल में जाता और पक्षियों के अंडे लाता, बेचता था इस प्रकार के विविध महाभयंकर पाप करता था तो निहन्न अंडवणिका (१000) हजार वर्ष का आयुष्य पूरा कर तीसरी नरक में उत्पन्न हुआ । असंख्यात वर्ष का आयुष्य नरकायु पूर्ण कर विजय चोर के यहाँ भग्न के रुपमें जन्मा हैं। मनुष्य जन्म मिलने पर भी पाप के पूर्वं संस्कार के कारण महाचोर हुआ और पुनः पाप व्यापार करने लगा। पिता की मृत्यु के बाद उसे मुखियां घोषित किया और चोरो का सेनापति बन गया । पिता से ज्यादा बेटा चतुर चोर निकला | पुरिमताल के राजा और प्रजा परेशान हो गई और प्रजा अपनी गुधर लेकर महाबल राजा के पास गये । अभग्नसेन को युक्तिपूर्वक पकड़ा गया और उसे फांसी दी जायेगी। हेगौतम! इस प्रसंग की यह कहानी है। ये अभग्नसेन जो असह्य वेदना झेल रहा है। ये उसके तीव्र पापों का फल है। इस प्रकार भयंकर वेदना झेलता हुआ मरणोपरांत अनेक नीच गतियों में भ्रमण की सजा किये हुए कर्म भोगे बिना नहीं छुटते। हिंसाभयंकर पाप हैं इसमें कोई शंका नहीं हिंसाजनित वेदना कुछ क्षण की है परंतु जो किसी व्यक्ति की संपति छीन लूट लेता है तो वह व्यक्ति जीवन भर दुःखी होता है। आर्तध्यान करता है और कई बार पागल भी हो जाता है। व्यवहार में धन ११ वा प्राण है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (30) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर सात प्रकार के है १ ) जो स्वयं चोर है २) चोर को सब प्रकार की सामग्री देकर मदद करने वाला ३) चोर को चोरी की सलाह देनावाला मंत्री ४) चोरी की योजना का भेद जाननेवाला ५) चोरी का माल लेनेवाला ६) चोर को भोजन आदि देनेवाला ७) चोर को आश्रय देनेवाला - ये सात प्रकार के चोर बताये है। चोरी की सजा शारीरिक पराधीनता, जेल की सजा, अंगोपाग की विकृति । भयंकर चोरी की सजा तो तिर्यंच गति या नरकगति भी होती है । कर्मके हिसाब से गति मिलती है। नरक गति में तो परमाधामि राक्षस तैयार है, वे महाक्रूर हैं उन्हे तुम्हारे पर कोई दया नही आयेगी जैसे कसाई गाय-बकरी आदि को दया रहित होकर काटता है उसी प्रकार नरक गति में तुम्हारी खैर नहीं, तेल में भजिये की तरह तल देंगे, पत्थर पर पटकेंगे ऐसे अनेक असहनीय दुःख तुम्हे अपने किये हुए पापों के स्वरुप झेलने पड़ेंगे | २४) अब्रह्म पाप का फल - ब्रह्मदत चक्रवर्ती लक्ष्मणा साध्वी को तिर्यंच की कामक्रीडा देखकर ही मानसिक विषय वृत्ति उत्पन्न हुई थी। साधु दिवाल पर लगे स्त्री चित्र आदि नहीं देखते लकडी की बनी पुतलियों को हाथ नहीं लगाते, ये जो पुतली जड़ है कई बार काम वासना को उत्तेजित करने में निमित्त बन जाती है। जड़ पुतली, चित्र आदि का देखना भी निषेध है तो फिर सजीव स्त्री सौंदर्य आदि को देखना या स्पर्श करना कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है ? इसलिये आगम में स्त्री तो क्या स्त्री के कपड़ो का स्पर्श भी वर्जित है । मासक्षमण तपस्वी संभूति मुनि को चक्रवर्ती सपत्नीक वंदन करने आये । वंदन करने वक्त पटरानी को ध्यान न रहा और उनके बालका स्पर्श मुनिराज से हो गया । मात्र सर्पश से मासक्षमण तपस्वी मुनि काम वासना लिप्त होकर नियाणा करते हैं कि अगले भव में मै स्त्री रत्न का भोगी बनुं । साथीमुनि ने खूब समझाया पर न सुनी उन्होंने और अगले भव में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रुप में जन्म लेकर अनेक पाप का सेवन कर सातवी नरक में उत्पन्न हुए। एक क्षण के स्पर्श के इतने भयंकर परिणाम । (31) प्राणी को उत्पन्न करनेवाला मार्ग या स्थान योनि होता है। इस योनितंत्र में स्वभाव से अनेक सूक्ष्म जीव पैदा आंखे से देखे भी नही जा सकते - मैथुन क्रीडा में इस प्रकार के जीवों का नाश होता है । योगशास्त्र में द्रष्टांत दिया है कि जिस प्रकार से रुई भरी हुई नली में अति गरम सली डाली जाये तो सब रुई जलकर भस्म हो जाती है, इस प्रकार से स्त्री की योनि में अनेक सूक्ष्म जंतु होते है, वे पुरुष के संसर्ग मे तीव्र संघर्ष प्रायः मर जाते है। जिन आगमों में लिखा है कि दो लाख से लेकर नव लाख तक अत्यंत सूक्ष्म त्रस जीव वहाँ उत्पन्न होते है । वे प्रायः पुरुष के संसर्ग में मरते है, कोईक भाग्यवश बाद जन्म लेता है। इस तरह मैथुन सेवन में अति हिंसा है। व्रत भंग में अन्य व्रतो का उल्लंघन भी होता है । वरं ज्वलदयस्तम्भ - परिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वार- रामाजधन-सेवनम् ॥ आग से त हुए लोहे के स्तंभ से आलिंगन करना अच्छा है पर नरक के द्वार सम स्त्री का संग करना बूरा है । तीव्र कामी परस्त्री गामी नरक में जाता है। जहाँ लोहे के तपे हुए लाल खंबे से आलींगन कराया जाता है। छेदन, भेदन, काटना आदि अनेक महा वेदना में से गुजरना पड़ता है। परमाधमीओं के हाथ से बचना अति मुश्किल होता है। २५) परिग्रह पाप का फल मम्मणसेठ के पास क्या कमी थी ? अखूट धन संपति दो सोने के हिरे, मोती, रत्नों से सजे हुए बैल की जोड़ी। जिसमें सिर्फ एक शींगडा बाकी था। उस पर रत्न नहीं जड़े थे। मगध को सम्राट श्रेणिक भी उसकी ऋद्धि देखकर दंग रह गया । इतना सब होते हुए भी मम्मण ने जिदंगी भर क्या खाया ? सिर्फ तेल और चने या चवले । अरर ! इतना अन्न होते हुए भी बेचारा खा नहीं सका, लक्ष्मी होते हुए भी उसको भोग न सका । मम्मणसिंह के जीवन में देखा जाय तो उनके जीवन में इच्छाएं ज्यादा है, लोभ का कोई अंत नही है । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!! Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा आकाश की तरह अनंत है। वस्तु मर्यादित है । संसार में ऐसा तो शक्य नहीं कि एक आदमी इच्छा करें और उसे जगतकी सर्व चिज मिल जाये । वस्तुओं की प्राप्ति पूर्व के पूण्योदय से होती है उसमें कोई शंका नहीं है। परंतु, इच्छा तृष्णा, मूर्छा आशक्ति मोहनीय कर्म के उदय से होती है। वस्तु की प्राप्ति और उसका भोग-उपभाग करना दोनो भिन्न है। वस्तु पूर्व के पूण्योदय से प्राप्त होती है। परंतु अंतराय कर्म के उदय से चीज होते हुए भी व्यक्ति दुःखी रहता है। उस चीज का भोग-उपभोग नहीं कर सकता । साधु महाराज को लडू वहोराने के पूण्य से मम्मण सेठ का ऋद्धि सिध्धि प्राप्त हुई, परंतु महाराज के पास से लड्डूवापस लेने के कारण भयंकर अंतराय कर्म बांधा । यह अंतराय कर्म के कारण वह सारी जिंदगी तेल और चने के अलावा कुछ भी खा नहीं सका। उसका पूण्योदय था पर साथ में पाप का भी तीव्र उदय था । लक्ष्मी थी परंतु मूर्छा-इच्छा उससे भी अधिक थी। ऐसी मूर्छा उसे सातवी नरक में ले गई। क्या फायदा हुआ ? क्या लाभ हुआ ? सुंदर किंमती दुर्लभ मनुष्य जन्म भी लक्ष्मी के पीछे सर्वथ हार गया। कुछ धर्मध्यान भी न कर सका । गति बिगडी, जन्म बिगडा, मृत्यू भी बिगडा और मिला क्या नरक गति। बह्वारंभ परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः । (तत्वार्थ सूत्र) अतिशय आरंभ और अत्यंत परिग्रह के संग्रह से नरकगति को आयुष्य बंध होता है। ऐसे प्रकार के बहुत आरंभ समारंभ कर महापरिग्रहधारी को नरकगति में जाना पड़ता है। शास्त्रो में तो यहाँ तक कहा है कि यदि चक्रवर्ति भी संसार छोडकर चारित्र का स्वीकार न करें तो उसे नरक में जाना पड़ता है। इसलिये कहा है कि चक्रेश्वरी सो नरकेश्वरी, राजेश्वरी सो नरकेश्वरी। २६) तिलक शेठ अचलपर शहरमें तिलकसेठ किराणा का व्यापार करते थे, अगले साल अकाल होगा ऐसा ज्योतिष का वचन सही जानकर बहुत ज्यादा अनाज संग्रहित किया । गोडाऊन, घर, भूमिग्रह, सब जगह अनाज से भर दी। अपनी पूंजी से जितना अनाज खरीद सकते थे, उतना लेकर भर लिया। इसके पीछे एक ही विचारधारा काम कर रही थी कि अगले साल अकाल के समय में दोगुना-चारगुना कमाई कर लुंगा । परंतु भविष्य किसने देखा ? दुसरे साल जरुरत के मुताबिक वर्षा हुई। खेतो में फसले बहुत ही अच्छी हुई। सेठ कमाई कर लुंगा । परंतु भविष्य किसने देखा ? दुसरे साल जरुरत के मुताबिक वर्षा हुई । खेतो में फसले बहुत ही अच्छी हुई । सेठ के पास अनाज खरीदने को कोई नहीं आया । वर्षाऋतु के अंत में इतनी मुसलाधार वर्षा हुई की सेठ के गोडाऊन और भूमिगत संग्रहस्थानो में पानी भर गया । सब अनाज सड गया । सेठ को लाखो रुपयों का नुकसान हुआ, सेठ को भारी सदमा पहुँचा और आसक्ति के कारण वे मरकर नरक में गये। २७) नंदराजा: __ पाटलीपुत्र के राजा नंद अति लालची थे। उनको जीवन में एक महेच्छा उत्पन्न हुई कि त्रण खंड का अधिपति बर्नु । उसने आनन फानन लोगों से कर लेना चालु कर दिया। वह अन्य और अनिति से पैसे इकटे करने लगा। उसे पैसे पर अत्यंत मूर्छा थी । चारो तरफ से सोना इकट्ठा कर अपना खजाना भरने लगा। सोने की गिनी और रुपये का चलन । बंद कर चमडे के सिक्के बनाये । ऐसी परिस्थिति में तीव्र लोभी, महापरिग्रही सुवर्णाशक्त नंदराजा के देह में अति भयंकर पीडा आरंभ हुई। अनेक रोग के वे शिकार हुए। इतनी विशाल धनराशी होते हुए भी वे दीन और लाचार बनकर अशरण होकर मृत्यु की शरण में गये । हाय मेरा सोना...मेरे साथ नहीं आयेगा ऐसे दुःखी हुए। ऐसी निराधार परिस्थिति में वे मरे, कैसी दुर्दशा हुई। तीव्र परिग्रह के कारण नरक गति का आयष्य बंध होता है। २८) क्रोध का फल-सुभूम चक्रवर्ति और परशुराम: क्रोध संताप कराता है। परिताप-संताप-पीड़ा-दुःख और आग की तरह जलाता है | चारों तरफ से जलाता है, दाह-ज्वर जैसी क्रोध की स्थिति है। क्रोध सब जीवों को उद्वेग कराता है। घर में क्रोध कोई एक व्यक्ति करता है परंतु उद्वेग सब को होता है। क्रोध सब को डराता है, वैर की परंपरा खडी करता है और सद्गति का नाश करता है। शास्त्रो में दो नाम ऐसे हे जिन्होंने अपने क्रोध के कारण धरती पर हाहाकार मचा दिया । एक सुभूम चक्रवर्ति और दुसरा परशुराम। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (32) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारणी परशूराम, क्रोधे निःक्षत्रि क्रोधे निःक्षत्रि कीधी । धरणी सुभूमराये क्रोधे निर्ब्रह्मी कीधी परशुरामने अपने क्रोध से संपूर्ण धरती क्षत्रिय वगैर की अर्थात सभी क्षत्रियों को खत्म कर दिये । संपूर्ण क्षत्रिय जाती का विनाश कर धरती को पानी के बदले मानो खून से भर दी। वैसे ही सुभूम जैसे चक्रवर्ति ने संपूर्ण धरती ब्राह्मण रहित बनाई। समस्त ब्राह्मणों की कतल करवाई, उनको मौत के घाट उतारकर रुधिर की नदी बहा दी। ऐसे अधर्म मनुष्यने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के निमित्त संपूर्ण जाति का विनाश किया। इतने क्रोध के कारण क्या उनकी सद्गति संभव हो सकती है ? ना कभी नहीं ! चक्रवर्ति होने से भी कुछ नहीं होता। वे मरकर सातवी नरक में गये। अब वहाँ ३३ सागरोपम जितने असंख्य वर्ष दीर्घ काल तक दुःख सहने के सिवा और कोई विकल्प शेष नहीं रहता। क्रोध के ऐसे करुण अंजाम देखकर आत्मा को क्रोध से मुँह मोड लेना चाहिए। २९) अग्नि शर्मा तापस: क्रोधो वैरस्य कारणम् । क्रोध को अगर शांत न किया जाय तो क्रोध वैर की परंपरा को आगे बढ़ाता है अग्निशर्मा । तापस मासक्षमण के पारणे मास क्षमण करते थे। परंतु तीन वार वे संजोग वशात् पारणा न कर सके इसलिये उनको भयंकर गुस्सा आया, गुस्सा बढ़ता ही गया, क्षमा भाव जागृत न हुआ । गुणसेन के साथ द्वेष की गांठ ऐसी बाँध ली कि तप में संकल्प भी कर लिया की... जन्मोजन्म उसका नाश करनेवाला बनु । उनके तप का पुण्य धुल मे मिल गया । मानवजन्म ऐसे ही फोकट गया । बाद के भव में गुणसेन के आत्मा को बार बार मारकर कितनी ही बार वह नरक में गया। कमठ अपने ही छोटे भाई मरुभूति पर पत्थर से शिर फोडा और संकल्प किया कि अगले जन्मों में भी उसे मारु। वैसा ही हुआ । दस दस भवों तक वैर की परंपरा चली और सभी भवो में कमठ मरुभूति के आत्मा को मारता ही गया। महापाप उपार्जन कर बारबार नर्क में गया। विश्वभूति राजकूमार, जो भगवान महावीर के ही जीव है, १६ वे भव में, मासक्षमण की तपस्या करके विशाखानंदी पर क्रोध करते है, और संकल्प करते है - अगले जन्ममें भी तुझे में ही मारनेवाला बनूं। आखिर में ऐसा ही हुआ और १८ वे जन्ममें त्रिपुष्ट वासुदेव बनकर सिंह को मारा । कई कर्मो को बांधकर १९ वे जन्ममें सातवी नरकमें गये । क्रोध १ मिनिटका एक क्षणका और सजा कितने वर्षो की ? कितने जन्मों की? प्रसन्नचंद्र राजर्षि को क्रोध आया तो जरुर, पर एक ही क्षण में मनके विचार बदल गए-जिससे सांतवी नरकमें जाने से बच गए और कर्मो को भुगतकर केवलज्ञान तक पहोंच गए। ३०) लोभ का फल - कौणिक प्राणी परिग्रह के पाप के भार से नारकीय पीडा सहन करने नरक जा पहुँचे। जिस तरह ज्यादा भार से छोटी नाव समुद्र में डुब जाती है। उसी तरह परिग्रह के भार से मनुष्ट नरक में डुब जाता है। लोभी देश परदेश सभी जगह घुमता रहता है तथा धन प्राप्ति की लालसा में शरीर सुख देता है । वह न तो धुप, गरमी न ठंड देखता है। सब दुःखो को सहन करता रहता है। यह वही लोभ है जिसके कारण पिता पुत्र झगडते है । अगर लोभ से धन प्राप्ति होती है तो राजा भी जंगलो में दिन गुजारने को तैयार हो जायेगा । भगवान ऋषभदेव के दोनो बडे पुत्र १९ वर्षो तक लड़ते रहे । भगवान के होते हुए भी दोनो भाई कितने लड़े, विचारकरो क्या कारण होगा। सिर्फ लोभ राज्य का राज्य लोभ भी बहुत भारी होता है। यहाँ तक की कोणिक जैसे पुत्र ने मगधके महान सम्राट श्रेणिक(बिंबीसार) को भी कारागृह में डाल दिया तथा पिता को बहुत दुःख दिया । कोणिक मृत्यु के पश्चात छट्ठी नरक में गया। छखंडो अधिकारी बनने के लालच में कालकुमार नरक मे गये। तथा आगम में निरयावलिका सुत्र में जिनके बारे मे लिखा गया है, कैसे नरक में गये, कैसी वेदना सही। इसलिये हे भाग्यशालीयो लोभ का त्याग करके संवर धर्म का पालन करो। समरादित्य चरित्र में गुणसेन व अग्निशर्मा की जो भव परंपरा आगे बढ़ती है उसके तीसरे जन्म मे शिखिकुमार ने आचार्यदेव श्री विजयसिंह सूरि महाराज से वैराग्य का (33) है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण पुछा । उन्होने अपने पूर्व जन्म की भव परंपरा का कारण बतलाते कहा कि लोभवृत्ति के कारण हमारे कितने जन्म हुए। कितनी लंबी वैर वृत्ति लोभ के कारण चली ये विचार करने जैसी बात है। ३१) गुणचंद्र और बालचंद्र अमरपुर शहरमें अमरदेव सेठके दो पुत्र गुणचंद्र और बालचंद्र थे । व्यापार के लिए विदेश गया। खब धन प्राप्त करके, बाकीकी चीजे बेचकर उन्हें हीरे, मोती रत्न सोनाचांदी आदिजेवरों में बदलकर स्वदेश लौट रहे थे। तभी उन्हे समाचार मिले की अमरपुर देश में युद्ध चल रहा है। चारों तरफ प्रजाजन भाग रहे थे। दोनो भाई भी नजदीक के विजयलक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गए। आपसमें विचार विमर्श करके सारा धन एक सोने के कुंभ में भरके यहीं जमीनमें गाढ़ दिया। फिर वहाँ से चले गए। कुछ दिनों पश्चात युध्ध समाप्त हो गया। दोनो के मन में लोभवृत्ति जागी गुणचंद्र ने सोचा कि ये सारा धन मैं ही ले जाऊँ, सब मुझे ही मिले। यह सोचकर बडे भाई ने छोटे बालचंद्र को जहर देकर मार डाला | लोभ की ताकात कितनी ? एक ही माता की दो संतान - एक ही खुन - फिर भी लोभ की पीछे पागल व्यक्ति, सगे भाई को मारने में झिझक महसुस नहीं करती। धन के बारे में वह सोचकर खुश होने लगा पर उसकी खुशी ज्यादा समय नहीं टिकती तीव्रता से किये हुए पाप का फल भी उसे शीघ्र मिला और अशुभ कर्म होने के कारण फल भी अशुभ प्राप्त हुआ। गणचंद्र को सर्प ने पर्वत पर ही डंस लिया और वह जहर की तीव्र असर से तुरंत ही मर गया । इस तरह दोनों भाइयों ने पर्वत पर ही दम तोड़ दिया और धन वहीं रहा। ___धन के पीछे दोनो भाइयों का मनुष्य जीवन निष्फल गया । गुणचंद्र मर कर नरकमें गया और बालचंद्र व्यंतर देव बना। अगले जन्म में बालचंद्र का जीव देवदत्त नामका सार्थवाह का पुत्र बना। गुणचंद्र का जीव सर्प बना और जहाँ धन छुपाया था, वहाँ रहने लगा। बालचंद्र का जीव सार्थवाह का पुत्र लक्ष्मीनिलय पर्वत पर दोस्तो के साथ गया वहाँ धन लेने को झुका और उसे गुणचंद्र का जीव सर्प ने डंस लिया और वह मर गया। वहाँ वस्तुपाल-तेजपाल के द्रष्टाँत याद आते है। जब आत्मा की परिणती शुभ हो तो शुभफलकी प्राप्ति होती है। वस्तुपाल-तेजपाल जब धन छुपाने गये तब उन्हे और ज्यादा गाड़ा हुआ धन मिल गया । बालचंद्र के जीव को खुद का धन ही लेने में सपने डंस लिया । अध्यव्यवसाय मे यहाँ लोभ रहा है। देवदत्त के दोस्तो ने उस सर्प को पत्थर से मार डाला। सर्प वह पर्वत पर सिंह बना। बालचंद्र का जीव इन्द्रदेव नामका मनुष्य बना। वह शिकार करने वही लक्ष्मी निलय पर्वत पर गया। उसने सिंह देखकर तीर छोडा । सिंहने भी उस पर वार किया। इन्द्रदत मर गया और तीर के गाव से सिंह भी मौत की शरण मे पहुँच गया । दोनों मरकर युगल पुत्र के रुप में चांडल के घर जन्म लिया । एक का नाम कालसेन और दुसरे का चंद्रसेन । एक बार दोनों डुक्कर को लेकर लक्ष्मीनिलय पहाड पर गये। वहां पर गत जन्म में उन्होने जहाँ धन छुपाकर रखा था वहीं पर उस भंड को मार कर पकाने लगे। लकडी जली और वहाँ सोना के चरु के पास जा गिरी। सोना लेने के लिये कालसेन ने चंद्रसेन को मार डाला । दुसरे चंडालो ने चंद्रसेन को मार डाला। दोनो भाई मरकर नरकमें नारकी के जीव बने । वहाँ भयंकर सजा भुगतने के बाद एक ने गृहस्थपुत्र के रुप में और दुसरा उसी घर में दासीपुत्र के रुप में जन्म लिया । उनके नाम समुद्रदत्त और मंगलक थे। दोनों मित्र बन गये । मंगलक विश्वासघाती था । समुद्रदत्त की शादी हुई, पत्नि को लेने वह मंगलक के साथ लक्ष्मीनिलय पर्वत आया । वहाँ दोनों वृक्ष के नीचे बैठे । धन का राग जागृत हुआ और मंगलक ने माया से समुद्रदत्त को पेटमें छुरी मारकर भाग गया, पर बह बच गया था उसने संसार की असार जानकर योग्य आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । मंगलक मरने के बाद छट्टी नरक में गया । समुद्रदत्त उत्तम चारित्र निर्माण कर ग्रेवेयेक देवलोक में गया । मंगलक नरक में से आकर पशु बकरा बना । एक गोबाला उसे चरने के लिए वही पहाड पर ले गया। लोभवशात् वही जगह पर वह बैठ गया। गोबाल ने उसे बहुत मारा तो वह मर गया और वहाँ पर चुहा बनकर बील में रहने लगा। बील में से हीरे-पन्ने, मोती से खेलकर प्रसन्न रहता। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (34) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार जो जुआरे आये, उन्होंने उसे मार डाला। फिर दासी के यहाँ पुत्र बना, चोरी की, फाँसी हुई। मरने के बाद वापस दुसरी नर्क में गया । बाद में यह पर्वत पर एक स्त्री के रुपमें जन्म हुआ। समद्रदत्त का जीव देवलोक से नीकलकर उस स्त्री-श्रीदेवी के कुक्षी में जन्म लिया । पुत्र बडा हुआ शादी हुई। माता-पुत्र एक बार बहार गाँव जा रहे थे। रस्ते में लक्ष्मी निलय पर्वत आया। खजाने के पास ही दोनों खाना खा रहे थे । पुत्र ने थोडासा खोदकर धन निकाला । उसने सोने के चरु अपनी माता को बताया। सुषुप्त लोभदशा उसकी जागी। माता ने सब धन पाने की लालच में बेटे को जहर देकर मार डाला। पत्र को किसी गारुडी मंत्र के जानने वाले तांत्रिक ने बचा लिया। उसने बाद मे ज्ञानी गुरु भगवंतके पास दिक्षा ली। आत्मकल्याण करके वह गैवयेक देवलोक में गया । माता, पुत्र हत्या के कारण पाँचवी नरक में गई। बाद में लोभ के वश नारीयल का वृक्ष बनी । पुत्र का जीव देवलोक से निकलकर श्रेष्टिपुत्र बना है। और मेरे पास खडा है। यह वही पर्वत है जहाँ तमने धन छुपाया था। वृक्ष तेरी माता है जिससे तुझे ममत्व जागृत हुआ। इस तरह मैने मेरी पूर्व भव परंपरा आचार्य श्री के पास सुनी और उनके पास दीक्षा ली। वह मैं हूं दीक्षा के बाद मेरा नाम विजयसिंह आचार्य पड़ा। शिखि कुमार तुमने जो कुछ सुना वह मेरा जीवन चरित्र था जैसे मैने ज्ञानी गुरुभगवंत के पास से सुना वैसा ही कहा। मात्र लोभ के कारण जीवों की कितनी भव परंपरा चलती है। देखा जाय तो सिर्फ लोभ नहीं पर माया, मान, क्रोध कोई भी कषाय आत्मा का अध:पतन कराता है। चौयाँशी के चक्कर से बचना हो तो संतोष धन पास में रखो संतोषी नर सदा सुखी। ३२) द्वेष करने से नुकसान : चौथे जन्ममें मरुभूति का जीव किरणवेग नामक विद्याधर बना और कमठ का जीव नरक में नीकल कर फिर सर्प बना । इस तरफ किरणवेग ने दीक्षा ली । वे मुनि बने । एक बार वे जंगल में कायोत्सर्ग कर रहे थे। पूर्वजन्म के वैर के कारण यहाँ आकर उस सर्प ने डंख मारा । विष पुरे शरीर में फैल गया। फिर भी मुनि शुभ ध्यान में ही रहे और कालधर्म के बाद अच्युत नामके देवलोक में गये। सांप मारकर पाँचवी नरक में गया। छठे भव में मरुभूति का जीव शुभकर नगर मे वज्रनाभ राजा बना। उसने राजपाट छोडकर दीक्षा ली। एक बार उन्होने मासक्षमण तप किया। वे पारणा के लिये जंगल में प्रवेशे। वहाँ दुसरी तरफ कुरगंक नामक भील(कमठ का जीव) शिकार करने जंगल में जाने लगा। इस मुंडिया मुनि के दर्शन को अपशकुन समझ कर तीर फेंक कर उनकी हत्या कर ली। मुनि समता भाव रखकर कालधर्म प्राप्त हुए और ग्रैवेयक देवलोक में ललितांग देव बने । भील मरने के बाद सातवी महाभयंकर नरक में नारकी बना। आठवे भव में मरुभूति(वज्रनाभ) का जीव्र कनकबाहु नामके चक्रवर्ति बने और छ:खंड के चक्रवर्ति सम्राट बने। इतने सुख के होते हुए भी असार संसार छोड कर, राजपाट का वैभव त्याग उन्होंने दीक्षा ली थी । वे मुनि बने और जंगल में कार्योत्सर्ग करने लगे। पूर्व भव के वैर के कारण सर्प आया, उनको डंसा । पूरे शरीर में विष फैला फिर भी वे शुभ ध्यान में रहकर देवलोक में गये। सांप मरकर पांचवी नरक में गया। ३३) तीव्र द्वेष के पीछे पूर्व भव का वैर कारणभूत होता है। और ऐसे तीव्र द्वेष के पीछे संकल्प की संभावना है। संकल्प (नियाणु) करने में क्रोध, कारण बन सकता है। पिता-पुत्र श्रेणिक और कोणिक का पूर्व जन्म उपदेशमाला ग्रंथ में पू. धर्मदासजी गणि ने और उसकी टिका में पू. रत्नप्रभसूरिजी ने लिखा है जो इस प्रकार है। सीमाडा नगर में सिंहराजा को सुमंगल नाम का युवराज पुत्र था। राजा के मंत्री को सेनक नाम का पुत्र था। सेनक बेचारा संयोगवश उंट के अंग टेडे मेडे जैसा था । इसलिये राजपुत्र हमेशा सेनक की मजाक उडाता था। एक दिन तंग आकर सेनक घर छोडकर निकल गया । जंगल में जाकर वह तापस बन गया और तपस्या करने लगा। महिनों तक उपवासी रहने लगा। एक दिन राजा बना हुआ सुमंगल आखेट करने जंगल में गया । वहाँ सेनक को देखकर पूर्वस्मृति से पहचाना । बातचीत करते उसकी उग्र तपस्या की जानकारी मिलते ही राजमहल में आने का आमंत्रण दिया । एक महिना बाद पारणा करने महल पहुँचा । उस दिन राजा को अति वेदना थी जिसके कारण महल बंद था और द्वारपालों ने उसे वहाँ (35) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पत्नि-पुत्र, सास-बहु के बीच में झगडा तो कभी कभी समुद्र की लहर की भांति अविरत रहता है। एक बार अगर झगडा शुरु हुआ तो फिर मनुष्य मर्यादा के सभी बंधन तोड देता है। से भगा दिया । तापस ने दुबारा मासक्षमण किया । राजाने उसे वापस जाकर निमंत्रण दिया । वह तापस पारणा करने आया तब राजा के यहाँ पुत्र जन्म की खुशी मनाई जा रही थी इसलिये वह चुपचाप निकल गया। इस तरह जब उसने तीसरी बार मासक्षमण किया तो राजा ने आकर क्षमायाचना कर उसे बुलाया । तापस आया पर उस दिन राजदरबार में किसीका खून हो गया था इसलिये सख्त पहेरा था तो वह ऐसे ही चला गया। इस बार उसे अत्यंत क्रोध आ गया। क्रोध के आवेश में उसने दृढ संकल्प(नियाणा) किया कि उस राजा ने मुझे बहुत सताया है। अब अगले जन्म में उसका वध करनेवाला मैं ही बनं, मेरे तप का अगर कोई श्रेष्ठ फल मुझे मिलता हो तो मुझे यह ही चाहिये । वैर की परंपरा बढ़ती गई। दोनों का आयुष्य पूर्ण हआ। बिच में एक व्यंतरगति का जन्म पसार कर दोनों मनुष्यगति में आये । सुमंगल का जीव राजा श्रेणिक राजा बना और सेनक का जीव श्रेणिक का पुत्र कोणिक बना । गत जन्म के संकल्प अनुसार युवान होते ही उसने पिता श्रेणिक को जेल में डाला. उस पर चाबूक की मार भी पडवाई थी। एक जन्म के वैर द्वेष दुसरे जन्म में भी साथ आता ही है। वैरी पुत्र कोणिक मरने के बाद छही नरक में और श्रेणिकराजा (नरक में) । वहाँ से नीकलकर ८४ हजार साल बाद आनेवाली चौबीशी के प्रथम तीर्थंकर पदमनाभ स्वामी बनेंगे। सबसे पहली बात यह है कि राग-द्वेष मिटाना है, इसके लिये हमें वितरागी का ही आश्रय लेना चाहिये । जो सर्वथा राग-द्वेष रहित है, जिन में राग-द्वेष लेश मात्र भी नहीं है उनका शरण ही स्वीकारना योग्य होगी। अगर रागी या द्वेषी देव-देवी, गुरु, साधु का शरण स्वीकारने में आये तो हम कभी वितरागी नहीं हो सकते क्योंकि जो खुद वितरागी नहीं है वे हमें वितरागी बनायेंगे ? इस लिये विरक्त वितरागी देव गुरु ही हमें राग-द्वेष के चक्रसे बाहर निकाल सकते है। उनका आलंबन होगा। झगडा प्रायः सगे संबंधीओ में होता है। पिता-पुत्र, माता-पुत्र, सासु-बहु, पति-पत्नि, भाई-भाई, काका-भतीजा, आदि भिन्न-भिन्न संबंधो में ही संघर्ष होता है। वैसे कभी कभी अपरिचितो के बीच में भी कुछ निमित्त मिलते ही झगडा बढ़ सकता है। संबंधो के बीच बार बार संघर्ष का प्रमाण ज्यादा रहता भावों में मलिनता आयी नहीं कि भाषा के शब्द प्रयोग बदल जाते है। शिष्ट भाषा का स्थान अश्लिल भाषा ले लेता है। क्लिष्ट भाषा इस्तेमाल करने में झगडा पर उतारु व्यक्ति तनिक भी संकोच नहीं करता । गाली, गलोच, निम्न स्तर की भाषा ये सब कलह को हवा देते हैं। _जब पति-पत्नि दोनों झगडते हो तब एक-दुसरे पर दोषारोपण करने के लिये कैसी भाषा प्रयोग में लाते है। भाषा में आक्रोश, व्यंग, कषाय की तीव्र मात्रा किती? ये सब अशुभ गति में ले जानेवाली क्रियाएँ है। दुर्गति में जाने के लिये अशुभ पाप कर्म ही जबाबदार है। कलहशील-झगडालू मनुष्य क्लिष्ट भाषा के प्रयोग द्वारा पुण्य उपार्जन करेगा यह तो संभव है ही नहीं। कुछ नहीं तो ऐसी गई गुजरी भाषा से उसका अध्यवसाय बिगडेगा । उसमें बुरे बिचारों की तीव्रता दुर्गति बंध करा देती है। हम पिताजी के मृत्यू पश्चात स्वर्गवासी या सदगति लिखकर प्रकाशित कराते है परंतु सब की गति तो अपने कर्मानुसार ही होती है। कलह के तीन मुख्य कारण है जर, जमीन और जोरु । जर अर्थात जवेरात । गुजरातीमें एक कहावत है - जर,जमीन ने जोरु तेत्रण कजियाना छोरु। ___ नरकगतिमें नारकी जीवों की भी ऐसी ही दशा या फिर इससे भी बूरी दशा रहती है । नारकियों की लेश्याएं अशुभ होती है। कषाय की मात्रा ज्यादा होती है। अध्यवसाय भी अशुभ होता है। वे सब नपुंसक भी होते हैं । इन सब कारणों की वजह से वहाँ लडना-झगडना जन्मजात स्वभाव की भांति रहता है। चारों तरफ वहाँ अंधकार रहता है इसलिये वे लोग एक-दुसरे से टकराते रहते है और झगड़ते रहते है। ___पाप कर्म की प्रवृत्ति थोडे समय के लिये होती है। परंतु उसकी सजा की अवधी लंबे समय तक होती है। एक मिनीट में किये हए पाप की सजा नरक में हजारों लाखों वरसो तक भूगतनी पड़ती है। यहाँ पर कोई गुनेगार को है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (36) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी करने में १ से २ कलाक लग सकता है, पर अगर वह पकड़ा गया तो १०-२० वर्ष की जेल या उमर कैद की सजा भी हो सकती है। कोई कोई देश में बलात्कारी को उम्रकेद भी होती है । ३४) किये हुए पापों की सजा । १) १८ वा त्रिपुष्ट वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में गरम गरम शीशा डालकर जो पाप किया उसका फल प्रभु २७ के भव में भुगतना पड़ा। सिंह को मारा था उसके परिणाम स्वरुप सातवी नारक में गया । २) सूभूम चक्रवर्ति अति लोभ के कारण मर कर सातवी नरक में गया । ३) कोणिक राजा अपने पिता सम्राट श्रेणिक को जेल बंद करके उनको चाबूक मरवाकर, पिता को मारने का भयंकर पाप और दुसरे भी पापों के परिणामरुप (६) नरक में गये । ४) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति ने कई ब्राह्मणों की आँखे फुडवाई | सारी पृथ्वी को निर्बह्म करने की हिंसा का पाप किया जिसके फल स्वरुप उसे ७ वी नरक में जाना पड़ा । ५) कमठ ने प्रथम भव में सगे भाई से वेर किया उसे • डाला और भविष्य में भी मारेगा एसी संकल्प वृत्ति से मुनि हत्या का पाप कर नरक में गया। ३६) अग्निशर्मा और गुणसेन के समारादित्य चरित्र हुआ ? शर्मा ने गुणसेन को हर एक भव में मारने का संकल्प किया था। उसके फलस्वरूप वह मारता ही रहा, वह मनुष्य हत्या और मुनि हत्या के पापों की सजा सहन करते करते एक से बढ़कर एक कडक शिक्षा सहन करता है । जब पाप करते समय कोई दया- शरम न आती है, तो फिर पापों की सजा देने में परमाधमीओं को कैसे या आ सकती है? हाँ उनको कर्मबंध जरुर होता है जिसकी सजा वे बाद में काटेंगे। इस तरह जब जीव हजार प्रकार के पाप कर के जीव जब नरक गति में जाता है वहाँ भी वह हजारों प्रकारकी तीव्र वेदना सहता है । वहाँ परमाधमी के जीव पकड़ने से या माफी माँगने से फर्क नहीं कुछ पडनेवाला इससे तो अच्छा है यहाँ पाप न किया जाय । पाप नहिं करेगे तो नरक में जाने का प्रश्न ही उपस्थिति नहीं (37) 1 होगा । यदि कभी जाना अनजाने में पाप हो गया तो पाप का प्रायश्चित ले लेना चाहिये । धर्म आराधना, जप, तप आदि द्वारा और पाप का प्रायश्चित द्वारा पाप कम हो सकते है । पर अगर ये कुछ भी नहीं किया तो नरक में जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहेगा । यहाँ पृथ्वी पर पापों का क्षय प्रायश्चित द्वारा हो सकता है। जब मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, आर्य कूल, वितराग को धर्म और देवगुरु मिले हो तब धर्म आराधना के द्वारा पापों का नाश कर लेना चाहिये। नरक में पापों का क्षय करने के लिये एक भी साधन नहीं मिलता अतः यहाँ पर देव, गुरु और धर्म की सहायता लेकर पापों का क्षय अवश्य करें नरक पाप कर्म की सजा भुगतने से ही प्राधान्यता है । सजा से बिना समतापूर्वक सहन करना ही अकलमंदी है। अति उत्तम मार्ग तो यह है कि पाप न करने की प्रतिज्ञा लेना । जीवन साधना में साधक और मुमुक्षु आत्माओं का मुख्य दो लक्ष होना चाहिये १) भूतकाल में जो पाप किये गये उसकी कर्म निर्जरा करना अर्थात पाप कर्म का नाश करना । २) जीवन में कभी नये पाप न करने का संकल्प । इन दो ध्येयों को जीवन में अपनाने से सर्वं आराधना समाहित हो जाती है। प्रथम लक्ष्य निर्जरा धर्म है। दुसरा लक्ष्य संवर है। जैन शासन में महामंत्र नवकारने साधक को सर्व पापों को क्षय करने का ध्येय दर्शाया है - सव्व पावप्पणासणो । ३५) वाणिज्य गाँव में एक कामी पुरुष रहता था । उसका नाम उज्झितक कुमार था । यह काम ध्वजा . वेश्या आशक्त रहता था। वह वेश्यागमन का पाप में २५ वर्ष तक रहा। श्री गौतमस्वामी उस गाँव में पधारे थे उन्होंने उसे वध स्तंभ पर लटकते हुए देखा । राजा के सैनिक हजारों लोगों की भीड़ में उसके नाक, कान, मांस आदि तीक्ष्ण भाला से काट रहे थे । महावेदना में जीवन के अनमोल २५ वर्ष पुरे करके वह प्रथम नरक में गया। मृगापुत्र की करह वह भी सातों नरक में ८४ लाख वायोनि में भटकेगा। यह मैथुन पाप की सजा थी । ३७) शकट कुमार नामका महाचोर गत जन्म में हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाई था । वहाँ से मरकर नरक में गया । अब यहाँ चोर बना है। साहंजणी नगरी की वेश्या सुदर्शना में आशक्त है। वेश्या को राजा ने महल में रखा । वह चोर वहाँ भी पहुँच गया राजा ने उसे फाँसी दी । गरम पुतलियों से आलिंगन कराया । वह प्रथम नरक में गया। आगे सात नरक तक भटकेगा। ___३८) कौशाम्बी नगर में बृहस्पतिदत्त नामका पुरोहित था जो पौरोहित्य कर्म करता था। वह राजा और प्रजा का पशुयज्ञ आदि का कार्य करता था। वह राजमहल में अंत:पुर की रानीओं के पास भी बगैर रोकटोक के जाने लगा। उसने शतानिक राजा के पुत्र उदायन की पट्टरानी पद्मावती के साथ व्यभिचार किया। राजा ने बृहस्पतिदत्त को फाँसी दी। शरीर के टुकटे कर दिये गये । भयंकर वेदनाएँ ६४ वर्ष तक सहने के बाद वह प्रथम नरक में गया । गत जन्म में उसने नरबली यज्ञ भी करवाये थे जिंदा पुरुषों के कलेजे काल निकालने वाला पाप संस्कारो से युक्त वह सातों नरक में भटकेगा। यह प्राणातिपात हिंसा की सजा है। ३९) मथुरा में श्रीदाम राजा का पुत्र नंदिसेन था। वह अपने पिता का वैरी बना था। उसने एक चित्र नाम के हजाम को विश्वास में लिया । उसने हजाम को आधा राज्य देने का लोभ दिया। बात अंत तक छपी न रह सकी सब को मालुम पड़ गई। राजाने पुत्र को उत्पीदन किया - गरम पानी में डाला, तपे हुए लोहे पर बैठाया, गरम पानी से अभिषेक करवाया। नंदिसेन मरकर पहली नरक में गया। वहाँ से वह सातों नरक में घोर यातना सह कर असंख्य भव संसार में भटकेगा। ४०) विजयपुर नगर में कनकरथ राजा के यहाँ धनवंतरी नाम का वैध था । वह आयुर्वेद का जानकार था। अष्टांग विद्या का भी उसे अच्छा ज्ञान था । वह वैध राजा, रानी और अन्य सब की चिकित्सा कराता था। दवा में वह कछुआ का मांस, जलचर, भेड-बकरी, भंड हिरण, खरगोश, भैंस आदि का मांस भक्षण करने को कहता था। वह खुद भी दवा के लिये ताजा मांस भी लाकर देता था। उसने बाद में वैदक के नाम पर लोगों को मदिरा पिलाना भी चालू किया। उसका आयुष्य ३२00 वर्ष का था। वह मरकर छली नरक में गया। वहाँ से निकलकर वह पाडलखंड नगर में सागरदत्त का पुत्र उंबरदत्त बना। माता के पेट से ही उसे मांस खाने को मन करता था । बडे होकर उसे मांसमदीरा खाने की वजह से १६ प्रकार के विभिन्न रोग उत्पन्न हुए । रक्तपिक्त और कुष्ठ रोग भी हुआ | घाव में कीडे गये। ऐसे महाव्याधि की वेदना भुगत कर वह प्रथम नरक में गया आगे भी वह सातों नरक में भटक कर असंख्य जन्म तक पाप की सजा झेलेगा। __पाप कर के जीव अधोलोक नरक में जातें है । जो खुद अपनी इच्छा से नरक में जाते है उनको भला कौन कैसे बचा सकता है ? ४१) शशी और सूर की कथा। भरतक्षेत्र की शुक्तिमति नगरी में शशीराजा राज्य करता है। वह महा प्रतापी है। उसके छोटे भाई का नाम सूर है। वे दोनों भाई एक दिन जंगल में घूमने गये । वन में उन्होंने एक घटादार वृक्ष की छाँव में एक साधु को देखा। दोनों भाई घोडे पर से उतरे और साधु की वंदना की। साधुने भी उन्हे धर्मलाभ प्रदान कर उपदेश दिया। || गाथा || माणुस्स खित जाइ, कुल रुवारोग आउयं बुद्धि ।। सटवाणुग्गह सिध्दा, संजय लोगंमि दुल्लहो लहियं ।।१।। चिक्कणधडेण साचिय, ढलीउणं पाणियं जाइ।। कोरं कुंभं च भेदइ, तहावि भव्यजीवाणं ।।९।। आप सत्पुरुष है, धर्म करने में प्रमाद नहीं करो । उपदेश सुनकर सूर राजा दीक्षा लेकर अति दुष्कर तप करने तैयार हो गये । भाई शशी पर हेत होने के कारण उन्होंने उसे समझाया, हे बांधव, इस जीव ने अनेक जन्मों में भोग भोगे है। समुद्र जितना पानी पिया, मेरु जितने धान्य आरोगे तो भी तृप्ति न हुईं। तब शशी ने कहा, हे भाई, ऐसा शायद ही कोई मूर्ख होगा जो राज्यभोग, ललित लोचना स्त्री, पान, फूल, इत्यादि सुख सबंधी साधनो को त्याग परलोकके लिये व्रत उपवास आदि कष्ट सहन करते हो लेकिन परलोक है या नहीं किसे मालूम ? किसने देखा ? आप समझदार हो तो जीव को आनंद-प्रमोद में लगाओ। यौवन बार बार नहीं आता। भाई के ऐसे वचन सुनकर सूर गुस्से हो गया। उसने सब कुछ त्याग कर चारित्र अंगिकार किया। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (38) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत अवस्था में अनशन कर स्वर्ग गया। शशी विषययुक्त होकर नरक में गया । सूरराजा ने देवलोक से अवधिज्ञान के बल से अपने भाई को नरक की यातना सहते हुए देखा। वह नरक में पहुँचकर अपने भाई के पास प्रत्यक्ष हुआ। शशी उसे देखकर खुश हो गया और बोलने लगा कि जाकर मेरे देह की रक्षा कर में अभी नरक से नीकलकर आउंगा और फिर सुख से रहुँगा । सूर ने उपदेश दिया कि, जीव के बगैर देह रह नहीं सकता। इससे तो अच्छा है पाप नहीं करता तो नरक में जाने की बारी आतीं नहीं। अब शांत भाव से वेदना सह कर कर्म खतम कर, पश्चाताप कर जिससे अगले जन्म मे सुखी हो सके । इतना कहकर सर वापस देवलोक में गया। इस तरह अगर कोई भी शशी की तरह धर्म न करे तो फिर पछताने की बारी आयेगी। इसलिये सर्वजनों को धर्म कार्य करने चाहिये । शशीप्रभ राजा मरने के बाद तीसरी नरक में गये थे और सूरप्रभ राजा आयुष्य पूर्ण कर पाँचवे देवलोक में गये थे। परमेश्वर की वाणी सुनने से जीव कष्ट, भूख, तृषा का अनुभव नहीं करता। ४२) एक गांव में कोई वणिक रहता था। उसके घर में एक वृध्दा चाकर थी। एक दिन की बात है - वह लकडी लेने वन में गई, वहाँ भूख और प्यास से बेहाल हो गई। वह थोडी लकडी लेकर के घर आ गई । सेठने कम लकडी देखकर उसे वापस लकडी लेने भेजा । दोपहर का समय था | गर्मी के दिन थे। गरम हवा चल रही थी। धप और ताप सहन करती हुई वह आगे घर की तरफ बढ रही थी। इतने में उसके हाथ से एक काष्ठ नीचे गिर गया । वह उठाने के लिये नीचे झुकी । वहाँ उसे प्रभु वीर की मधुर ममता मयी वाळी सुनाई दी । वह वृध्धा वहाँ पर खड़ी होकर सुनने लगी। धर्म देशना सुनने लगी। धर्म देशना सुनते हुए उसकी भूरव, प्यास सब मीट गई। हर्षित होकर वह घर आई। सेठजी ने देर से आने का कारण पूछा । वृध्धाने सच सच बता दिया। सेठजी ने भी श्री वीर के वचन सुने । उस वृद्धा के धार्मिक गुणों की उन्होंने तारीफ की और उसका बहुमान किया। परमेश्वर की वाणी से वह दुःख के बंधन से छूट गई। || दोहा॥ जिनवर वाणी जो सुने नरनारी सुविहाण ।। सूक्ष्मबादर जीवनी, रक्षा कर सुजाण || १ || श्री वीर भगवान कहते है कि है गौतम, तेरा प्रश्न यह है कि - वे सर्व जीव अपने अपने कमी को वश है। कर्म का स्वरुप जो मै कहता हूँ, वह सूनो । ऐसा कहते हुए भगवान पूर्वोवत उडतालीश प्रश्नो के उत्तर देते है। प्रथम पृच्छा का उत्तर जे धायइ सत्ताई, अलियं जपेड़ परधणं हरइ।। परदारं चियवंचइ, बहुपाव परिग्गहासत्तो ||१५|| चंडो माणो धितो, मायावी निरूरो खरो पाटो ।। पिसुणो संगहसीलो, साहूणं निंदओ अहमो ||१६|| आलप्पाल पसंगी, दुलो बुध्दिइ जो कयग्धो य || बहुदुरक सोग पउरे, मरिउ नरयम्मि सो जाइ ।।१७।। ४३) सूभूम चक्रवर्ति सभमने तलधर के बाहार की दनिया देखी न थी। इसलिये उसने अपनी माता से प्रश्न किया. हे माता, क्या पृथ्वी इतनी ही है ? माता ने उत्तर दिया ना वत्स ! पृथ्वी तो अति विशाल है। परंतु तेरे पिता को परशुराम ने मार डाला और उनका राज्य लूट लिया, तब से डर कर हम तलधर में रहते है। यह बात सुनते ही सुभूम का क्षत्रिय खून उबलने लगा | माँ से आशीर्वाद पाकर वह मेघनाद विद्याधर के साथ हस्तिनापुर गया। वहाँ प्रथम तो वह दानशाला में गया। वहाँ उसने सिंहासन के पास रखे हुए थाल की तरफ देखा। उसकी पैनी निगाह पड़ते ही थाल में रखी हुई सब दाढ़ पीधलकर खीर बन गई। वह खीर सुभूम पी गया । यह समाचार परशुराम ने सुने, वह तुरंत ही अपने शत्रु को मारने अपना परशु लेकर दौड आया। सुभूम ने उसी वक्त खाली थाली को घूमाते हुए उस पर वार किया। वह थाली देवोंसे अधिष्ठित (अभिमंत्रित) चक्र बन गई। परशुराम उससे वींध कर मौत के शरण में गया । देवो ने सुभूम पर पुष्यवृष्टि की। पूर्व के वैर से सुभूम ने इक्कीस बार पृथ्वी का ब्राह्मण के वगैरकी बनाई। वह छ: खंड का चक्रवर्ति बना। परंतु उससे उसे संतोष नहिं हुआ। उसे घातकी खंड में आये हुए छ: खंडो को जीतने की लालसा जागी। इस समय देवताओं ने उसे समझाया, हे सुभूम! तुंजरुररत से ज्यादा इच्छा कर रहा है, यह गलत है, इसके परिणाम तुम्हारे लाभ में न रहेंगे। आज (39) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक जितने भी चक्रवर्ति हुए सब ने मात्र भरत क्षेत्र के छ: खंड को जीते थे । अनंतकाल में अनंत चक्रि बने और बनेंगे । सब T भरतखंड ही जीते है, घातकी खंड जीतने की इच्छा कोई भी नहीं करता, इसलिये तूं भी यह इच्छा छोड दे । भूम ने देवताओं की बात को टाल दिया और अपनी सेना लेकर लवण समुद्र के किनारे गया। उसने चर्मरत्नको हाथ के स्पर्श से विस्तार किया। उसपर पुरी सेना को बैठाकर समुद्र पार करने लगा । इस समय सब देवतागण सोचने लगे कि, चक्रवर्ति के बहुत से देव सेवक है मैं और मेरी शक्ति क्या काम आयेंगी। ऐसा सोचकर कोई देव उसे सहाय करने नहीं गया । समुद्र के मझधार में वह सेना सहित मर गया । वह में गया । इसलिये लोभ से सदा दूर रहना चाहिये । ४४) सातवी नरक ५ क्रोड, ६८ लाख, ९९ हजार ५८४ रोग सातवीं नरक में इतने सब रोग होते है। वहाँ दुखों की चरमसीमा होती है। सामान्य रोग भी हम सह नहीं सकते, उसे दूर करने के उपाय सदैव खोजते रहते है। वहाँ लाखों रोग सहते है । कोई डोकटर, वैद्य या माता-पिता, भाई न कोई स्वजन भी नहीं होता है। इसलिये न रोगों का इलाज संभव है, न आश्वासन के दो शब्द किसीसे सुनने मिलते है । वहाँ जीव की उत्पति से आयुष्य समाप्ति तक, कम से कम १० हजार वर्ष पर्यंत ५ करोड से भी ज्यादा भयानक दर्दो को एकसाथ नारकी के जीवों को सहना पड़ता है। ४५) कंदमूळ भक्षण नरक का अंतीम द्वार जमीन कंद में एक शरीर में अनंत जीव रहते है । थोडे से स्वाद की खातर अनंत जीवों का संहार। क्या आलू प्याज के बीना जीवन शक्य नहीं ? हाँ भोजन और जल के बीन जीव मर सकता है। जीभ के लिये नहीं पर जिनाज्ञा पालन तो मनुष्य भव में ही कर सकते हैं, कुत्ते, बिल्ली तिर्यंच में जन्म होगा तो त्याग और धर्म संभव न होगा। अनंत जीवों अभयदान देना हो तो लसन, आलु, गाजर, मूला आदि जीवन में से विदा कर लो। प्रभु ने हमें बत्तीसी अनंत काय को चबाने के लिये नहीं दी है। अनंत जीवों का नाश करेंगे। तो अगले भव में जीभ भी मीलनी मुश्किल होगी। हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (40) अनंत जगत मे । जमीन कंद में इतने जीवों का भक्षण होता हो फिर भी भगवंत के वचन पर अश्रध्धा रखकर बहुत से नास्तिक भोगविलास में मस्त रहते है। नरक कहाँ है ? ८ वी नरक तो ही नही ऐसे कुतर्क कर के नरक में जाते हैं। दुःखदायी नरक में चौबीसों घंटे सतत दुःख, भयंकर वेदनाओ गर्मीठंड - भूख- तृषा सहना पडता है । २४ घंटे फ्रीज का ठंडा पानी पीनेवाला किस प्रकार से गर्म शीशे का रस पीयेगा ? अति पापी, महा हिंसक, वैरभाव, मांस भक्षण दारु, परस्त्री सेवन, आरंभ परिग्रह आदि कर्मदान के व्यापार, पंचेन्द्रिय जीवों का वध जैसे घोर पाप करने के बाद वहाँ नरक में जीव उत्पन्न होता है। नरक के विषय में शंका : हर एक तीर्थंकर केवलज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थ स्थापन करते हैं और उपदेश देशना देते है । || गणधर अगर परस्पर संशय पूछते तो शंका निवारण होती थी । गणधरवाद में ८वें गणधर श्री अकंपित अपने आगे विद्वान पंडीत को प्रभु के पास वाद कर के निःशंक, निरुत्तर करदिक्षीत हुए जान कर चल गये । अकंपित अपने ३०० शिष्यों के साथ मीठा आवकार के साथ अकंपित आगे बढा, जिसने मेरा नाम और गौत्र के साथ बुलाया - गौतम गौत्रिय अकंपित सुख से पधारो । सुंदर मीठा आवकार के साथ अकंपित आगे बढा, जिसने मेरा नाम और गोत्र कहा है वह मेरे मन की शंका भी बता सकता है। अंकपित तो अभी मन में सोच रहा है, इतने में भगवान ने कहा “इया अत्थि-तप्तिति संसओ तुज्झ" हे अकंपित, जगत में नारकी जीव है क्या ? ऐसे प्रश्न- संशय तुम्हारे मन में हैं, वे सरांय भी तुझे वेद के पदों का अर्थ बराबर न करने से हुआ है । अब तुझे मैं वेद के पद कहता हूँ। एष जायतेय शुद्रान्न मश्नत्ति अर्थात जो ब्राह्मण • शुद्र के हाथ का अन्न खाता है वह नारकी बनता है । नरक में जाता है । दुसरा वेद वाक्य इस प्रकार है । नहीं वै प्रेत्य नारकाः सन्ति । अर्थात जीव मरने के बाद नाक नहीं होता । प्रथम वेद वाक्य नरक के अस्तित्व को Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिध्ध करता है। दुसरा वाक्य नरक को सिध्ध करता है। ये दोनों परस्पर विरुध्ध अर्थवाले वाक्योंसे तुम द्विधा में थे। हे अकंपित नरकगति व नारकी जीवों नहीं है। अगर नारकी हो तो दिखने में क्यों नहि आते ? अब तक मुझे वे दिखे क्यों नहि ? तेरी सोच और मान्यता सही नहीं है। वेद वाक्यो से तुझे शंका इसलिये है कि तुमने उसका पूर्व बताये हुए सबंध के साथ अर्थघटन नहीं किया । पृथ्वी पर मेरु पर्वत आदि शाश्वत है, नित्य है। वैसे नरक में नारकी गण शाश्वता नहीं है। हर हमेशरहनेवाले नहीं है। जो जीव उत्कष्ट पाप करता है वह मरकर अगले जन्म में नारकी बनता है। नारकी मर कर वापस नारकी नहीं बनते - नरक में जन्म नहीं लेते ऐसा उसका अर्थ है। इस तरह से वेद का अर्थ है कि जीव को पाप नहीं करना चाहिये जिससे अगले भव में नारकी बनना पडे। ४६) नारक सिध्धि मैने देखा है जाना है, वैसा ही वर्णन तेरे आगे कर रहा हँ उसमें शंका मत रखो। हे कृपाल परमात्मा! नारकी जीव है तो फिर यहाँ क्यों नहीं आते । प्रश्न २ - राजा प्रदेशी ने केशी गणधर को प्रश्न पूछा था कि मेरे दादा महा नास्तिक थे अति पाप करते थे, अगर आपके कथन अनुसार ज्यादा पाप करनेवाले नरक में आते है, मैंने दादाजी से कहा था अगर आप नरकमें जाओ तो हमें यहाँ कहने आना कि वहाँ कैसा दुख है ? पाप की कैसी सजा भुगतनी पडती है ? मेरे दादा को गुजर गये बरसों हो गये फिर भी अभी तक वे आये नहीं। नरक जैसी कोई गति होती तो मेरे दादा अवश्य । हमे बताने को आते-वे आये नहीं इसलिये मै नरक नहीं है ऐसा मानता हूँ। केशी गणधर कहते है कि है प्रदेशी, मानलो के व्यक्ति घर से कह के निकला है कि मैं वापस थोड़ी देर में आता हूँ और उसके जाने के पश्चात तम्हारी अत्यंत मानीती रानी किसी कार्य वश बाहर निकली हो ऐसा एकांत निर्जन स्थान देखकर वह कामवश होकर तेरी रानी पर बलत्कार करता है, उसका शील लुटता है तथा रानी की चित्कार सुननेवाला कोई भी नहीं हो तथा रानी मारने के लिये उसके शरीर पर हमला करता हो तभी अचानक सैनिक आ जाते है व उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़ कर तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत करते है यह सब देख कर तुम लाल पिले हो जाते हो तथा उस दुष्ट अपराधी को फांसी की सजा सुनाते ही तथा वह दुष्ट तड़फता हो या त्रासदी अनुभव करता हो उस वक्त क्या वह घर जा सकेगा ? उसके मन मे बहुत इच्छा होती है कि घर जाकर अपने पत्नी व संतानो को मिलने की ऐसी बहुत इच्छाएं होती है तथा वह तुम्हारे सामने गिड़गीड़ाये भी सही कि मुझे छोड़ दो मै कल वापस आ जाऊंगा। तो है राजन क्या तुम उसे छोड़ दोगे ? (हरगीस) ही नहीं। तो नरक में ऐसाही है वह पृथ्वी के निचे अधोलोक मे ही है। वहाँ जो जीव तीव्र पाप के कारण नरक में गये हैं वे महाभयंकर दुःख झेल रहे होते है। परमाधमी को दुःख देने में आनंद आता है, वे क्यों किसी को छोड़ देंगे। असह्य वेदना सहन करते हुए वे परमाधमी के आधीन होते है। तो फिर हे प्रदेशी, तुम्हारे दादा खुद यहाँ कैसे कुछ कहने को आ सकते भला ? इस तरह तर्क और युक्ति पूर्ण उत्तर से वह सच्चाई समझने में कामयाब हुआ। नारकी जीव यहाँ नहीं आ सकते ? जीव यहाँ पाप की प्रवृत्ति निरंतर करता है। कहीं तो उसे पापकी सजा मिलेगी। जैसे कि एक मनुष्य सो बार चोरी करता है। मुश्किल से वह एक-दो बार पकडाता है। दो-चार साल जेल में सजा काटकर आता है। पर जो ९८-९९ बार की चोरी में न पकडाया वह पाप से छूट नहीं सकता | पोलिस के सिकंजे से तो वह छूट सकता है, पर पाप करने के बाद परमाधमी से बचना अति मुश्किल है, कोई चांस नहीं। आदमी मृत्यु के समय खानापीना भूल सकता है पर किये हुए पाप कभी नहीं भूल सकता । बाकी - है अकंपित पाप दो प्रकार के होते है कुछ सामान्य और कुछ उत्कृष्ट कक्षा के | यहाँ जीव जो वेदना सहता है वे सामान्य है। मनुष्य और तियेच (पशु-पक्षी) भूख-प्यास छेदन-भेदन, मरण आदि वेदना सहते हैं उन्हे नारकी नहीं कह सकते क्योंकि उसमें थोडा सुख का अंश है। नरक में उत्कृष्ट दुःख होता है। यहाँ का सुख भी सामान्य है। दुःख मिश्रित सुख है। क्षणिक सुख है, सुख का आभास मात्र है। उत्कृष्ट सुख भोगने की गति स्वर्ग गति है। अगर नरक गति न माने तो मनुष्य गति में सब पापों का उदय आता है जो गलत है। १00 साल में किये हुए पापों की सजा यहाँ लोक में सहे तो आयुष्य पूर्ण हो जाता है पर लाखों पाप रह जाते है। हजारों हत्याएं लूट फाट, चोरी की सजा ज्यादा से ज्यादा फांसी होगी, तब बाकी साल का आयुष्य नहीं चलता । आयुष्य पूर्ण हो गया और पापकी सजा बाकी रह (41) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई तो ? दुबारा नरक गति आना पडेगा, इसलिये यहाँ आयुष्य ज्यादा है । यहाँ कीये गये पापाचार की सजा यहाँ भूगत पाना मुश्किल है। तीव्र कषाय, तीव्र राग, जो कृष्ण लेश्या में परिवर्तित हुआ हो ऐसे कर्मों की स्थिति बंध दीर्घ होती है । २०-३०-७० कोडा कोडी सागरोपम की है। उसके अबाधित काल प्रमाण २ हजार, ३ हजार, ७ हजार वर्ष है। यहाँ के आयुष्य के १०० साल की सजा भुगतने नरक में है और तिर्यंच के दुःख तो मर्यादित है । है, अकंपित सिंह और शेर को पिंजरे में भी खाना मिलता है, मनुष्य को भी जेल में खाना मिलता है। परंतु नरक में इतना सुख भी नसीब नहीं होता। वहाँ खाने के लिये भी खुद के शरीर के हिस्से से माँस के टुकडे काटकर ही खिलाते है। कैसी भयंकर सजा । मान लो कि यहाँ फांसी की सजा, जेल की सजा जैसा कुछ न हो तो गुनाह कम ज्यादा हो सकता है। लूट, बलात्कार, खून आतंकवाद आदि बढ जाय पर इन सब का परिणाम नरक है ये सोचकर कुछ जीव पाप करने से रुकते जरुर है । • भूमि क्षेत्र किसने बनाये ? ईश्वर ने इन सबको वह तो अति दयालू और करुणा का अवतार है । उसका हृदय तो क्रूर नहिं है। अनादि काल से चौद राजलोक शास्वत नरकभूमि है । परमाधमी की वेदनाएँ है । कम्प्युटर सीस्टम है। स्वयंसंचालित है, कही कोई गडबड नहीं । प्रत्यक्ष नहीं दिखा रहा है, इसलिये नारक का अभाव है यह मानना सरासर गलत है। भगवान कहते हैं कि में कैवलज्ञान से देख सकता हूँ। सिंह का प्रत्यक्ष दर्शन सब नहीं होता फिर भी उसे अप्रत्यक्ष कोई नहीं कहता। सब लोग ने परदेश, नदी, समुद्र नहीं देखा तो भी सब मानते हैं क्योंकि अन्यने उन्हे देखा है। आँख से मुझे नहीं दिखता इसलिये इन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं पर परोक्ष है जहाँ धुँआ हो वहाँ आग हो सकती है। ऐसा अग्नि का अनुमान इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष होने पर भी उपचार से प्रत्यक्ष कह सकते है । इसलिये नारकों का अस्तित्व नहीं है ऐसा हम नहीं कह सकते । प्रकृष्ट पाप करनेवाला मर कर नरक में जाता है । संसारी जीव खराब दुष्ट कर्म बंध बाँध कर दुर्गति में न इस लिए नरक का स्वरुप दिखाया जाता है, जिससे हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (42) जीव पाप प्रवृत्तिसे पीछे हट शके । भय, लज्जा, शरम, संकोच आदि से सहजता से जीव अशुभ कर्म बंध से बच जायेगा । अविनय, निर्लज्जता, हिंसा आदि सात व्यसन, कपट, विश्वासघात, देवगुरु की आशातना, धर्म की अवहेलना, निंदा परिग्रह, आरंभ, रात्री भोजन, कंदमूल, वडिलों के अपमान, माता-पिता को त्रास देना, आदि से कर्मबंध होता है । हँसते हँसते बाँधे हुए कर्म रोते रोते भी नहीं छुटते। कषाय, वासना संज्ञा अगले भव में नरक में अनेक प्रकार की वेदनायें काफी लम्बे समय तक भोगनी पड़ती है। चारो गतियो में अधिक दुःखदायी नरक गति है। रौद्र ध्यान जैसा अशुभ ध्यान नरकगति का अनुबंध कराता है। प्रसन्न चंद्र राजर्षिने पहले तो रौद्रध्यान करके नरकगति का आयुष्यबंध किया पर तुरंत बाद में शुभध्यान में अपने आप को परिणित किया अशुभ ध्यान पहेले तो रौद्रध्यान करके नरकगति का आयुष्यबंध किया और तुरंत बाद में शुभध्यान में अपने आप परिणित किया अशुभ ध्यान से हट गया और आत्माकी शुभ परिणिति से मोक्ष में गया । हिरनी के शिकार के बाद पाप की अनुमोदना की इसलिये साक्षात भगवान मिलने पर भी उसकी नरक गति मीट नही सकी। उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया था, फिर भी कर्मसत्ता के आगे मजबूर थे । रामचंद्रजी के भ्राता लक्ष्मण, प्रति वासुदेव रावण जैसे तीर्थंकर आत्माओं को भी अपनी भूल के कारण नरक श्रीकृष्ण महाराजा को अंत समय में अशुभ विचारों के कारण नरक में जाना पड़ा । • अति लोभ के कारण धवल सेठ और मम्मण सेठ मरने बाद में ये भूम चक्रवर्ति षट् खंड के अधिपति थे पर और बारह खंड जितने की लालच में सातवी नरक में गये। जीवन में किये हुए अनेक पापों का प्रायश्चित तथा तप और संयम द्वारा पाप मुक्त होकर सदगति प्राप्त कर सकते है । ४७) नरक गति के आयुष्य बंध के कारण : अभिमान, मत्सर, अति विषयी, जीव हिंसा, महारंभी, मिथ्यात्वी, रौद्र ध्यान, चोरी जैन मुनि का धातक, व्रत भंग करने वाला, मदिरा मास भक्षी, रात्री भोजन, गुणिजन की निंदा आदि - कृष्ण लेश्या वाले ऐसे जीव नारकी में उत्पन्न होते है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक आयुष्य का बंध पहले गुणस्थानक तक है, उदय चौथे गुणस्थानक तक और सत्ता ७ वे गुणस्थानक तक रहता है। नेरइयाणं भंते केवईकालं ठिई पन्नता ? गोयमा ? जहल्लेण दस वास सहस्साई उक्कोसणं तेतीसं सागरोपमाई ठिई पन्नता। सर्व नारको की उत्कृष्टा स्थिति : नारकीओं की जधन्य स्थिति १0,000 वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की है। सात नरकों का आयुष्य: प्रथम नरक धम्मा १: सागरोपम तक का आयुष्य दुसरा नरक वंसा ३:सागरोपम तक का आयुष्य तिसरा नरक सेला ७ : सागरोपम तक का आयुष्य चौथी नरक अंजना १० : सागरोपम तक का आयुष्य पाँचवी नरक रीष्टा १७: सागरोपम तक का आयुष्य छसी नरक मधा २२ : सागरोपम तक का आयुष्य सातवी नरक माधवती ३३: सागरोपम तक का आयुष्य आत्मा को कर्म बंध करते समय सोचना चाहिये। कर्म उदय में आने पर संताप करने से पीडा-कष्ट कम नहीं होते इसलिये अशुभ कर्म बंध करते समय सो बार सोचो। ___ नरक जीव ज्ञानबल से पूर्व भव के वृत्तांत जान कर परस्पर झगडते है। रावण-लक्ष्मण लडते है। सीतेन्द्र बारहवे देवलोक से आकर रावण लक्ष्मण को उपदेश देते है। असत्य उच्चारण से वसुराजा सातवी नरक में गये। अनंतानुबंधी कषाय जीव को नरक में ले जाता है। थिणध्धि निद्रावाले जीव मरकर नरक में जाते है। निद्रा में वासुदेव से आधा बल होता है। द्रमक(भिक्षु) राजगृही नगर में घूमकर भिक्षा से अपना पेट पालता था। उसका लांभातराय कम का उदय था इसलिये लोग उसे कुछ देते न थे। वह रौद्रध्यान में रहने लगा। द्वेष के कारण वैभारगिरि पहाड पर से विशाल शीला फेंकने लगा उस कार्य में वह खुद ही मर गया और सातवी नरक में गया। ४९) नारक के आवासः तीसाय पन्नटीसा पन्नरस दसेया, सयसहसा तिनेगं पंचूण अणुतरा निरया, प्रथम नरक में ३० लाख आवासों की संख्या है। दुसरी नरक में २५ लाख आवासों की संख्या है। तीसरी नरक में १५ लाख आवास है। चौथी नरक में १० लाख आवास है। पाँचवी नरक में ३ लाख आवास है। छठी नरक में ९९९९५ आवास है। सातवी नरक में ५ स्थान है। सात नरक में ८४ लाख नरकावास है। नरक में ४ लाख योनि २५ क्रोड लाख कूल है। ५०) नारको की लेश्या : काउ-होसु तईयाई मीसिया नीलिचउत्थीए पंचमियाए मीसा कणह ततो परमकणहा । प्रथम और दुसरी नरक में कापोत लेश्या तिसरी नरक में मिश्र लेश्या पाँचवी नरक में नील लेश्या छट्टी नरक में मिश्र लेश्या सातवी नरक में परम कृष्ण लेश्या ५१) कौन, कौनसी, नरक तक जा सकता १.असंज्ञीजीव जिन्हे मन नही होता) पंचेन्द्रिय तीयेच जीव प्रथम नरक तक जा सकते है। २. गर्भज, भूज परिसर्प(हाथ से चलनेवाले) बंदर, छिपकली, चूहा, खिसकोली दुसरी नरक तक जा सकते है। ३. पंखी तीसरी नरक तक जा सकते है। ४. सिंह आदि हिंसक प्राणी और चौथी नरक तक जा सकते है। ___५. सांप आदि हिंसक सरिसृप पाँचवी नरक तक जा सकते है। ६. स्त्रियाँ छट्टी नरक तक जा सकती है। ७. मनुष्य और मच्छ सातवी नरक तक जा सकती (43) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात ये सब जीव ज्यादा से ज्यादा इतनी नरक तक जा सकते है। स्त्रियाँ १ से ६ तक कोई भी नरक में जा सकती है पर सातवी नरक में नहीं जा सकती । ५२) अलग अलग संघयण वाले जीव की नरकगति : कौनसे संघयण वाले जीव कौनसी नरक तक जा सकते है यह बताने के लिये प्रथम संघयण के बारे में जानना जरुरी है। संघयण अर्थात शरीर की हड्डियों की मजबुताई । छेव - सेर्वात संघयण वाला जीव ज्यादा से ज्यादा दुसरी नरक तक जा सकते है। किलीका संघयण वाला जीव... ज्यादा से ज्यादा चौथी नरक तक जा सकता है। पाँचवी नरक तक नाराच संघयण बाला जीव... छड़ी नरक तक ऋषभ नाराचसंघयण वाले जीव । ज्यादा से ज्यादा सातवी नरक तक जा सकते है वज्रऋषभ नाराच संघयण वाला (उच्च संघयण है) । पुण्य दिशा-विदिशा स्थितनरकावासा आनी पंक्ति - उंचाई ३००० यो. हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! 0 3. प्रकृति होती है। मोक्ष जाने के लिये जरूरी है। तीर्थंकर, चक्रवर्ति ६३ शलाका पुरुषों को यह संघयण मिलता है, इस संघयण का दुर उपयोग कर सत्ता के मद से चक्रवर्ति भी सातवी नरक में गये। त्रिपुष्ठ वासुदेव के भव में सत्ता के मद के कारण भगवान वीर का आत्मा मर कर सातवी नरक में गया। तंदुलीया मच्छ मगरमच्छ के नयन की पलक पर रहता था । वह अति संकलिष्ट परिणाम से अंतमूर्हत में मर कर सातवी नरक में जाता है। वर्तमान काल में इन अंतीम संघयणवाले (छेवडू) जीव है इसलिये दुसरी (२) नरक से आगे नहीं जा सकते । ५३) नरक में से निकला हुआ जीव क्या बन सकता है ? (44) पहली नरक से आया हुआ जीव चक्रवर्ति बन सकता है। दुसरी नरक से आया हुआ जीव बलदेव और वासुदेव हो सकता है । प्रथम तीन नरक में से आया हुआ जीव तीर्थंकर हो सकता है। • प्रतरनी लंबाई- पहोबाई लगभग ९ राज प्रमाण आ चित्र एकप्रतरवर्ति रहेला नरकावासाओने ज्यारे तेनी सामे उभा रहीने, दूरधी जातो, जे लागेनेरी दोस्वामी आयु के. • चित्रनो मध्य भागमा 'इन्द्र नरकावासी छे तेने फरता दिशाना चार अने विदिशाना यार मळी प्रारंभना आठ पंक्तिबद्ध आवाज बताया छे. त्यार पछी पंक्तिगत रहेला त्रिकोण, बाद चोखुण, बाद गोळ, ए क्रमसंनिविष्ट आबासो बताया है, • पंक्तिबद्ध आवासनी प्रधानता होवाथी पुष्पावकीर्ण बताच्या नथी. • नोचना भागे बने बाजुए, विशेष समजण माटे, पूर्ण नरकावासना ख्याल आपती चित्रो बताव्यां छे. [गाथा २३१, पृष्ठ- ४५३/ 四 41. स्थापि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २३०] अप्रतिष्ठान नरकावासनो देवाव [पृष्ठ-१५२] लंबाई-पहोळाई १ राज प्रमाण महारौरव PHATHADDuitam अप्रतिष्ठान महाकाल काल. wom रौरव :-उंचाई ३००० यो.. भण हजार) आ मागमा नारकोनी उत्पनि सातमी नारकीमा उर्व-अधो बन्ने स्थाननी ५२ हजार यो. पृथ्वी छोडीने बाकीना ३ हजार योजनमा एफज प्रतर छ. त्या मात्र पांचज नरकावासाओ छे. एक बच्चेछ. अनेचारे दिशापति एक एफ. केन्द्रमा छे ते बहारथी गोळाकार छे. एने फरता दिशावर्ति चार आवासो त्रिकोणाकारे छे. मध्यवर्ती नरकावारा १ लाख योजननोछे अने फरता चार असंख्य योजन छे. प्रत्येको उत्पत्तिस्थानो असंख्य छे.. प्रथम चार नरक में से आया हुआ जीव केवली बन सकता है। प्रथम पाँच नरक में से आया हुआ जीव साधु बन । सकता है। प्रथम नरक से छट्ठी नरक से आया हुआ जीव देश विरती श्रावक बन सकता है। जीव कोई भी नरक से नीकल कर समकित प्राप्त कर सकता है। सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है। श्रेणिक प्रथम नरक से और कृष्ण महाराजा तीसरी नरक से नीकलकर तीर्थंकर बनेंगे। ५४) नरकवास कौन से आकार-संस्थान से है ? भगवान कहते है, गौतम, अंदर से गोलाकार बाहार से चोरस, नीचे क्षुरप्रना आकार जैसी है, वहाँ दुर्गंध रहती है । अशुचि से ग्रस्त, खून-मास-परु से सना हुआ कीचड, अत्यंत उष्ण, अति ठंड, अंधकार वाले दुःख की खाण रुप सर्व स्थान है। कोई देव अगर मेरु जितने विशाल पहाड को उष्ण नरक में डाले तो वह बरफ का विशाल पहाड जमीन पर गीरने से पहले ही पिघल जाता है। ऐसी अग्नि का फुककर अग्नि जैसा लालचोंर बने हुए मेरु जीतना लोढा गोलाजो शीत नरफ भूमि में अति कठीन व्रजमय विभाग पास छोटा मुख जैसा बनाया हुआ स्थान है। नरकवास दो प्रकार से है। १. श्रेणि बंध(अवलिका बंध) पंक्ति बंध २. अलग से पंक्ति आकार से मध्य मे वृत्ताकार(गोलाइ में) और त्रिखुटाकारे तीन भेद के नरकावास है। गोलाइ, त्रिकोण, चोरस, सुरेख पंक्ति बाहार के आवास विभिन्न प्रकार के होते है। ५५) नरकावास की लंबाई, चौडाई और परिधि: है गौतम, कोई नरक आवास संख्याता योजन विस्तार वाला है । तथा कोई नरक आवास असंख्याता विस्तार वाला है। वे राज योजन की लंबाई-चौडाईवाले है। परिधि संख्याता लाख योजन की है। ऐसा छट्टी नरक तक असंख्याता लाख योजन के विस्तार और परिधि सहित है। (45) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपूर्णमान• लाख ८०६. योजन वो का "त्रिकाण्डमय हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Fabbith धनोदधिबलव बनवास वलय श सवात बलव सातमी नरक के आवास की लंबाई चौडाई और परिधि : ५६) रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास कितने बडे है ? गौतम, इस जंबुद्विप के सर्व द्विप समुद्र में अभ्यंतर द्विप सब से छोटा है । वह तेल के पुडले जैसा गोल है और रथ के पैये जैसा गोल तथा पूर्णिमा के चंद्र जैसा गोल है । आचार्य भगवंत कहते है कि, तिन बार आंख मीचकर खुले उतनी बार वापस आये वो देव जंबुद्वीप के परिध के उत्कृष्ट शीघ्रता से गति करे तो ये देवको चलते चलते १दि, २ दि ३दि, उत्कृष्ट ६ मास तक तब कुछ नरकवासका पार आये उतना बडा नरकवास है। सातवी नरक अप्रतिष्टान नरकवासो अतिक्रमी जाय बाकी के चलते ६ मास भी अतिक्रमी कर सके इतना बड़ा है। सर्व वज्ररत्नमय है द्रव्य से शाश्वता है, पर्याय से अशाश्वता है। (46) रत्नप्रभा पृथ्वी [गाथा १२]] १. पो. २८. यो. ३ जलपण.८०.पी. आ શકિ ५७) नरक की भयानक स्थिति : महामूढ अज्ञानी जीव महारंभ, घोर परिग्रह, पंचेन्द्रिय का वध, मांसाहार आदि पाप करके, उस पाप के भार से ही पानी में लोहे के गोले की तरह वे जीव बिना कोई शरण के नीचे कुंभ में चले जाते है। वहाँ पहले तो उसके शरीर का बारिक हिस्सा जैसा होता है। जधन्य अंतमूर्हत बड़ा हो जाता है। संकिर्ण कुंभी में वह समा नहीं सकता है। वह जीव तेल की धाणी पीलाते हुए हाथी की तरह पोकार करता । उसको पैदा हुए देखकर यमदूत प्रसन्न हो जाते है । यमदूत उसे कहते है कि अर... र... र... यह दुष्ट को पकडो पकडो बोलकर बांस के टुकटे की तरह शस्त्र से पकड प्रलाप - चित्कार करते जल्दि से मारो, छेदो, काटो, बोलते हुए कठोर शस्त्र खड्ग, भाला आदि से कुंभीमेंसे नीकलते Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए जीव को चारों तरफ से विदारते है। पछाडते है। अन्य देव उसे वज्र अग्नि वाली चिता में फेंकता है। वे नारकी के जीव चीरना, छेदना, भेदना, दौडाना, भरोडना आदि अनेक प्रकार से पीडा सहने के बाद भी तीव्र पापोदय के कारण वापस पारा की तरह अपना शरीर संकोच लेते है । बार बार मरने की इच्छा करने के बाद भी उन बेचारों को मरण नसीब नहीं होता । वे अरज करते हैं कि हे स्वामीनाथ ! हमें मत माये यह असह्य वेदना - दुःख सहन नहीं होते । आप मुझ पर प्रसन्न हो । प्रभणंति तओ दीणा मा मा मारेह सामि पहुनाहु । अई दुसह दुःख मिण पसियह मा कुणह एत्ता है । नारकी जीव जब ऐसा मत किजीए इस तरह कहते हुए देवों के पाँव पडता है, दीन वचन बोलता है, तब उसकी बातें सुनकर नरकपाल जवाब देते हैं। मुर्ख, दुष्ट, आज दुःख सहने में कष्ट हो रहा है पर जब अपने आप को सर्वस्व मान कर पाप करते थे और कहते थे कि मोजमजा करो। परलोक किसने देखा ? मांसाहारी बनकर पशुहत्या करते थे। अंडे, चर्बी आदि खुब प्रेम से खाते थे वे सब भूल गया और अब पोकार - चित्कार कर रहे हो। ये दुःख सहनशक्ति की सीमाके बहार है, दुःसहा है, ऐसे वचन अब बोल रहे हो। जब झूठे वचन बोलकर कपट से भोली प्रजा को ठगते थे और हर्षित होते थे अब व्यर्थ प्रलाप करके क्या फायदा ? जब भोले लोगों को लूटा था, ध मारकर गांव नगर लुटते थे और चोरी करते थे, डाका डालते थे, पराये धनकी लालच में उद्यम करते थे वह सब भूल गये। अब चित्कार करने से क्या । तब तुझे कोई समझाता कि पराया धन हडपना अ भयंकर पाप है, तब तुम कहते थे कि धन तो सब के लिये पराया है वह किसी का भी संबंधी नही होता। परस्त्रीगमन, चोरी आदि को तब तुम सुख के साधन मानते थे वैसी स्त्रियों के पति को तुम मरवा देते थे, अब गरम शीशे की पुतलिओं दूर क्यों भागते हो? असंतोषी बनकर बहुत पाप परिग्रह इकट्ठा करते थे, उसके आरंभ से प्रसन्न होते थे । अब ये दुःख सहते हुए चिडना क्यों ? आरंभ परिग्रह के बिना कुटुंब निर्वाह किस प्रकार होगा ऐसा कहते हुए परिवार के लिये पाप उपार्जन करता था, वह पाप की सजा सहने के लिये तुम तुम्हारे कुटुंबीजनों को बुलाओ, हम तुम्हारी मुंह चिटीओं (47) से भर देते है । पहले तो रात को मिष्टान्न खाता था, सूरपान करता था। अब है दुर्भागी, अब अति उष्ण तेल और शीशा क्यों नहीं पिते ? राज्यमें सत्ताधारी बनने के बाद किसी कभी शूली पर चढ़ाना, आँख फोडना, हाथ कटाना, आदि अनेक कार्य रिश्वत लेकर किये और करवाये। नगर का कोबाल बनकर घात करता, यातना देना, आदि कार्यो द्वारा खूब पापी काम किये। देव, गुरु से लोगों को परेशान किया, अब ऐसे ही, पापो से सींचे हुए अपने वृक्ष के मलीन फल तुम आज भूगत रहे हो इसमें हमारा क्या दोष ? नरकपाल तुम्हे पूर्वभव के दुष्ट कार्यो की याद दिलाते हुए अनेक प्रकार की वेदना का उपार्जन करते हैं। नरकपाल, नारकीओं की चमड़ी उधेडकर उनके मांस नोंचकर सेंकते है और फिर उन्ही के मुँह में हँसते है। ऐसे कार्य करते हुए नरकपाल उसे अवगत कराते है कि उसे गत जन्म में मांस भक्षण अति प्रिय था इसलिये खुद का ही मांस-खून ग्रहण करो । गतजन्म में नारक ने यदि कहीं कोई आग लगायी हो तो नरकपाल देव चारों तरफ बड़ी बड़ी अगनज्वाला प्रगट कर उसे उसकी याद दिलाते हैं। शिकार की विविध क्रिया याद कराने के लिये वे आत्मा को वज्रकूट के पास (रस्सी) में बांधकर लकड़ी से पीटते हैं। उसे त्रिशुल से विंध कर अग्नि में रोकते हैं। अग्नि की ज्वाला नीचे लगाकर नारक को उलटे मुँह लटकाकर सेंका जाता है। शस्त्रों से छेदन किया जाता है। परमाधमी देव वाघ, चित्ता, वरु सिंह आदि का रुप बनाकर नारकी पर पंजे से प्रहार करते हैं। वे वज्रमुखी पक्षी के विविध रुप द्वारा भी वे नारकी जीवों की आँखे बाहर निकलता है । मस्तक पर प्रहार करते हैं। शरीर में से मांस के लोचे बाहर निकालते हैं। नरकपाल जब अग्निवर्षा करनेवाला मेघ का रुप लेता है तब नारकी जीव के सर्व अंग जल जाते हैं । फिर वे असुर के द्वारा तैयार की हुई गुफा में प्रवेश करते हैं। वहाँ उपर से गिर रही शिलाओं के कारण सब अंग तुटकर पापड के आटा जैसा हो जाता है । वे करुण विलाप करते हैं। पशुओं पर ज्यादा भार डालने वाले जीव पर वे लोग (नरकपाल) नारकी के स्कंधों पर पूर्व भव की याद ताजा कराने ज्यादा वजन रखते है। संसार में उन जीवों को शब्द स्पर्श रूप रस, गंध आदि में अत्यंत प्रिती थी उन परिणाम को प्रत्यक्ष कराने के लिये कान मे गरम शीशा, आँख को भयंकर रूप और मांस, जलते हुए अंगार के विलेपन हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!! Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको करवाते है। पकड-साणसी से जीभ खींचकर बाहर निकालते हैं। चिंटी, सर्प आदि अशुचि पदार्थ मुँह में डालते हैं । वज्र कंटक शैया में रखी हुई अग्निमय पुतली की साथ सुलाते है। इस तरह नारक जीवो जो यातना सहता है, उसका वर्णन भी शास्त्रों में है। नर्क भूमि में श्याम वर्ण, बिभत्स, अपवित्र, जीर्ण, आंत बाहर निकला हुआ देह, शरीर के लुले अंग, तुटे हुए मस्तक वाले दीन, कायर शक्ति हीन नरक जीव होते हैं। नरक में पलक झपकने तक का सुख भी नहीं । है। सर्व जीव पूर्व किये हुए कर्मो का फल ही भोगता है। कर्म करने के बाद ही उसका अच्छा बुरा फल सहन करना पडता है। कर्म जो फल देने के बाद ही नष्ट होता है। __ गलत रास्ते पर प्रयाण करनार जीव खुद का ही शत्रु बन जाता है और सही रास्ते पर आकर वह अपने आप का मित्र बन जाता है। इस तरह आत्मा ही खुद शत्रु या मित्र है। ज्ञानी गुरु भगवंतों के बहुत समझाने पर, मना करने पर भी तुमने पाप करके दुःख खरीद लिये फिर अब तुम किस पर गुस्सा निकालोगे ? जब तुम्हे कोई समझाने की कोशिश करता तब तु चीड़ कर कहता था कि सात नरक से ज्यादा नरकभूमि है क्या ? अब खेद करने से क्या लाभ ? इस तरह की सद्विचारण सम्यक्द्रष्टि जीव नरक में करता है और अशुभ कर्मो को नष्ट करता है। ऐसे जीव बाद में राज परिवार में जन्म लेते है। धीरे धीरे बाद में कुछ जन्मों बाद उनकी सिद्ध गति होती है। ___ अन्य जीव नरक में कलह भाव रखकर तीर्यंच गति में जाकर भव भ्रमण करते रहते हैं। ५८) सात नरकों का स्वरुप: प्रथम नरक रत्नप्रभा : १४ राजलोक के केन्द्र में मेरुपर्वत है। उर्ध्वलोक (देवलोक), अधोलोक (पाताल लोक) और तिज लोक है। मेरु पर्वत की चारों तरफ जंबू द्विप आदि असंख्य द्विप समुद्र है। मेरु पर्वत की समतल भूमि से नीचे ८00 योजन तक तिर्छा लोक है। उसके बाद नरकलोक(अधो लोक) प्रारंभ होता है। सात राज के विस्तार में सात नरक पृथ्वी है। हर एक राज प्रमाण क्षेत्र में एक नरक पृथ्वी है । हर एक राज प्रमाण क्षेत्रमें एक नरक पृथ्वी है । नीचे उतरते क्रम में है। पहली नरक पृथ्वी का नाम धम्मा है। उसके उपर वज्र वैडूर्य लोहित मसार गल्ला आदि १६ जात के रत्न है। उसकी आभा विशेष होने से धम्मा पृथ्वी रत्नप्रभा के नामसे जानी जाती है। वह एक राज चौड़ी है । स्वयंभू रमण समुद्र तक असंख्य द्वीप समुद्र का प्रमाण उसकी नीचे पहोलाइ ते २.५ पृथ्वीकी जाडाई १ लाख ६० हजार योजन उसके उपर १ हजार योजन छोडकर नीचे १ लाख ७८ हजार योजन नरकी के जीवो रहते है उसमे नरकवास का १३ रास्ता है सम श्रेणी में रहा हुआ से एकेक रास्ता एकेक प्रस्तर कहते है। सब प्रस्तरो ३ हजारा योजन उंचा है और एकेक प्रस्तर में एकेक नरकेन्द्र है। हर एक प्रस्तर में नरकावास है। पहेली नरकमें ३० लाख नरकवास है ये नरकें दिशा विदिशाका नरकवास है हरएकमें भिन्न भिन्न संख्यामें नरकवास है। वे अंदर से गोल बाहार से चतुष्कोण है। ये नरकवास लंबा चौडा संख्यता योजन है। कितने असंख्यात योजन है। सातवे नरकमें आवासे ऐसे है, अट्टी जैसे रमणीय, सुंदर फलेट, बंगले. फर्नीचर नहीं। दिखने में भयंकर है, भूमि बरछी है, उसको देखकर डर पैदा होता है। उसका डरावना रुप है। रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे धनोदधि, धनवात, तनवात, आकाश ये चारो है। सातवी नरक तक ये सबरीत रहती है। रत्नप्रभा पृथ्वी नीचे धनोदधि का पींड २० हजार योजन जाडपणे है । रत्नप्रभा पृथ्वी के १ लाख ८० हजार योजनमेंसे एक योजन छोडकर नीचे भी १ हजार योजन छोडकर मध्यम १ लाख ७८ हजार योजन वहा ३० लाख नरकावासो है अंदर गोल है। बाहर चोखुणा है । वेदना से भरपूर नरक है। रत्नप्रभा पृथ्वीसे १२ योजन दूर अलोक है। दुसरी नरक शर्करा प्रभा : इसका नाम वंशा भी है वहाँ कंकर बहुत है । वे प्रभा से युक्त होने से शर्करा प्रभा कहलाती है। दुसरी नरक अढ़ाई (२१/२) राज चौड़ी है। उसमें ११(ग्यारह) प्रस्तर है। पच्चीस लाख नरकावास है। उसकी जाड़ाई १ लाख बत्तीस हजार यौजन है। तिसरी नरक वालका प्रभा : इस का नाम शैला भी है। वहीं रेती बहुत है। इस लिये इसका गौत्र शैला है। यहा चार राज चौडी है। इसमें पंद्रह लाख नरकावास है। उसमें नौ प्रस्तर है। हर एक प्रस्तर में एक इंन्द्र है। शैला पृथ्वी की जाडाई १ लाख २८ हजार योजन है। नीचे और उपर के एक है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (48) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक हजार यो. छोड़कर बीच के १ लाख २६ हजार योजन में १५ लाख नरकावास है। चौथे नरक पंकप्रभा : इसका नाम अंजना है। पृथ्वी पर सर्वत्र कीचड की प्रधानता होने से यह पंकप्रभा के नाम से प्रसिद्ध है। यह पाँच राज चौडी है। इसकी जाडाई १ लाख २० हजार योजन है। उपर और नीचे के एक एक योजन छोड़कर बीच के १ लाख १८ योजन मे रहने के सात प्रस्तर है। उसमें 90 लाख नरकावास है। पाँचवी नरक : धूमप्रभा...रिष्टा नाम से है। यह पृथ्वी तल पर धुंए की प्रधानता है । यह पृथ्वी छ: राज चौड़ी है। और १ लाक १६ हजार योजन विस्तार में ५ प्रस्तर है । ये नारकी जीवों के लिये है। उसमें नारकी जीव उत्पन्न होते है। वहाँ तीन लाक नरकावास है। छडी नरक तमः प्रभा:...इसका नाम मधा है। अंधेरा होता है। साढ़े छ : राज चौडी है। उसमें तीन वलय है। १ लाख १६ हजार योजन जाडाई में १ लाख १४ हजार योजन विस्तार नारकी जीवों के लिये है। उसमें ३ प्रस्तर ९९ हजार ९९५ नरकावास है। सातवी नरक : तमस्तमः प्रभा...माधवती नाम से है। वहाँ घोर अंधेरा होता है। वहाँ खुद की उंगली भी नहीं दिख सकती इतना अंधकार होता है और वह महातम प्रभा के नाम से जानी जाती है। वह सात राज चौड़ी है। १ लाख ८ हजार योजन प्रमाण है। उसमें १ प्रस्तर है। वह अप्रतिष्ठान नामका ३ हजार योजन उंचा है। वह १ लाख योजन के विस्तार वाली है उसमें ५ नरकावास है। अप्रतिष्ठान नरक आवास बीचमें है। बाद में चारों दिशा में काल, महाकाल, शेर, महाशेर नरकावास है। जहाँ जीव उत्पन्न होते है। ५९) नरक में क्षेत्र वेदना :रत्नप्रभा आदि तीन नारकी में सिर्फ उष्ण वेदना होती है (शीत और शीतोष्ण सुखकारी है। ) इसलिये नहीं होती। चौथी पंकप्रभा :शीत और उष्ण वेदे है । लेकीन शीत वेदना से अधिक उष्ण वेदना अनभव करनेवाले नारकी कम सातवी तमस्तम प्रभा : प्रभा परम (अत्यंत) शीतवेदना का अनुभव होता है। नारकी में भय : वहाँ नित्य अंधकार है। अति भय और परमाधमी का डर और त्रास रहता है। परमाधमी त्रास देते है । वहाँ सदा दुःख, उद्वेग और उपद्रव ही रहता है । नारकी भय और आतंक की परंपरा सहता रहता है। उसका जल्दि अंत नहीं होता। ६०) नारकी की उष्ण वेदना : शास्त्रकारों ने नरक में नारकीओं को सहन करना पडता उष्ण वेदना समझाने के लिये सुंदर उपमा और उदाहरण दिये है। जेठ महिना हो, आकाश, बादल से रहित हो, हवा बिलकुल ही नहीं चल रही हो । ऐसे समय पित्त प्रकृतिवाला मनुष्य छत्रिरहित घर के बाहर जाय और सूर्य के अतिशय ताप से जो वेदना हो उससे अनंतगुनी वेदना नरक के जीवों को होती है। ऐसी तीव्र उष्ण वेदना को सहन करते हुए नारक को उठाकर मनुष्य लोक में पूर्वोक्त स्थल में रखा जाय (सूर्य के ताप में) तो वह जैसे कोई बीना गर्मी के शीतल हवादार स्थल में आया हो इस तरह चैन की नींद सो जायेगा। प्रथम, द्वितिय और तृतिय नरक में उष्ण वेदना होती है। चौथी नरक में कुछ नारकों उष्ण और कुछ नारको को शीत वेदना होती है। पाँचवी नरक में बहुतसे नारकों को शीत और थोडे नारकों को उष्ण वेदना रहती है। इस तरह चौथी और पाँचवी नरक में दोनो प्रकार की वेदना होती है। छट्टी और सातवी नरक में शीत वेदना होती है। कोई गुहार का पुत्र शक्तिवान और निरोगी हो। ६१) नारकी में अति शीत वेदना : नरक में कैसी कड़ाके की ठंड सहन करनी होती है। उसका हलका सा अंदाज लगाने के लिये शास्त्रो में सुंदर उपमा दर्शायी है । पोष मास की रात हो, आकाश बादल रहित हो. शरीर में कंपकंपी छटे ऐसी सनसन करती हवाएँ चल रही हो, ऐसे समय कोई आदमी हिम पर्वत पर सबसे उँची चोटी पर बैठा हो, चारों तरफ जरा भी अग्नि न हो, खुली जगह हो, उसके शरीर पर एक भी वस्त्र न हो, उस समय उस आदमी को ठंड की जितनी वेदना होती है उससे अनंतगुना दुःख नरकवास में नारकों को रहती है। वैसा दुःख भी उनको हर पल रहता है। ऐसी कडाके की ठंड सहन कर रहे नारकों को वहाँ से उठाकर यहाँ उपरोक्त वर्णित किये हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! छटी तमप्रभा : प्रभा शीत वेदना है. उष्णवेदना कम अनुभव होते है। (49) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थल पर लाया जाय तो वह तुरंत ही चैन से जायेगा जैसे कि वहाँ जरा भी ठंड नहीं है । नरक में से उठाकर यदि नारकी जीव को शीत हीम पुंज जैसे हिमालय पर्वत की चोटी पर महा मास की ठंडी में प्रवेश कराया जाय तो वह भूख और ठंड भूल जायेगा । उसकी काया उष्ण हो जायेगी। वह सो जायेगा। उसका यहाँ सुख महेसुस होगा इतनी भयानक ठंडी वहाँ नरक में होती है । ६२) नारकी में भूख और प्यास कैसी होती है ? नारकी के जीवों को इतनी ज्यादा भूख और प्यास होती है कि पुरे समुद्र का पानी उसे पिलाया जाय या पृथ्वी के सब धान्य खिलाये जाय तो भी उसकी भूख प्यास मीटती है। दुनियाभर के घी, दूध और अनाज खाने को मिले फिर भी तीव्र क्षुधा के कारण वे कभी तृप्त नहीं होते । ६३) नारकी में वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा वैक्रिय शरीर एक रूप भी बना सकते है और बहुत से रूप भी बना सकता है। उसें एक रूप करवत, खड्ग, हल, गदा, मुद्गल, नाराच बरछी, त्रिशुल आदि संकल्पित होते है। ये सब रूप संख्याता ही होते है असंख्याता नहीं । ऐसे रूप की विकुर्णा कर वे एक दुसरों की काया में वेदना उत्पन्न करते है । ऐसी भारी वेदना अति कर्कश, डरावनी, निष्ठुर प्रचंड तीव्र दुःखदायक पाँच नरक तक होती है। छुट्टी और सातवी नरक में नारकी लोहे के बारिक कंथुआ वज्र मुख जैसा रूप की बनाते हैं और एक दुसरे की काया में रखते है। ये कंथ नारकी के जीवों की चमडी का भक्षण करते हुए उनके शरीर में प्रवेश कर जाते है और भयंकर दुःख और वेदना खडी करते है । : ६४) रत्नप्रभा आदि पृथ्वी (नरक) के आवासो में वर्ण, स्पर्श, गंध आदि : वर्ण : काला । काली प्रभा इतनी डरावनी होती है कि उसे देखकर रोंगटे खडे हो जाय । सातों नरक अत्यंत भयानक और त्रासदायक काली होती है। उसका दर्शन और गाय, कुत्ते, बिल्ली, पाडा, चूहा, चित्ता, शेर आदि मृत कलेवर मरने के बाद दुर्गंध मारता है। ऐसी गंध और उसमें हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (50) कीडे पड़ जाय ऐसा अपवित्र, घिनौना दृश्य हो उससे अनंत ना अनिष्ट मनोरम दृश्य और दुर्गंध नरक में होती है । स्पर्श : खडग् की धार, शस्त्रों की नोंक, तोमर हथियार की सुइ वींछी का कांटा, नीर्धूम अग्नि का स्पर्श, दीपशिखा का स्पर्श निभाडा के अग्नि का स्पर्श, शुद्ध अग्नि का स्पर्श आदि सब स्पर्श से भी अणिवाला अनंत गुना स्पर्श कावास में होता है । गंध: शिर घूमने लगे ऐसी भयंकर दुर्गंध वहाँ होती है । टट्टी, पेशाब, खून, मांस, पँरू, चरबी के जैसी खराब गंध वहाँ होती है। रस : वहाँ की भूमि के पदार्थों का रस कडवे नीम जैसा होता है । वहाँ मधुर रस का नामोनिशान नहीं होता है । स्पर्श : वहाँ पर स्पर्श सांप बिछ्छू जैसा अति उष्ण और गरम होता है। शब्द : बेचारे जीव दर्द और पीड़ा से सतत चीखने चिल्लाते रहते है। रोते हुए आवाज में कहते रहते है कि ओ मां, ओ बाबा, मुझे छुडाव, मुझे बचाइये। ऐसे अनेकप्रकार के त्रासदायक दर्दनाक आवाजे सुनकर करूणा उत्पन्न होती है । गति : उंट, गर्दभ आदि प्राणी जैसा अप्रशस्त गति नामकर्म के कारण होती है इसलिये नारकों की चाल भी खराब होती है । वेदना : घोर अंधेरे में परस्पर युध्ध करते हैं इसलिये मारना, काटना, पीटना चालु ही रहता है और जीव पीडीत रहता है। नरक में लेश्या: नारकीओं के विचार अशुभ होते है । शरीर बेडोल कढंगा, कुरुप, हुंडक, संस्थानवाला, गंदा होता है । कृष्ण, कपोत और नील तीन लेश्याएं अशुभ होता है । वहाँ परस्पर एक दुसरे को मारने कुटने के ही विचार जीवों होते है इसलिये शुभलेश्या का अभाव ही रहता है। वैसे वहाँ पर सम्यक् दृष्टि जीव की लेश्या शुभ होती है। सातवी और छट्टी नरक में पाँचवी नरक का नीचे का हिस्सा कृष्ण लेश्या कृष्ण लेश्या Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवी नरक का उपर के हिस्सा नील लेश्या चौथी नरक में नील लेश्या तिसरी नरक के नीचे के हिस्सो में नील लेश्या तिसरी नरक के उपर हिस्सो में नील लेश्या पहली नरक और दुसरी नरक में कपोत लेश्या ६५) नरक में कौन जाता है ? कल्पसूत्रकी टीका में लिखा है कि तीव्र रागवाला, स्नेही-स्वजन पर द्वेष करनेवाला, गंदी-हलकी भाषा बोलनेवाला, मूर्ख की दोस्ती करनेवाला, नरक से आया है और नरक में जानेवाला है। इन लक्षणों से हम अनुमान कर सकते है कि साप, मछली, घडियाल, गीध, शेर, सिंह, हिंसक वृत्ति वाले मनुष्य आदि घोर हिंसा करते हैं, वे नरक से आये हैं और यहाँ से वापस नरक में जायेंगे । ये प्रायः अशुभ अध्यवसाय और हिंसकता के आधार पर कह सकते हैं। जीव नरक में नरकगति योग्य आयुष्य कर्म के आरंभ, समारंभ, हिंसा, अति परिग्रह, तीव्र मुर्छा मोह, तीव्र क्रोध आदि कषाय, रौद्र ध्यान से परिणित कृष्ण लेश्या वाले, पंचेन्द्रिय जीव की हत्या करनेवाले, अंडे, मांसाहार, रात्रि भोजन, शराब, चोरी, गुणीजन की निंदा. इा आदि करने रत्नप्रभा पृथ्वीनो यथार्थ-संपूर्ण दवाव गाथा सं. २१० - २१५ मेरू पर्वत रत्नप्रभा पृथ्वी प्रथम नरक LUS ૧૦ થો .: વાના૨ ૮o યો છે' रायपS NEW20 am , બૅન્તર ૮૦૦ ચો. न्याप०ब 00 साISA 300 घा, 4 થી પિ૬ ૧૧પ૮૩યો 25 HORO - છે - અસુરકુમાર ૨૧૫૮૩ કશો - OAROO ORLSमार . ONATION MOREA4मार.. 0AO - अपारमार, 01.2 माहाकुमारास TOGET मारक का GODAO DAO DAODAMOH PENOवा भार OPER SERIOस्तानतर PAPER 22QDRAOXA પિંક ૨૨૫ દઉં કે ચો કે BOOR प्रतरKARO बन्धUse-१००० 0. 'सं.टा.वि. घाघु -તન વાયુ (51) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से नरक में जाकर घोर दुःख सहता है। वर्तमान समय में भी ऐसे पाप करनेवाले मनुष्यों को हम नजर समक्ष देख सकते है । वे पाप कर्म बांधकर नरक में जानेवाले है । ६६) पाप कर्म का दारुण विपाक (परिणाम) हँसता बांध्या कर्म ते रोता नावि छूटे रे प्राणिया । हँसते हँसते मोजमजा के लिये जो घोर पाप मनुष्य और तिर्यंचगति में बाँधे, उसकी सजा नरकगति में मिलती है । शुभाशुभ कृत कर्म अवश्यमेव भोगतव्यं । शुभ और अशुभ कर्म भुगतने ही पडते है, फिर भले ही क्रोड वर्ष निकल जाये पर कर्म से छुटकारा नहीं मिलता, जैसे कर्म करेंगे वैसे ही फल सहन करने पडेंगे। आचारांग सूत्र की टिका में नरक के दुःखो का वर्णन है। कान करना, आँख फोडना, आदि दुःख तो होते ही है पर साथ में हाथ, पाँव, नासिका आदि में तीक्ष्ण त्रिशुल से खड्डे करना, हृदय जलाना, भयंकर विशाल कंक पक्षिओं से भक्षण कराना, तीक्ष्ण तलवार, चमकीले नुकीले भाला, कुहाडा मुदगल : आदि शस्त्रों से मस्तक, कान, गला आदि फाडना, शुली पर चढ़ाना | कुंभी में पकाना, असिपत्रवन से कान नाक छेदाना, आदि कर दुःख और वेदना नरक में है। पलक झपकने तक का सुख भी नहीं है। वहाँ से अगर भागने की कोशिश की परमाधामी की मार खानी पडती है। वहाँ दुःख और पीडा सहन करने के अलावा कोई उपाय बाकी नहीं रहता क्योंकि नारक जीव आत्महत्या भी नहीं कर सकते। उसका आयुष्य निरुपक्रम आयुष्य होता है अर्थात आयुष्य पूर्ण हुए बिना वहाँ से छुट नहीं सकते। ६७) क्षेत्रकृत वेदना : वहाँ वेदना का कोई अंत नहीं है। ठंडी-गर्मी और अति अधिक मात्रा में खुजली, खुजली भी ऐसी होती है कि चाकु, छुरी या तलवार से निरंतर खुजालते रहे तो भी निरांत नहीं होती। यहाँ जरासा पाँव में कांटा लगा था, इंजेकशन की सो चुबते ही मुँह से चीख निकल जाती है। वहाँ पर एक साथ करोड सुई चुबाई जाती हो ऐसी वेदना हो तो जीव किस प्रकार वेदना सहे । कितना दुःखदायी यंत्रणा होगी । यहाँ तो डोक्टर वेदना न सहनी पडे इसलिये प्रथम हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (52) क्लोरोफोर्म सूंघा देते है । बाद में ओपरेशन में काटकूट करते रहते है और नरक में सतत हाथ-पाँव कटते जाते है। बुखार - ज्वर-ताप दाह की वेदना से पिडित शरीर को स्पर्श करते ही जलते हुए अंगारे का स्पर्श सा अनुभव होता है। वहाँ नंगे पैर ही चलना पड़ता है, बूट या चप्पल थोडे ही होते है। ६८) आगम सूत्र : घुतं च मांस च सुरा च वेश्या, पापर्द्धिचोर्ये परदारसेवा । सप्तानि तानि व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ।। भावार्थ : जुगार, मांस, दारु, शिकार, चोरी और परस्त्रीगमन ये सात व्यसन जीव को भयंकर नरक में ले जाते है । नेरइ आणं भंते! कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरा पण्णता, तंजहा वेउच्चिए तेअए कम्मए । भावार्थ : हे भगवन्त ! नारकीओं को (पाँच प्रकार के शरीर मेंसे) कितने शरीर कहे है (होते है) ? हे गौतम! तीन शरीर होते है । वे इस प्रकार है। १) वैक्रिय, २) तैजस, ३ ) कार्मण । • श्री अनुयोग द्वार सूत्र अहोलोगे णं चत्तारि अंधगारं करेंति, तं, नरगा, णेरईया, पावाइं कम्माई असुभा पोग्गला । - श्री स्थानांग सूत्र पूर्वस्यां दिशि कालनामा नरकावास, अपरस्यां दिशि महाकालः दक्षिणस्यां रोरुकः, उत्तरस्यां महारोरुकः मध्येऽप्रतिष्ठानकः । में, पूर्व दिशा में काल नाम का नरक आवास, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रौरुक, उत्तरे महारोरुकः, और बीच में अप्रतिष्ठान नामक नरकावास है । श्री प्रवचन सारोधार पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं । पंद्रह परमाधामी से (प्रतिक्रमण कर रहा हूँ।) प्रतिक्रमण करते समय बोला जाता है। श्री श्रमण सूत्र अधर्मो नरकादीनां हेतुर्निन्दितकर्मजः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुं कारिकावली (न्याय) चत्वारो नरकद्वाराः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव, सन्धानान्तकायिके।। नरक के चार दरवाजे है, प्रथम रात्री भोजन, दुसरा परस्त्रीगमन, तिसरा बोर आचार, चौथा अनंतकाय भक्षण। ___ - श्री श्राध्ध प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति पुढवीसु नेरड्या महावेदणा अप्पनिज्जरा । नरक में नारकीओ महावेदनावाले और अल्प निर्जरावाले होते है। _ - श्री विवाह प्रज्ञप्ति भगवति पंचमंग सूत्र ६९) नारकी के द्वार: द्वार नारकी भेद १४ स्थान ७राज पर्याप्ति योनि संख्या ४ लाख कुल संख्या २५ लाख ६. | योनि संवृतत्व भव स्थिति ज. १० हजार वर्ष उ.३३ सागरोपम ८. | काय स्थिति ज. १० हजार वर्ष ३३ सागरोपम ९. | शरीर १०. संस्थान हुंडक ११.| देहमान ५00 धनुष्य १२.| समुद्घात १३. गति १४. आगति अनंत राप्ति सम्यक्त्व से मोक्ष तक समये सिध्ध लेश्या दिगाहार १९.| संहनन नहीं है। २०. कषाय | Fcious | संज्ञा ४या १० इन्द्रिय | संज्ञात हेतुवादो पदेशकी २४. | वेद २५. | दृष्टि २६. | ज्ञान ३ज्ञान ३ अज्ञान | दर्शन ३ दर्शन २८. | उपयोग आहार निरंतर | गुणस्थान ३१. योग ११ ३२. | प्रमाण (संख्या ) असंख्य ३३. | अंतर ज. अंतर्मुर्हत उ. अनंतकाल एक जीव अपेक्षासे ३४. | भवसंवेध ४ पूर्वक्रोड ६६ सागरोपम ७०) नारकी का उत्तर वैक्रिय शरीर : नरक के अंतमूर्हत तक रहता है। जिस तरह देव का १५ दिन, तिर्यंच का चार मूर्हत रहता है। ७१) नरक में नारकी को साता कब ? कोई जीव पूर्व भव का देव या मित्र हो और वह नरक में जाकर वेदना कम कर सकता है। तीर्थंकरो के कल्याणक के समय नारकी जीव साता का अनुभव करते है, बाकी तो वहाँ दुःख ही दुःख होता है। ७२) नरक में से चार कारणों की वजह से जीव वापस आ नहीं सकता: हे प्रदेशी ! नरक में तुरंत उत्पन्न हुआ नारकी मनुष्य लोक में वापस आने की इच्छा करे तो भी चार कारण से आ नहीं सकता भयंकर महावेदना भुगतने की हो। कर्म फल बाकी रहा हो। परमाधामी बार बार सताते हो। नरक का आयुष्य पूर्ण न हुआ हो। सातवी नरक से वापस न आने का दो कारण है। भक्खणे देववस्स परत्थी गमणे, सत्तमं नरयं जंति सत्तवारा उगोयमा । संवृत ४ १० (53) है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे गौतम ! देवद्रव्य भक्षण करने में और परस्त्रीगमन से वह सात बार नरक में जाता है। तीसरा अध्यायः तत्त्वो की श्रध्धा के लिये तत्वों का बोध अनिवार्य है। तत्त्वों के बोध के लिये जीव आदि तत्त्वों का वर्णन अवश्य करना चाहिये । जीव चार गति के आश्रय से रहता है - मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक ऐसे चार भेद है। यहाँ सबसे प्रथम नरक जीवों का वर्णन प्रारंभ करते धनवात के आधार से धनांबू/धनोदधि रहा है। बाद में धनोदधि के आधार पर तमः तमः प्रभा पृथ्वी रही है। उसके बाद पुनः क्रमश: आकाश, तनुवात, धनवात, धनोदधि और फिर तमः प्रभा पृथ्वी है । इस प्रकार से सातों पृथ्वी तक यही क्रम है। यह विचारणा नीचे से उपर करने में आई है। अगर उपर से नीचे की तरफ विचार करेंगे तो प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी है, बाद में धनोदधि है, फिर धनवात है, फिर तनुवात है, और अंत में आकाश है, त्यार बाद शर्करा प्रभा पृथ्वी है। फिर धनोदधि, धनवात, तनुवात और आकाश है इस तरह सातवी पृथ्वी तक यह क्रम चलता है। सर्वत्र आकाश का कोई आधार नहीं होता, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठित है और अन्य के आधार रूप है। धनोदधि आदि वलय-चुडी के आकार के होने से उसे वलय कहा जाता है। धनोदधि वलय, धनवात वलय, और तनवात वलय । हम रत्नप्रभा पृथ्वी पर है। रत्नप्रभा पृथ्वी में मनुष्य, तिर्यंच, भवनपति देव-व्यंतर देव तथा नारक ऐसे चार प्रकार के जीव है। ___७४) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि पृथ्वी की जाड़ाई और चौड़ाई | पृथ्वी की जाड़ाई पृथ्वी की चौड़ाई रत्नप्रभा १८0000 योजन एक रज्जु शर्कराप्रभा १३२००० योजन अढाई रज्जु वालुकाप्रभा १२८०० योजन चार रज्जु पंकप्रभा १२0000 योजन पाँच रज्जु धूमप्रभा ११८000 योजन छ: रज्जु तम:प्रभा ११६000 योजन साड़े छ: रज्जु तमः तमः प्रभा | १०८000 योजन | सात रज्जु हर एक पृथ्वी से दुसरी पृथ्वी का अंतर असंख्याता क्रोडा क्रोडि योजन है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वी में अनुक्रम से १३,११,६,७,५,३, और १ प्रस्तर है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वी में अनुक्रम से ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख,३ लाख, ९९९९५ और ५ नरकावास है। प्रथम पृथ्वी में रत्नों की प्रधानता होने से उसे रत्नप्रभा कहते है। दुसरी पृथ्वी में कंकर की मुख्यता होने ७३) नरक की सात पृथ्वी का स्वरूप: रत्न-शर्करा-वालुका-पङ्क-धूम-तमो-महातमःप्रभा भूमयो, धमाम्बु-वाता-ऽऽकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः पृथुतराः ॥३-१|| भावार्थ : रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूम प्रभा, तमः प्रभा, महात्तमःप्रभा: ऐसी सात भूमिपृथ्वी है। ये सात पृथ्वी धनांबु, वात और आकाश के आधार से रही है। ये क्रमश: चौडी होती हुई एक के नीचे एक बसी हुई होती है। प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी एक राज चौड़ी है । (स्वयंभू रमण समुद्र तक) दुसरी पृथ्वी अढाई राज चौडी है। तिसरी पृथ्वी चार राज चौडी है। चौथी पृथ्वी पांच राज चौडी है। पांचवी पृथ्वी छ: राज चौडी है। छट्ठी पृथ्वी साढ़े छ: राज चौडी है। सातवी पृथ्वी सात राज चौडी है। इस तरह पृथ्वीएं एक के नीचे एक चौडी होने से इसका आकार छत्र के उपर छत्र जैसा दिखता है। प्रत्येक पृथ्वी धनांबु, धनवात, तनवात और आकाश के सहारे होती है। धनांबू, अर्थात् धन पानी, धनवात अर्थात धन वायु, तनुवात अर्थात पतला वायु | धनांबु को धनोदधि भी कहते है । सर्वप्रथम आकाश है। बादमें आकाश के आधार से तनुवात है । बाद में तनुवात के आधार से धनवात रहा है । फिर पृथ्वी है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (54) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शबल जाति के परमाधामी तो हद से बाहर जीव को वेदना देते हैं। वे पेट, हृदय आदि फाड कर आंत, मांस आदि बाहर निकालते हैं और जीव को दिखाकर पीड़ा देते हैं। रुद्र जाति वाले असूर मार मार कर आते हैं और तलवार चलाते है। त्रिशूल, शुली आदि में नारकों को पिरोकर चिता में डाल देते है। उपरुद्र परमाधामी अंग के टकडे कर अधिक वेदना उत्पन्न करते हैं। __काल जाति के असुर दुःख से रोते हुए नारकों को पकड़कर धकधकती कड़ाई में जींदा मछली की तरह पकाते महाकाल द्वारा होती विडंबना की बात ही अलग है। वह नारक के शरीर के बारीक टुकडे कर उन्ही को खिलाता है। से उसे सर्कराप्रभा कहते है। तीसरी पृथ्वी में रेती की प्रचुरता होने से उसका नाम वालुका प्रभा है। चौथी पृथ्वी में कीचड बहुत होने से पंक प्रभा नाम से है । पाँचवी पृथ्वी में धुंआ बहुत होने से वह धूमप्रभा नाम से जानी जाती है । छट्ठी पृथ्वी में अंधकार विशेष होने से तमःप्रभा के नाम से जाना जाती है। सातमी पृथ्वी में अतिशय तीव्र अंधकार होता है। इसलिये उसका नाम तमः तमः प्रभा है | धनवात तथा तनुवात की जाड़ाई हर एक पृथ्वी में असंख्याता योजन होती है। नीचे की ओर जाते समय पृथ्वी में धनवात और तनुवात की जाड़ाई अधिक रहती है। ७५) नरक में १५प्रकार के परमाधामी कृत वेदना: संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥३-५|| भावार्थ: तीसरी नरक तक के नारक संक्लिष्ट असुरों से परमाधामी देवो से दुःखी होते है। पंद्रह प्रकार के परमाधामीओं के नाम इस प्रकार है - अंब, अंबर्षि, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असि, पत्रधनु, कुंभ, वालुक, वैतरणी, खरस्वर, महाघोष । ये परमाधामी नये उत्पन्न हुए नरक के जीवों के पास शेर की तरह दहाडते हुए चारों तरफ से दौडे चले आते है। अरे यह पापी को मारो, उसको बांधों, उसके टुकडे करो, इस प्रकार प्रालाप करते हुए अनेक प्रकार के शस्त्रों का उपयोग कर नरक के जीव को वींधते है। अंब जाति के परमाधामी खेल ही खेल में विविध प्रकार के भय उत्पन्न करते है। भयविह्वल जीवों के पीछे वे दौडते है। आकाश में उँचे ले जाकर उलटे फेंक देते है। नीचे गिरे हुए जीवों पर वज्र के सलियों से विंधते है, मुदगल से प्रहार करते हैं। ____ अंबर्षि परमाधामी अंब जाति के नरकाधामी द्वारा जख्मी, निश्चेतन किये गये नारकीओं के शरीर के टुकडे करते है। वे जीव को शाक-सब्जी की तरह काटते है। श्याम जाति के परमाधामी भी अंग उपांग छेदन करते हैं। घटिकालय से नीचे फेंकते हैं। चाबूक के प्रहार करते है। गेंद की तरह फेंक कर पाँव से लात मारते हैं। असि जाति के असूर असि अर्थात् तलवार चलाने का कार्य करते है। तलवार आदि शस्त्रों से हाथ, पैर, जंघा, मस्तक आदि अंग-उपांग को छिंदकर तहस-नहस कर देता है। पत्रधन परमाधामी असिपत्र बन बनाकर दिखाते हैं। नारक छाया की अभिलाषा लेकर वहाँ जाते हैं। वहाँ जाते ही उनको अति दुःख भरी वेदना झेलनी पडती है। वहाँ पर वृक्ष के समान दिखनेवाले पत्ते तलवार आदि शस्त्रों के होते है। जैसे ही नारक वहाँ आते है परमाधामी पवन का रूप ले लेते है और वृक्ष पर से धड़ाधड़ पत्ते के जैसे दिखे वाले शस्त्र उन पर गिरते है जिसके फलस्वरूप हाथ, पैर, कान, नाक, आदि अंग कट जाते है, उनमें से रुधिर की धार बहने लगती है। कुंभ जात के असुर नारकों को कुंभ, पचनक, शुंठक इत्यादि साधनो पर उबलते तेल में भजीये की तरह तलते __ वालुका जाति के परमाधामी, नारको को भट्टी की रेत से भी कई गुना ज्यादा उष्ण कदंब वालुका नाम की पृथ्वी में तड़तड़ फटते हुए चने की तरह सेकते है। वैतरणी जाति के परमाधामी देव वैतरणी नदी जैसा रुप बनाकर उसमें नारकों को चलाते है। यह नदी में उकलते लाआरस का वेगवंत प्रवाह बहता रहता है। उसमें हर प्रकार की अशुची बहती रहती है जिसमें हड्डियाँ, खून, पस, बाल आदि भी होते है। अति उष्ण लोहे की नाव में वे नारक को बैठाते है। (55) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरस्वर : खरस्वर परमाधामी कठोर शब्दों का प्रलाप करते हुए दौडकर नारकों के पास आ जाते है। नारकों के पास एक दूसरे की चमडी छिलवाते है। वे शरीर के मध्यभाग को लकडी की तरह फाडते है। बादमें वे नारकीओं को तीक्ष्ण काटों से भरपूर शाल्मलि वृक्ष पर चढाते है। __ महाघोष : महाघोष जाति के परमाधामी नारकों को अति विशाल गगनभेदी शब्दों से भयभीत बनाता है। भय से डरते नारकों को पकडकर उनको वधस्थान में रोककर अनेक प्रकार से वेदना देते है। ७६) परमाधामी मरकर अंडगोलिक मनुष्य बनते है: गंगा और सिंधु दोनों नदियाँ लवण समुद्र में जिस जगह प्रवेश करती है वहाँ से दक्षिण दिशा में जंबूद्विप की जगती की वेदिका से पचपन योजन दूर एक द्विप है। उस द्विप में सुडतालीस गुफाएँ हैं। उसमें जलचारी मनुष्य रहते है । वे मनुष्य संघयणवाले, सुरापान में आशक्त मांस खानेवाले, और काले रंग के होते है। वे मनुष्य अंडगोलिक ऐसे नाम से पहचाने जाते है। उनके अंड की गोली के (पेशाब निकलने की इन्द्रिय के पास की गोली) चमरी गाय के पुच्छ के केश से गूंथ कर कान के साथ बाँधकर रत्न के व्यापारी समुद्र में प्रवेश करते हैं। वह अंडगोली के प्रभाव से मगर आदि जलचर उपद्रव नहीं करते। इस तरह वे समुद्र से रत्न लेकर सलामत बाहर आ जाते है। रत्न के वेपारी अंडगोली लेने के लिये इस तरह उपाय करते है। लवण समुद्र में रत्न नाम का द्विप है। उसमें रत्न के व्यापारी रहते हैं । वहाँ समुद्र के पास वज्रशीला के संपूट (वज्र की एक प्रकार से घंटी) होते है। व्यापारी वहाँ जाते है। संपूटो खोलते है और उसमें मद्य, मांस, मदिरा और माखण ये चार विगइयो भरते है। बाद में जहाँ अंडगोलिक मनुष्य रहते हैं वहाँ मद्य, मांस आदि लेकर आते है । अंडगोलिक मनुष्य दूर से ही देखकर अंडगोलिको का समुह उनको मारने के लिये दौडते है। व्यापारी मध, मांस आदि से भरे हुए पात्र थोडे थोडे अंतर से रख देते है और भागते रहते है। अंडगोलिक उन पात्रों में से मांस आदि खाते खाते दौडते हुए व्यापारी के पीछे लगते है। अंत में व्यापारी वज्रशीला के पास तक आ जाते है। वहाँ खूब सारा मद्य, मांस भरा हुआ देखकर उसमें प्रवेश कर अंडगोलिक वे सब खाते रहते है। इस तरह खाते खाते वे पांच, छ: यावत दश दिन पसार करते हैं, इतने में व्यापारी लोग बख्तर पहन कर तलवार आदि शस्त्रों के साथ आकर सात-आठ टोली बनाकर संपूटों को घेर लेते है। और संपूटों को बंध कर देते है। अंडगोलिक में इतनी शक्ति होती है कि अगर एक भी बाहर आ गया तो वह सबको मार सकता है। बाद में व्यापारीगण यंत्र से वज्र की घंटी में उनको पीसते है। वे अति बलवान होने से एक साल तक पीसाते रहते हैं और अंत में उनकी मृत्यू होती है। एक साल पर्यंत वे भयानक पीडा सहते है। पीसते समय उनके शरीर के अवयव चूरण की तरह बाहर आता है। उसमें से व्यापारी अंड की गोलियाँ ढूंढ निकलता है और उसका उपयोग व्यापारी करता है। पंद्रह प्रकार के परमाधामी देव मर कर कैसी यातना भुगतते है ? साढे बारह योजन प्रमाण एक भयानक स्थल है। वहाँ अंदर साढे तीन योजन प्रमाण एक और डरावना स्थल है। वहाँ साढे तीन योजन समुद्र की उँचाई से उँचा है। वहाँ घोर अंधेरी गुफाएँ है। इन गुफाओं में परमाधामी देव उत्पन्न होते है। उनका स्पर्श कठिन है अर्थात कठोर है। उनकी द्रष्टि अति भयानक है, उनकी काया साडे बारह हाथ की है। उनका आयुष्य कुछ वर्ष का होता है। इस स्थल से इकतीस योजन दूर समुंदर के मध्य में अनेक लोगों की बस्ती वाला रत्नद्वीप नाम का द्वीप है। वहाँ मनुष्यों के पास वज्र की बनायी हई घंट्टी होती है, इन चक्कीओं को वे मांस, मदिरा से भरते है। वे मनुष्य मांस, मदीरा, जहाज में भरकर मनुष्य के पास जाते है और उनको लालच देते है। वे इन चीजो के स्वाद से लुब्ध होकर इनके पीछे आकर उन चक्कीओं में गिरते हैं। वहाँ वे दो-तीन दिन पड़े रहते हैं। बादमें शस्त्रसज्ज आदमी वहाँ आकर चक्कियों को चारेंतरफ से घेर लेते हैं। एक वर्ष तक वे अति कष्ट सहन करते हैं। और फिर वे जलचर मनुष्यों की मृत्यु होती है। सभी नरको से अधिक वेदना अंडगोलिक मनुष्य को होती है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (56) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७) नरक दुःखो का विशेष स्थानांग सूत्र, भवभावना आदि ग्रंथो में है। अरे! इस तरह परमाधामी नारकों को मारते, पछाडते, काटते, तलते, जलाते, शेकते, पिघालते, छिन्न भिन्न कर देते है। फिर भी उनका शरीर पापों के उदय के कारण पारा के रस की तरह वापस इकट्ठा हो जाता है। बेचारे नारकों को मांगे मोत नहीं मिलती। वे जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं होता मर नहीं सकते । जिस तरह दो मल्लों को आपस में लडते देख पापानुबंधी पुण्य वाले जीव खुश होते है, वैसे ही परमाधामी नारकों को परस्पर लड़ते देख मारामारी करते देख आनंदीत होते है। वे हर्षित होकर तालियाँ बजाते है। वस्त्र फेंकते है, अट्टहास्य करते है। ७८) परमाधामी नारकों को दुःख देकर आनंदित क्यों होते है ? प्रश्न : परमाधामी देव होने से उनके पास आनंदखुशी के लिये अनेक साधन होते हैं फिर इस तरह पर पीडा में आनंद क्यों लेते है ? उत्तर : उनको पापानुबंधी पुण्य आदि अनेक कारणों से ऐसे पाप कर्म में ही आनंद आता है । इसलिये आनंदप्रमोद के अन्य साधनों के होते हुए भी नारकों दुःख देते है, लडाते है और आनंद लुटते है। ७९) नारकों के आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति : तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयरिंगशत्-सागरोपमाः सत्वानां पर स्थितः ॥३-६|| भावार्थ : प्रथम नरक आदि में नारकों के आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति अनुक्रम से १,३,७,१०,१७,२२,३३ सागरोपम की है। उत्कृष्ट स्थिति अर्थात ज्यादा से ज्यादा स्थिति जिस स्थिति से ज्यादा अन्य स्थिति न हो वह अंतिम अधिक स्थिति उत्कृष्ट स्थिति कहते है। उपरोक्त श्लोक में मात्र उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन है। ८०) कौन से जीव नरक से आये है और पुनः नरक में जायेंगे? अति क्रूर अध्यवसायवालो सर्प, सिंह, गीध, मछली आदि जीव नरक से आये और पुन: नरक में जायेंगे। ऐसा नियम नहीं है फिर भी उपर दर्शाये हुए कारणों से सामान्यतः ऐसा फलित होता है। ८१) नरक में क्या नहीं होता ? नरक में समुद्र, पर्वत, कुंड, शहेर, ग्राम, झाड, घास, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि नहीं होते। ८२) देव नरक में क्यों और कैसे जाते है ? समुद्रघात, वैक्रिय लब्धि, मित्रता आदि कारणों से देव नरक में जाते है। केवलीसमुद्रघात् में केवली जीव के आत्मप्रदेश संपूर्ण लोकव्यापी बनते होने से सातों नरक में होते हैं। वैक्रिय लब्धि से मनुष्य और तिर्यंच नरक में जा सकते हैं । देवता पूर्वभव के मित्र को सांत्वना देने नरक में जाते हैं। सीताजी का जीव सीतेन्द्र, लक्ष्मणजी के जीव को आश्वासन देने चौथी नरक में गया था । परमाधामी देव नारकों को दुःख देने तीसरी नरक तक जीते है। ८३) नारकों की गति: नारक मरने के बाद वापस नरक में जन्म नहीं लेते। नरक में उनको बहुआरंभ, बहुपरिग्रह आदि नहीं होते । देवगति में जाने के कारण संयम, सराग आदि का नरक में अभाव रहता है। इसलिये वे देवगति में भी उत्पन्न नहीं होते। नरक में से निकलकर मनुष्य या तिर्यंच में जन्म लेते है। ८४) नरक की साबिती: प्रश्न : नरक गति प्रत्यक्ष दिखती नहीं है इसलिये है या नहीं कैसे कहा जाय ? उत्तर : नरक गति सर्वज्ञ भगवंतो को प्रत्यक्ष होती है। अपने को प्रत्यक्ष नहीं होती फिर भी यक्ति से उसे सिध्ध कर सकते है। नरकगति न हो तो अनेक प्रश्नो के उत्तर (57) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मिल सकते । जो जीव हिंसा आदि घोर पाप करते हैं वे उसकी सजा कहाँ भुगतेंगे? क्योंकि मनुष्यगति में उसका फल संभव नहीं है, क्योंकि यहाँ एक खून की सजा फांसी है तो दस खून की सजा भी वही फाँसी है। उसकी बाकी सजा भूगतने वह कहाँ जायेगा । और जो खून, मारपीट आदि करके भाग गये पकडा नहीं गये उसकी सजा ? घोर हिंसा का सजा कहाँ मिलेगी ? जो मन से हिंसा, पाप आदि का सेवन करता है, वे किस प्रकार से सजा प्राप्त करेंगे ? मनुष्यगति में जन्म लेने के बाद गत जन्मों के पापों का फल भूगतने से और फिर पाप कर्म चालु ही हो तो उसके पापों का फल बाकी रह जाता है। मनुष्यगति में कभी कभी सुख भी होता है। वैसे ही तीर्यंच जीवों को भी सुख रहता है। इसे प्रकार से पापी जीवों को उनके पाप की सजा सिर्फ नरकगति में ही शक्य है। ८५) वैमानिक देव अवधिज्ञान से नरक का कितना उत्कृष्ट क्षेत्र देख सकते है। सौधर्म और ईशान के देव प्रथम पृथ्वी तक देख सकते है । सनत्कुमार और माहेन्द देवलोक के देव दुसरी पृथ्वी तक, ब्रह्म और लांतक देव तीसरी पृथ्वी तक, महाशुक्र और सहस्त्रार देव लोक के देव चौथी नरक पृथ्वी और उपर के चार देवलोक आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक के देव पाँचवी नरक पृथ्वी अवधिज्ञान से देखते है। विवेचन : सौधर्म और इशानेंद्र तथा सामानिक आदि उत्कृष्ट आयु वाले देव रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे के भाग तक देखते है। विशेष यह है कि उपर और उसे उपर के देवलोक के देव अवधिज्ञान से अति शुध्ध ज्यादा पर्याय वाली पृथ्वी को देखते है। जैसे कि आनत से प्राणत देव अति विशध्ध रीत से और अधिक पृथ्वी अवधिज्ञान बल से देखते है। ८६) ग्रैवेयक और अनुत्तर देवों का अवधिज्ञान : छ: ग्रैवेयक के देव छठ्ठी नरक तक, बाकी के ३ ग्रैवेयक के देव सातवी नरक पृथ्वी तक और अनुत्तर वैमानिक देव थोडे कम मात्रा में देखते है। वे तिर्छा दृष्टि से असंख्याता द्विप समुद्र देखते है । विवेचन : वैमानिक देव खुद के विमान की चुलिका ध्वजा तक उँचे देख सकते हैं। अनुत्तर विमान के देव कुछ कम १४ राजलोक प्रमाण उंचे त्रसनाडी को देखते हैं | अवधिज्ञान उत्पति समय । उँगली का असंख्याता भाग जधन्य से देख सकते है। ऐसा ज्ञान वैमानिक देवों को होता है। वे पूर्वभव (मनुष्य और तिर्यंच के भव) के अवधिज्ञान सहित जन्म लेते है। इसके बाद देव के संबंध में अवधिज्ञान उत्पन्न होते है। ८७) अवधिज्ञान काजधन्य विषय क्षेत्र तथा नारकी और देवों के अवधिज्ञान के आकार ? भवनपति और व्यंतर देव जधन्य से २५ योजन तक का देख सकते है। भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी १२ देवलोक, ग्रैवेयक और अनुत्तर देवों के अवधिज्ञान का आकार अनुक्रम से त्रापा का आकार। पाला का आकार, ढोल का आकार, झालर का आकार, मृदंग का आकार, पुष्प भरी हुई टोपली-चंगेरी का आकार, गलकंचूक का आकार, ऐसे अलग अलग आकार है। तिर्यंच और मनुष्य के विषय में अवधिज्ञान अलग अलग प्रकार के संस्थान से संस्थित है। ऐसा कहा है। ८८) नारकी अवधिज्ञान से कौनसी दिशा तरफ ज्यादा देखती है। भवनपति और व्यंतर को उपर की तरफ का अवधिज्ञान ज्यादा होता है। वैमानिक देवों का नीचे का अवधिज्ञान ज्यादा होता है । नारकी और ज्योतिषी को तिर्छ अवधिज्ञान ज्यादा होता है। मनुष्य और तिर्यंच को अनेक प्रकार से अवधिज्ञान होता है। भवनपति और व्यंतर का अवधिज्ञान उपर की बाजू का ज्यादा होता है तिर्छा तथा नीचे का कम होता है । वैमानिक को नीचे का अवधिज्ञान ज्यादा और तीळ तथा उपर का कम होता है। नारकी और ज्योतिषी को तिर्छा अवधिज्ञान ज्यादा होता है । तथा उँचे का और नीचे का थोडा कम होता है। मनुष्य और तिर्यंच को अनेक प्रकार से अवधिज्ञान होता है। अर्थात किसी को उँचा, किसीको नीचे का, किसी को तीरछा होता है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (58) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदेव ८९) भवनपति आदि देवों के भवनप्रत्ययिक अवधिज्ञान के क्षेत्र का यंत्र नाम | उत्कृष्ट से उर्ध्व अवधि । उत्कृष्ट से अधो अवधि उत्कृष्ट से तिर्छ अवधि असुर कुमार सौधर्म तक संख्यात तीसरी नारकी तक संख्यात योजन | संख्या असंख्यात योजन नागकुमारादि व्यंतर योजन संख्यात योजन संख्याता योजन वाणच्यंतर सुधीना द्वीप ज्योतिषी और समुद्रो सौधर्म रत्नप्रभा के सर्व असंख्याता योजन इशान नीचे के भाग तक असंख्याता योजन सनत्कुमार शर्करा प्रभा के दुसरे देव लोक से अधिक माहेन्द्र सर्व नीचे के भाग तक तीसरे देवलोक से अधिक वालुका प्रभा के चौथे देवलोक से अधिक लांतक सर्व नीचे के भाग तक पाँचवे देवलोक से अधिक महाशुक्र पंकप्रभा के छट्टे देवलोक से अधिक सहस्त्रार सर्व नीचे के भाग तक सातवें देवलोक से अधिक आनत प्रणात सर्व नीचे के भाग तक दशमे देवलोक तक आरण अच्युत सर्व नीचे के भाग तक ग्याहरवे देवलोक से अधिक ६ ग्रैवेयक तमः प्रभा तक बारहवें देवलोक से अधिक ७ से ९ग्रैवेयक तपस्तमः प्रभा छटे ग्रैवेयक से अधिक ५ अनुत्तर कुछ न्युन लोक नालिका लोक नालिका अंत तक स्वयंभू रमण समुद्र तक ९०) सातो नरक पृथ्वी के नारकी का उत्कृष्ट और जधन्य आयुष्य का माप पृथ्वी क्र. नारकी का आयुष्य नरक पृथ्वी । उत्कृष्ट आयु जधन्य आयु रत्नप्रभा १ सागरोपम १० हजार वर्ष शर्कराप्रभा ३ सागरोपम १सागरोपम वालुकाप्रभा ७ सागरोपम ३ सागरोपम पंकप्रभा १० सागरोपम ७ सागरोपम धूमप्रभा १७ सागरोपम १० सागरोपम तम:प्रभा २२ सागरोपम १७ सागरोपम तमस्तम:प्रभा ३३ सागरोपम २२ सागरोपम |- 5 ।। (59) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१) रत्नप्रभा के हर एक प्रस्तर में उत्कृष्ट और जधन्य आयु प्रस्तर उत्कृष्ट स्थिति जधन्य स्थिति ९० हजार वर्ष १० हजार वर्ष ९० लाख वर्ष १० लाख वर्ष १ पूर्व क्रोड वर्ष 50 लाख वर्ष १/१० सागरोपम पूर्व क्रोड वर्ष २/१० सागरोपम १/१० सागरोपम ३/१० सागरोपम २/१० सागरोपम ४/१० सागरोपम ३/१० सागरोपम ५/१० सागरोपम ४/१० सागरोपम ६/१० सागरोपम ५/१० सागरोपम ७/१० सागरोपम ६/१० सागरोपम ८/१० सागरोपम ७/१० सागरोपम ९/१0 सागरोपम ८/१० सागरोपम १सागरोपम ९/१० सागरोपम ग्रीष्म ऋतु में मध्यान्ह काल में सूर्य मस्तक पर तप रहा हो, आकाश में मेघ न हो, चारों दिशा में चार अग्नि की लपटें निकल रही हो ऐसी जगह पर कोई पित्त प्रकृति वाले छत्र रहित मनुष्य को जो वेदना होती है। उससे कई गुना अधिक उष्ण वेदना का दुःख नारक को रहता है। इतनी उष्ण नरक से उठाकर अगर नारक को जलते हुए खेर कोयले के अंगारे पर रखे तो वह नारक सुख से सो जायेगा। ___ अढाई द्वीप के धान्य खाने से और सर्व समुंदर, नदी, सरोवर के पानी पीने से भी उसकी भूख और प्यास मिटती नहीं। छुरी से खुरेदने पर भी उनकी खुजाल जाती नहीं है। वे सदा परवश रहते हैं। उनके यहाँ की अपेक्षा अनेकगुना ताव रहता है। उनको हमेशा दुसरे नारक और परमाधमीओं से भय रहता है। उनके भय का कारण यह है कि अवधिज्ञान के सहारे उनको उँचे से, नीचे से या तीरछे से आनेवाले दुःख को वे अगाउ से (पहले से) जान लेते है। इसलिये वे भय से व्याकुल और शोक संतप्त रहते है। इस तरह ये उनकी १० प्रकार की वेदना हुई। प्रथम तीन पृथ्वी के नरकावास की भूमि शीत और बाकी की भूमि उष्ण है । पंकप्रभा में बहुत से नरकावास उष्ण और थोडे शीत है। धूमप्रभामें बहुतसे नरकावास शीत और थोडे उष्ण है। छट्ठी और सातमी नरक में थोडी उष्ण और बाकी भूमि शीत है। नारकी में दो भेद है। सम्यक् दृष्टि जीव और मिथ्याद्रष्टि जीव । उसमें सम्यक् दृष्टि नारकी पूर्वकृत कर्म को याद कर अन्य से उत्पन्न हुए दुःख को सम्यक प्रकार से सहन करती है, जब कि मिथ्या दृष्टि नारकी एक या संख्याता संबंद्ध मुद्गरों के वैक्रिय रुप ग्रहण कर या स्वाभाविक पृथ्वी संबंधी हथियार ग्रहण कर परस्पर झगडते रहते हैं। ९३)३ वेदना में से कौनसी वेदना कितनी नरक तक होती है। सात नरक पृथ्वी में क्षेत्र वेदना, और प्रहरण बिना अन्योन्यकृत (परस्पर जीवों द्वारा उपजायी हुई वेदना) वेदना भी होती है। ५/३ नरक पृथ्वी में परमाधामी द्वारा दी गई वेदना भी संम्मिलित होती है । छट्ठी और सातवी नरक में नारकी जीवों वैक्रिय रुप बनाकर एक दुसरे के शरीर में प्रवेश करते है और वेदना खड़ी करते है। नारकी जीवो आले ९२) १० प्रकार से क्षेत्र वेदना : शब्दार्थ : १. आहारादि पुद्गलों का बंधन २. गति ३. संस्थान हुंडक ४. भेद ५. (अशुभ) वर्ण ६. गंध ७. रस ८. स्पर्श९. अगुरुलघु १०. शब्द ये देश प्रकार के अशुभ पुदगल नरक में भी है। दुसरे १० प्रकार की क्षेत्र वेदना इस प्रकार है - नारकी देश प्रकार की (क्षेत्र) वेदनावाले होते है। १. शीत २. उष्ण ३. क्षुधा ४. तृषा ५. खरज ६. परवशपना ७. बुखार ८. जलन ९. भय १०. शोक ये सब वेदनाएं नारकी के जीव सहन करते है। पोष मास की भीषण ठंड के दिनों में रात के समय जब बर्फ गिरती हो, हवा चल रही हो ऐसे वक्त कोई मनुष्य वस्त्र पहने बिना हिमालय पर्वत पर पहुंचे वहाँ से उसे जो ठंड महसस होगी उससे अनंत गुना ज्यादा शीत वेदना नारक जीवों को रहती है। नारकीओं को यदि ऐसी शीत वेदनावाले नरक में से उठाकर उपरोक्त स्थान पर रखा जाय तो उनको अनुपम सुख महसूस होगा और वे निद्राधीन हो जायेंगे। हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (60) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कुंभी) में उत्पन्न होते है। यह उनकी योनि जानो । वहाँ उत्पन्न होने के बाद अंतमुर्हत वह आला (कुंभी) छोटा और शरीर बडा हो जाता है। इसलिये उसमें रह नहीं सकते। तो नीचे गिरते है । वहाँ तुरंत ही परमाधामी आ जाते हैं और पूर्वकृत करम के अनुसार दुःख देते है। जैसे कि मदिरा पीने वालो को गरम शीशा पिलाया जाता है, परस्त्री पर नजर डालने वाले को गरम लोहे की पुतली से आलिंगन कराया जाता है। कूट सीमला के वृक्ष पर बिठाते हैं। लोहे के धण में रखकर पीटा जाता है। गरम तेल में डालते हैं | धानी में पीलते है। करवत से काटते हैं। शरीर में भाला पिरोते है। भट्टी में सेंकते हैं। पक्षी, सिंह, सर्प आदि के रुप बनाकर पीडा देते है। वैतरनी नदी में भीगोते हैं। असिपत्र बन और तप्त रेत में दौडाते हैं । वज्रमय कुंभी में तीव्र ताप में गर्म होकर नारकी उँचे ५00 योजन तक उछलती है और जैसे ही जमीन पर गिरती है परमाधामी और दुसरे नारक अलग अलग रुप लेकर दुःख देते हैं। उन नारकी जीवों को लडते झगडते देख परमाधामी और दुसरे नारक अलग अलग रुप लेकर दुःख देते हैं। उन नारकी जीवों को लडते झगडते देख परमाधामी खुश होते हैं, अट्टहास्य करते हैं, उनके पर वस्त्र उछालते है और नारकीओं को परस्पर झगडते देखने में जितनी प्रिती परमाधमीओं को होती है वैसी प्रिती उनको अच्छी रम्य सुंदर चीजें देखने में नहीं होती। ये परमाधामीपना पंचाग्नि प्रमुख कष्ट क्रियाओं से प्राप्त होता है। परमाधमी भव्य ही होते हैं वे भी मरकर अंडगोली होते है। ____९५) साते नरक पृथ्वी का पिंड और उसका आधार: धनोदधि-पिंड २० हजार योजन का है | धनवात, तनवात और आकाश का पिंड असंख्यात योजन से युक्त है। छानिछत्र आकारे सात मारकी नुं चित्र [स.गा. २१०३/२४] ----समभूतलाश्य "रत्नप्रभा नारक प्रतर-१३ १८००० यो. ३०वस्था नरपवास --लोक मक शार्कराममा ना. प्रवर-11 १३२००० यो. १५ लासन १५ लारवन. प्रतर-- चालुकाप्रभा ना. १२८००० यो.. १० लाखनप्रतर-3 -पकप्रभा ना. १२०००० यो. अधोलोक मध्य धूमप्रभा ना. ११८००० यो. बारबन. प्रतर-4 १९९९५ न. वमनमाना 17६००० यो. नरकाबास प्रनर-१ तमस्तक Page004 सभामम मालाम (61) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन : हर एक नरक पृथ्वी की जाड़ाड़ का मध्यभाग के नीचे धनोदधि की जाड़ाइ २० हजार योजन की है। उसके नीचे धनवात असंख्यात योजन, उसकी नीचे तनवात असंख्यात योजन और उसकी नीचे आकाश असंख्यात योजन मध्य भाग में हैं, उसके बाद धनोदधि आदि तीन वलय कम होकर कितना योजन विस्तार है वह इस प्रकार है नरक पृथ्वी नरक के नाम पृथ्वी पिंड धनोदधि धर्मा वंशा शैला अंजना रिष्टा रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुका प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा तमः प्रभा तमस्तमः रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुका प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा तमः प्रभा मधा माघवती तमस्तमः ९६) नरक पृथ्वी की धनोदधि आदि तीनो वलयो का विस्तार नरक पृथ्वी धनोदधि धनवात तनवात नरकपृथ्वी नरकावास प्रसार यो गाउ योजन योजन गाउ पृथ्वी धनोदधि योजन / गाउ ६ 9,40,000, 20,000 १,३२,०००, 9,22,000 9,20,000 १,१८,००० १,१६,००० 9,02,000 सीमंतक से लेकर अप्रतिष्ठान तक (४९) इन्द्रक नरकावास है। ६.२५१/३ ६.५२/३ ما धनवात योजन ४.५ ४.७५ ५ ५.५ ७.२५१/३ ५.५ ७.५२/३ ५.७५ ६ तनवात योजन / गाउ धनवात १.५ १.५१/३ १.२५१/३ १.७५ १.७५१/३ १.७५२/३ २ नरक पृथ्वी योजन / गाउ १२ १२.५२/३ १३.२५१/३ तनवात १४ १४.५२/३ १५.२५१/३ नरकवासा ३० लाख २५ लाख १५ लाख १० लाख ३ लाख ९९,९९५ आकाश ५ प्रतर १३ ११ ९ ما ८ १६ ९७) सातों पृथ्वी के आवलिकागत नरकवासा और पुष्पावर्कीण नरकावासा सातों पृथ्वी मिलाकर आवलिका गत नरकावासा छनुंसोत्रेपन है और बाकी (पुष्पावकीर्ण) नरकावासा त्र्यांसी लाख नब्बे हजार तीनस सुडतालीस (८३,९०, ३४७) है । ५ ३ १ विवेचन : सर्व इन्द्रक नरकावास गोल है। उसके बाद चार दिशा और विदिश में रहे आवलिकागत नरकावास अनुक्रम से त्रिखुणा (त्रिकोण), चोखुणा (चोरस) और वाटला है। एसा आवलिका के अंत तक है। पुष्पावकीर्ण नरकावास अलग अलग आकार से है। वे सब नरकावास अंदर से गोल, बाहर से चोरस और नीचे से उस्तरे की धार की तरह है। जिसके उपर पाँव से चलने से अति वेदना होती है। नारकी के जीव पराधीन है, और वहाँ दुःख ही सहने का है । वहाँ कुछ भी शुभ नहीं है जिससे लूटने का मन हो। इसलिये इंद्रादि की व्यवस्था नहीं है। विमान के मालिक की तरह यहाँ हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (62) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकावास का कोई मालिक नहीं होता । (अशुभ होने से) जैसे गंदे जीर्णशीर्ण वस्त्र के टुकडे का कोई मालिक होना नहीं चाहता। सातो नरक को नरकावासा की कुल संख्या का यंत्र पृथ्वी के नाम गोल | त्रिखुणांचोखुणां । पंक्तिगत | पुष्पावकीर्ण कुल नरकावास रत्नप्रभा १४५३ १५०८ १४७२ ४४३३ २९,९५,५६७ ३०,00,000 शर्कराप्रभा (២។ ९२४ ८९६ २६९५ २४,९७,३०५ २५,00,000 वालुका प्रभा 8២២ ५२६ ४९२ १४८५ १४,९८,५१५ १५,00,000 पंक प्रभा २२३ २५२ ੨੩੧ ២០២ ९,९९,९९३ 90,00,000 धूम प्रभा ९९ 900 ८८ २,९९,७३५ ३,00,000 तम:प्रभा 20 २० tu ९९,९३२ ९९,९९५ तमस्तमः ३१२१ ३३३२ ३२०० ९६५३ ८३,९०,३४७ ८४,00,000 ९८) नरकावास की उँचाई, चौडाई और लंबाई - शब्दार्थ : सर्व नरकावासो तीन हजार योजन ऊँचा और संख्याता या असंख्याता योजन चौडाई और लंबाईवाले है। (इन्द्रक नरकावासो) ४१ लाख योजन का और अप्रतिष्ठान (इंद्रक नरकावासो) १लाख योजन लंबा चौडा है। विवेचन : नरकावासी की पीठ (नीचे का भाग), मध्य भाग और स्तूपिका (शिखर) ये तीनो एक एक हजार योजन होने से सभी नरकावासी ३ हजार योजन उँचे है। अप्रतिष्ठान नरकावासी की पूर्व दिशामें काल, पश्चिम दिशा में महाकाल, दक्षिण दिशामें रोचक उत्तर दिशा में महारोचक ये चारों नरकावासी की लंबाई, चौडाई और परिघ असंख्याता क्रोडाक्रोडी योजनकी जानो। सातों नरक पृथ्वी के विषय में नरकावास रहित क्षेत्र : शब्दार्थ : छ: पृथ्वी के नीचे और उपर एक हजार योजन और आखरी पृथ्वी साढी बावन हजार योजन नरकावास रहित (क्षेत्र) है। बाकी सर्व पृथ्वीओं में नरकावास है। रत्नप्रभा : पृथ्वी का पिंड १ लाख ८० हजार योजन का है। उसें से दो हजार योजन कम करते १ लाख ७८ हजार योजन रहेंगे । रत्नप्रभा को तेर प्रस्तर है वे हर एक प्रस्तर ३ हजार योजन ऊँचा है। इस तरह १३ प्रस्तर के ३९ हजार योजन होते है। उसमें से १ लाख ३९ हजार योजन बाकी रहे। इसे १३ प्रस्तर के बीच के १२ अंतरे में भाग करते ११५८३११३ योजन आता है। यह अंतर रत्नप्रभा के हर एक प्रस्तर के बीच होता है। (63) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृथ्वीना रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुका प्रभा नरक पृथ्वी के पिंड के आंतरा की गिनती का यंत्र पृथ्वीपिंड | उपर नीचे की शेष योजन | प्रतरगुणित | आतंरा की | आंतरा | सभी पृथ्वी के पृथ्वी के | नरकावासना | पृथ्वी । प्रतर के आंतरा योजना योजन का प्रमाण १८0000 २००० १७८000 ३९000 १३९000 | १२ ११५८३ १/३ योजन १३२००० २000 १३0000 ३३000 S७000 | १० 5000 योजन १२८000 2000 १२६000 २७000 ९९000 १२३७५ योजन १२0000 २000 ११८000 २१000 ९७000 १६१५५२/३ योजन ११८000 २000 ११६000 १५००० १०१000 २५२५० योजन ११६000 2000 ११४000 5000 १०५000 ५२५०० योजन १०८000 १०५000 | ३000 ३००० पंक प्रभा धूम प्रभा तम:प्रभा तमस्तमः सातो नरक पृथ्वी में नारकी के शरीर का उत्कृष्ट प्रमाण। विवेचन : रत्नप्रभा में ७१११ धनुष और ६ अंगुली शर्कराप्रभा में १५११ धनुष और १९ अंगुली वालुकाप्रभा में ३११ धनुष, पंकप्रभा में ९२११ धनुष, धुमप्रभा १९५ धनुष, तम:प्रभा में २५० धनुष, तमस्तमः प्रभा में ५00 धनुष उत्कृष्ट देहमान है।, २४ उंगली - १ हाथ, ४ हाथ - १ धनुष ___१००) कौन से कारणों से जीव नरक आयु बांधे? १. मिथ्यादृष्टि २. महारंभी ३. परिग्रही ४. तीव्र क्रोधी ५. शीलरहित ६. पाप की बुद्धिवाला ७. रौद्र परिणामी जीव नरकायु बाँधता है। १०१) सातो नरक पृथ्वी के नारकी का शरीर, विरहकाल, उपतात संख्या, च्यवन संख्या और गति आगति का यंत्र : शब्दार्थ : असंज्ञी (पर्याप्ता तिर्यंच), गर्भज, भूज, परिसर्प, पक्षी, सिंह, सर्प और स्त्री अनुक्रमे से छट्ठी नरक पृथ्वी तक ही उत्कृष्ट से उत्पन्न होते है। _ विवेचन : असंज्ञी अपर्याप्ता मनुष्य और तिर्यंच नरकायु बांधे नहि । असंज्ञी पर्याप्ता तिर्यंच अगर नरकायु बाँधे तो प्रथम नरक में जधन्य से १० हजार वर्ष और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्याता भाग जितना आयुष्य प्राप्त करता है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (64) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके भिप्राया.... प.पू. परमोपकारी... परमकृपाळु... वात्सल्यमूर्ति... पू. ग. श्री विमलप्रभविजयजी म. साहेब तथा प.पू. विनयविजयजी म. साहेबना पुनित चरणारविंदे... अमदावादथी ली। आपनी कृपेच्छु सा. प्रफुल्लप्रभाश्री आदिनी अगणित वंदना सह, आप पूज्यौनां पुनित देहे निरामयता वर्तती हशेजी। स्वास्थ्य । आप बंनेना संयमाराध्य हशेजी। आप पूज्योनी कृपाथी अमो सर्वे शातामां छीओजी। वि. आपे मोकलावेल हे प्रभुजी! नहिं जाऊँ नरक मोझार' अ पुस्तक मळ्यु... तथा शिबिरनी पत्रिका पण मळी छेजी। पुस्तकनुं तो मुखपृष्ठ ज अटलुं आकर्षक छे के जोईने तुरंत खोलीने वांचवानुं मन थाय पुस्तकमां पण आपे विषयो थोडां हळवा-थोडां भारे अने वच्चे कथाओ... वि. लईने अवं सुंदर संकलन कर्यु छ के... वांचनार जरा पण बोर न थाय । तेनो रस टकी रहे...अने तेने घj घणुंजाणवा-समजवा मळी रहे। आपे अमने याद करी पुस्तक मोकलाटयुं । ते आपनो मोटो उपकार...! द.सा. प्रियंवदाश्रीनी भावभरी वंदनावली जेतुं छे । नारकीय यातनाओनुं वर्णन वाचता अक वार तो है\ हलबली उठ्या विना नहिं रहे। अमां पण चित्रोनुं माध्यम भळे, पछी तो अनी असरकारकता अनेकगणी वधी गया विना रहे खरी ? नारकीय यातनाओनी सर्वांगीण व्यथा-कथा जाणवी होय, तेमज नरकना कारणो-वारणोथी माहितगार बनवू होय, तो आ प्रकाशन वांचईं अने वसावतुं ज रह्यं । “ “हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” आ सज्झाय कडी आपणे गाइअ छीओ तो अकवार, पण अ गानमां दिलनुं दर्द उमेर होय तो, आ पुस्तक वहेली तके हाथमा लेवू ज रह्यु... A कल्याणथी उधृत - पू.आ. श्री पूर्णचन्द्रसूरि म.सा. "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँनरक मोझार” “नारकी चित्रावली' आदि अनेक पुस्तको नरकनी भयंकरता समजवा, समजाववा माटे उपयोगीथाय अवाछे। अबधा प्रश्नोने नजर समक्ष राखीने मोटी साइझमा सविस्तर-सचित्र प्रकाशित छेल्लामां छेल्ला प्रकाशन अटले ज "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आकर्षक रूप-रंग-साइझमां प्रकाशित आ पुस्तक नाना मोटा ९०५ शीर्षक, पेटाशीर्षक धरावे छे । आमां अनेक चित्रो द्वारा लेखन समजण अने सचोट बनाववानो पुण्य-प्रयास थयो छे। सात नारकी अंगेनी नानी मोटीलगभग तमाम समजण सुंदर शैलीमां आपवामां आवी छे। अनेकानेक शास्त्रीय दृष्टांतो रजु करवा पूर्वक लखाणने वधु रोमांचक अने असरकारक बनाववानो प्रयास थयो होवाथी आ प्रकाशन खरेखर अकवार तो वाचवा प.पू. गणिवर्य श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. सुखशातापृच्छा-वंदना शातामां हशो। पू. गुरुदेवश्री शातामा छ। वि । आपश्री द्वारा लिखित "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” खरेवर ! चिंतनात्मक, प्रेरणात्मक अने परलोकनी दुर्गति प्रत्ये जागृत करवामां निमित्तरुप छ । वर्तमानमां पापोनो कोई पार नथी कारण के जीवोने दुर्गतिनी भयानकतानो स्टयाल, विचार नथी। आ पुस्तक जोया-वांचन पछी लाग्युं के वांचन-चिंतन पश्वात अनेक जीवोना जीवनमा परिवर्तन थशे । मौज-शोख अने फेशनना व्यसनोमां ग्रस्त आजनी पेढीओने धर्म प्रत्ये श्रद्धा जगाववा माटे आवा पुस्तकनुं आलेखन आवश्यक छ । छतां, पडतो काळ छ। जे पामी जाय ते खरा! आ पुस्तकनी उपलब्ध होय तो ९० कोपी अथवा पांच कोपी तो अवश्य मोकलशो, जरूर छ । शेषानंद छ। cal मु. निपुणरत्नविजय (बेंगलोर) (65) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानादिगुणोपेत पू. गणिवर्य श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. सादर अनुवंदना.... 6 आपना द्वारा संपादित "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तक प्राप्त धनुं । आफ्नो आ प्रयास अनुमोदनीय छे । बस अज । लि. पूज्य श्रीनी आज्ञाथी विश्वचंद्रविजय.... - आ पुस्तक ममण शेठनी सजा नारकीना अनेक प्रकारीनी माहिती मळी | पहेली नरक रत्न प्रभा, बीजी नरक शर्करा प्रभा आम सात नरकनुं जाणवा मळ्युं । अनेक प्रकारनी कथा दृष्टांतसाक्षत जाणवा मळी । लि. प्रविणाबेन सुखलाल शेठ (भांडुप) आ पुस्तकनी परीक्षा आपी । तेमां अमोने नारकी पुस्तक वांचीने पाप नहिं करवा जोईओ अने थई गया होय तो प्रतिक्रमण करीने मिच्छामि दुक्कडम् (माफी) मांगी लेवी जोईओ, अवं जाणवा मळ्युं । गुरु पासे आलोचना लई लेवी जोईओ । लि. प्रफुल्ला अरविन्दकुमार वखारिया (बोरीवली-ईस्ट) I आ पुस्तकमां नरकमां के जवाब है अने करवाथी जवाय छे ? तेनुं आलेखन छे । साते नरको कई कई छे अने त्यां परमा धामीओ शुं दुःख आपे छे ? ते जाणवा मळे हे आपणे जरा सामान्य पण जूटुं बोलीओ तो कैटलुं पाप छे ? ते खबर पडे है। भगवान महावीर, श्रेणिक महाराजा भलभला पुण्यात्माओने पण नरकमां जयुं पडधुं छे तो आपणे विसातमां ? ज्यारथी आपणने खबर पडी त्यारथी आपणे चेती जवुं जोईओ पूर्वभवमां करेला कर्मो भोगना पडे छे ते जाणवा मळे छे। त्यां असंख्य वेदना सहन ती नथी ते बधुं जाणीने आपणे चेतीने रहे जोई अ । माटे आपणे धर्म करवो जोईओ । लि. प्रतीमाबेन विजयकुमार शाह (विरार) मैने जैसे यह पुस्तक नाम सुना तो विचार आया कि सचमुच हम जो दावानल जैसे संसार पडे है, वो सचमुच कितना भयानक है ? परंतु हम कितने स्वार्थी हैं के कभी यह नहीं छोडने का सोचते है । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (66) I आ मानव जन्म मने घणा पुण्यधी मळ्यो छे तेमां जैन कुळमां मारो जन्म थयो तेथी मने धर्म करवाथी घणुं ज्ञान मळ्युं अने नरकजी आ बुक वांचवाथी मार्ग रुवांटा खड़ां थई गया के माराथी आटलं बधुं पाप थयुं ? मारो आ जीव कई दुर्गतिमां ज १ कोने खबर, पण आ बुक वांचवाथी मारा जीवनमां घणा फेरफार आव्या है अने मारा बालकौमां पण सारा संस्कार आपी शकीश अने आ नरकनी बुक बतावी तैर्माांना नरकना फोटा बतादवाची तेमने पण खबर पढे तेथी तैओ धर्म करवा लागे T जेथी नरकमां न जवा माटे ते बने त्यां सुधी जीवनमां परिवर्तन लावी शके । रात्रे खावामां जे पाप छे । ते बंध करावीश आ अमूल्य मनुष्य जीव मळ्यो छे, तो धर्म करी जीवन सुधारी लेवाय । "है प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" अ पुस्तकमांथी मने घणुं ज्ञानमळ् छे । लि. हिना देवेन्द्र कोठारी (भावनगर) 6 "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" मां नरकमां जीवोनी शी परिस्थिति छे ? तेनुं आपणी समक्ष दुःखद अने ना जोयेलुं, ना सांभळेलुं वर्णन छे । पापकर्मथी बचीओ, प्रभुथी डरीने जो कोइ पण काम करीभुं तो बटे बीजुं कांइ नहिं पण नरकनी ओछामां ओछी वेदना सहन करवी पडशे । रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन, बोळ अथाणुं अने १८ पाप स्थानकमांधी बचीने बनी शके तेटली आत्माने शुद्ध अने निर्मळ बनाववी जीइओ तो ज आ पापमांथी बची जईशुं । हे, जीव हजु मोडुं थयुं नथी माटे के तुं जागी जा अने आत्माने उजवळ बनाव अने माटे हे जीव पापकर्मधी दूर रहे। प्रतिक्रमण करीने पापनुं प्रायश्वित कर । करेला पापनी गुरु पासै आलोचना कर अने प्रभु परमात्मा पास आत्मानी साक्षीओ पश्चाताप कर अ ज आ पुस्तकनो अने परीक्षानो मर्म छे । 9 आ अक्झाम आपी अमने घणुं गम्युं । आ उपरथी अमने घणुं घणुं जाणवा मधुं । जे कर्मों पाप अमे करतां हतां के अमाराथी थतां तां ते आ पुस्तक वांचवायी घणा मोटा भागे ओछा थशे आ पुस्तक वांच्या पछी अमने घणुं बधुं जाणवा मन्युं छे के करेला कर्मों अहीं ज भोगववाना छे अने जे न भोगवाय ते... नरकनुं पुस्तक बांची अमोने अवो अनुभव थयो के अमो जे अठार पापस्थानकमांथी पाप करतां पाठां हठी मी अने तेना प्रायश्वित द्वारा पापने खपावीओ छीओ अने नरकना चित्रो द्वारा अमारा अंतरने भीनुं करी दे छे। अने तेना द्वारा अमोने विचार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवे छे के त्यां केवा परमाधामीओ अमोने आवीने केवी क्रूरता पूर्वक अमोने मारशे, उछाडशे अने दुःखो आपशे । अमाराथी सहन नहीं थाय। जेथी आ बुक वांची अमारा अंदरना रहेला कर्मोन प्रायश्वित द्वारा खपावीशुं अने महाराज साहेब पासे तेनुं प्रायश्वित लईशं। भावनाबेन कमलेशकुमार शाह (भायंदर) आ पुस्तक वांचनथी संसार प्रत्ये वैराग्य थाय छे । नरक विशेनुं विस्तृत वर्णन यांच्यु । सरलाबेन हरखचंद गांधी (कीका स्ट्रीट, गुलालवाडी) मने सारा अनुभव थाय छ, अक नानी कीडीनी पण हिंसा थाय तो पग धुजी उठे छ । प्रमाद करवानुं मन नथी थतुं । आ बुक वांचीने दीक्षा लेवानुं मन थाय। दीक्षा उदयमां आवे ते माटे चारित्र मोहनीय कर्मनो १७ लोगस्सनो काउस्सग्ग चालु कर्यो छे। जेथी आ पापमय संसारमाथी जल्दी मुक्त थई शकुं। नरकना दुःखनी वेदना भारी । आ बुक वांच्या पछी आपणा जीवनमा अटलुं ध्यान राखी शकाय के आपणेजे डगले ने पगले विराधना, जूठ, खाणा-पीणां वगैरे वापरीये छे ते बधु आपणा जीवनमा केटलुं हानीकारक छ । सात नरकमांथी आपणे बचवा माटे प्रयत्न करवो जोई। पहेलानां करेला कर्मो भले आपणे मीटावी नथी शकता पण हवे जे कर्मो आपणे करीअ छीओ, करवाना छीतेने तो संभाळी करवा जोई। लि.संगीताबेन नवीनभाईगाला मने अम अनुभव थाय छे के वहेलीमां वहेली तके पापने तिलांजली आपी मोक्षस्थाननी प्राप्ति करी लउँ । आ पुस्तकमां जे वर्णन पूज्यश्रीओ कर्यु छ अ हृदयने द्रवित करी दे अई छ । मारा जीवनमां रात्रिभोजन बंध थईजाय अने सौंदर्य प्रसाधनोनो उपयोग बंध थई जाय । अवो हुँ प्रयत्न जीवदया करवा इच्छु छु के बहु मोडुन थई जाय ओ पहेला जागी जाऊँ। लि. अमीबेन जसवंतभाई शाह (मलाड) आ पुस्तकनी अॅक्झाम आपदा द्वारा अमने नरक, नारकी, नरकमां पडता दुःखो विशे खूब जाणवा मळ्युं छे। नानामां नानी क्रिया के जेमा सूक्ष्म पाप होय तेनी पण वेदना केवी भोगववी पडे छे, ते बताट्युं छे। खरेखर, आ पुस्तक वाचनथी नानु पाप करतां पण जीव अचकाय छ । पापथी बची शकाय छ । आ पुस्तक खूब उपयोगी छे। रीटाबेन वालजीभाई देढिया (मलाड-ईस्ट) आ पुस्तक मेळवी आ जीव नारकीना दुःखो अने हयातीनो अनुभव करी पापकर्मथी दूर थई पोताना आत्मानो उद्धार करवा उधम करशे। जीवनमां थता पळ-पळनां पाप कार्यने ओछां करी तप अने संयमना कष्टने सहन करी नरकनां महादुःखोने भोगववाथी बची जशे । तीर्थंकर परमात्मा, चक्रवर्ती, वासुदेव, तीर्थंकर बननार जीवोने जो कर्मसत्ता नरके मोकली शकती होय तो आ संसारमा रहेल जीवनुं शुंगजुं ? करेला पापनी आलोचना करी जीव मोक्षे जवा तत्पर बनशे । नारकनां मुख्य चार द्वार छ । रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन, बोळ अथाj, अनंतकाय भक्षण अग्निस्नान करी मृत्यु पामे ते जीव नरकमां उत्पन्न थाय छे । मांस, मद्य, मंदिरानुं भक्षण करनार नरकना द्वार छ । नारकना जीवो अनंत वेदना भोगवे छे। जेनी आपणे तुलना न करी शकीओ। सात नरकीना जीवोने अनंत वेदना, दुःखो, पीडा थाय छ । गर्भपात करवाथी नरकना द्वार सुधी पहुंचे छ । मुनि श्री विमलप्रभविजयजीओ अमने “हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” आ बुकथी अमने घणुं ज्ञान आप्युं छे। आचरणमां लेवा जेवं छे। लि. वर्षा के. गांधी (सुभाषनगर) "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” पुस्तक घणुं नजीकथी वांच्युं । नजर समक्ष जीवनमा अत्यार सुधी करेला पाप आटया ने तेना फळस्वरूपे जाणे साक्षात नरक उपस्थित थई गयुं । जाणे अजाणे अत्यार सुधी घणां पाप कर्यां । अणसमजमां करेला नाना पाप पण घणी वखत केवी भयंकर सजाओ आपे छे। तेनी समज तो आ पुस्तक वांच्या पछी ज थई छ । नरकनुं साचुं स्वरूप आटला नजीकथी पण प्रथमवार ज निहाळ्यु। अत्यार सुधी करेला पापोथी अटकवानो प्रयत्न करतो, अज जाणे आ पुस्तक संदेश आपी रा छ । ने अमां आपेला आ उपदेशथी जीवनमां घणो-घणो फेरफार पण थई रह्यो छे। साचे ज आ प्रमाणे साचा मार्गे चाली पापनो रस्तो छोडी परमात्माने जाणे हुँ पण कहुं हुं हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार”। (67) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पुस्तकनी ओक्झाम आपीने अमे आ जीवनमा मळेलो जीव कदाच घोर पाप करतां बची जशे अवुं लागे छे । कारण के आ. अनुभवमारी जिंदगीजो प्रथम सुखनो अनुभव है। जो कदाच १०० टकामांची पण १ टको पण मारा जीवनमां उतरशे तो हुं कदाच घणां स्वरां पापनी झंझाळोमांधी मुक्त धई जईश । खरेवर, आ अक्झाम मारा जीवननी प्रेरणा है तैनाथी हुं धार्मिक प्रवृतिमां आगळ वधीश अने जे मारा संपर्कमां आवशे तेने पण हूं अवी ज सलाह आपी के आपणी जैन धर्ममां आवेलो जीव पोताना आत्माथी पोताना जीवनी कल्याण करी शके है। जो तेनुं ऊँडुं वांचन करयुं होय तो तेनी माटे छे। आ पुस्तक मने अम लागे छे जेणे पण आ पुस्तक वांच्चुं हशे तो ते हवे प्रभुजीने ओवी याचना करतां हशे । "हो प्रभुजी नहिं आयुं, नहिं आयुं, आ. दुःखभर्या, संसारनी झंझाळमां" आ पुस्तक वांचवाथी अमने नरकजी प्रत्ये अटलुं बधुं जाणवा मळ् के अमे कई शकी ओ ओम नथी । केम के संसारमां डगले अने पगले अमे पाप कर्या ज करीओ छीओ, पण आ पुस्तकथी बधा पापनी विगत अटले क्या पाप करवाथी कइ नरक जवाय ? पहेलां अमने नरकनो अटलो भय न हतो, पण पुस्तकना विवेचन अने वाचनथी अमारा कवाडां उभा थइ जाय छे। अमने खबर हती के नरक छे पण ओटले असह्य दुःख, वेदना, भूख, अटली यातना अरर! साचे ज हमणांथी चेतयुं बहु जरुरी छे अने धर्म विना जीवनमा कोइ सार नथी। आ नरकनी पुस्तकमां कांइ पण अतुं नथी के बाकी रही गयुं बधुं ज आवी गयुं । अ पुस्तक वांचन करवाथी मने पाप करतां बहु डर लागी । अनुं अभिप्राय अछे के आपणे हसता हसतां करेला कर्मो बांध्या ते आपणने भोगववा ज पडशे । ओटले जीव पाप करतां अटक... अटक... अटक... अटक... आ पुस्तकजी अक्झाम आपी अमने वा खराब विचारों आवे छे के आपणे डगले ने पगले आ भवमां अनंतानंत पाप बांधी रह्या छीओ । १८ पाप स्थानक सेवी रह्या छीओ । हुं आपनी समक्ष अकरार करं धुंके में पोते गर्भपात कराव्यों से जेतुं मने खूब ज. दुःख छे अने हुं तेनो अंतःकरणपूर्वक पश्चाताप करं छं । हे प्रभु! हुं पापनो बंध नबळो करीने मनुष्य भव मळ्यो छे ते सार्थक करं ते माटे निर्मळ चारित्र मळे ने परंपराओ मोक्ष सुखने पामुं तेवी आप पासै प्रार्थना... समक्ष ओक बहेन (कांदीवली) हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (68) आ पुस्तकनी अक्झाम आपी पण तेमां जाणवा घणुं मळयुं छे। क्या पाप करवाथी केवो कर्म बंधाय छे ? तेनी जाण अने अ पाप करतां बहु डर लागे छे ओवा पाप जीवनमां न धाय तेनुं 1 खास ध्यान रखाय । भले परीक्षामां जेटला पण मार्क्स आवे पण तैनाथी अमने जाणवा घणुं मधुं छे। नरक वर्णन सांभळ्या बाद नरकनुं श्रद्धा पैदा थाय तो जीवन परिवर्तन थया विना रहे नहीं । गीताबेन प्रकाशभाई शाह (७मी खेतवाडी) आ पुस्तक वांचवाथी शरीरनां तमाम कवाडा खडां थई जाय । मन इचमची जाय छे। क्यारेय रात्रि भोजन न कस्युं अ निर्णय नक्की थइ जाय छे । क्यारेय आवा पाप न करवां । हृदय परिवर्तन थया वगर रहेतुं नथी । पाप करता अटकीओ छीओ । मनमां पाप करतां खचकाट नथी तो नरकमां हमेशा भूख, तरस, दुःख, सहन कइ रीते थशे ? परमा धामी देवी खूब ज दुःख आपसे हवे थुं करयुं ? छतां मोहमाया, राग, द्वेष परिग्रह कंइ ज छूटतुं नथी । बधुं मारं मारं थाय छे। आ पुस्तकजी अॅक्झाम आपी त्यार बाद धणुं बधुं जाणवा अने जीवनमां उतारवा मळ्युं छे। आ पुस्तक वांच्या बाद ख्याल आव्यो अरे नारकीमां आटला दुःखो छे ? अने आटलां पाप छे ? अने आ पुस्तक वांच्या बाद घणा बधां पापमांशी घणा पाप करतां अटक्या । नारकी विशे जाणवा मळ्युं । आबुक यांच्या बाद साधुं के दरेकना घरमा जरुरथी आ बुक होबी ज जोइ । हीरलबेन प्रदीपभाई शाह (गोपालवाडी) नारकीनुं जे वर्णन आ पुस्तकमां आप्युं छे ते यांचीने खरेवर शरीरमा रुवाटां उभा धई जाय छे। जे आपणने मनुष्य गति मळी छे, तेमां खरेवर जे पापो बांधवाना स्थानको छे ते छोडी देवा जोइ । गर्भपात जी लौकी करावता हीच तो अटकावना जोइ । नरकादी दुगर्तिमां लइ जनार व्यसनो जेवा के धुम्रपान, ड्रग्स, टीवी। मांसाहार, परस्त्रीगमन, गर्भपात, जुगार, चौरी आ बधा व्यसनोथी दूर रहेवुं जोइओ । तेमां जे रात्रिभोजन सर्वथा त्याग करवा जेवो छे । परमाधामि जे नरकना जीवोने त्रास आपे छे ते जोड़ने संसार प्रत्ये अवश्य वैराग्य उत्पन्न थाय । वसु भुपेन्द्रकुमार मेहता (मीरा रोड ईस्ट) Papesth - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादवशथी अवा जाणी जोइने कर्म बांधीओछीअॅ "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” | आवा दुःख माराथी सहन नहीं थाय शुं कहुँ खरेखर केवी रीते समभाव रहेशे तेनाथी हुँ ड्रुं हुं । जिनआज्ञा विरुद्ध लवायुं होय तो मिच्छामि दुक्कडम् । जवेरबेन भगवानजी मेंकणा (अंधेरी) आ पुस्तक वांच्या पछी कोइ पण पाप-कर्म करीअ त्यारे नारकीना चित्रो नजर सामे आववा मांडे छ। अने हृदयमांगभराट उत्पन्न थाय छे। अने पाप-कर्म करवां जतां अटकी जइओछीओ अने कदाच संसारमा रहीने पाप-कर्म करयां पडे तो हृदयमां उल्लासे करता नथी पण हवे उदासीनपणे करवा पडे ते खातर करवानां अवं थइ जाय छे । अ अढार पापस्थानक पण दिवस दरम्यान सेवाइ गया होय तो राउने प्रतिक्रमणमां याद करीने पश्चाताप लेवानुं मन थाय छे । पहेला तो प्रतिक्रमणमा कंटाळो आवतो हतो, पण हवे नरक सामे देखाय अटले मोज-मझा छोडीने भगवाने बतावेल आवश्यक करवानुं मन थाय छे। अक क्षणनी मझामां अनंतो काळ दुःख सहेवू नथी माटे “हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार"। लि. चेतनाबेन सुरेशभाई पटवा (दादर) १) चारे गतिमाथी भयंकर गति नारकी छे। २) नरकनुं दुःख जोया पछी खोटुं काम नहीं करवातुं मन थाय छ। ३) नारकीनी चित्रावली जोइने माणस खोटुं काम नहीं करवानुं अने सज्जन बनवानुं शीखे छ। ४) नारकीनी चित्रावली जोइने जीवन सदाचारी बने छ। ५) नरकनी अंदर आर्यु भयंकर दुःख जोइने जीव धर्म मार्गे वळवानो निश्वय करे छ। ६) जीवनमां संस्कार सारा पडे छे। ७) जीवनमा पाप करतां अटके छे । ८) जीवन सन्मार्गे चढे छ। ९) नारकीनुं पुस्तक जोइने लालचोळ पुढं जोइने अंदर अग्निमय जीवन छ। १०) जे दुःख कोइ जग्याजोवा मळतुंनथी तेयं दुःख नरकमां आ पुस्तकनी अक्झाम माटे तैयारी करवा माटे ज्यारे पुस्तक वांचती हती त्यारे नरकनां द्रश्यो खडा थता हता। दरेक डगले ने पगले दरेक जीवोने खमाववानी इच्छा जागी अने मन कहेतुं हतुं के अनंता भवोथी करतां आवेला पापथी आ जीव क्यारे मुक्त थशे? शाकभाजी सुधारता, भरत गुंथण करतां, दरेक कार्य करता बस नकरर्नु दुःख याद आवतुं हतुं । हवे डगले अने पगले बस नवकार गणवो अने खामेमि सव्व जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे। मित्ति में सव्व भूसु वैरं मज्झा केणई॥ जेवू थइ गयुं छे । हे प्रभु ! अनंत भवथी, अनंता जीयो अने अनंता पापोनी हुँ डगले अने पगले त्रणेय काळ (भूत-वर्तमान अने भविष्य) ना त्रिविधे-त्रिविधे मिच्छामि टुक्कडम् । ११) नरकनुं दुःख जोड्ने आवू असा दुःख ज्यां कोइनु कोड़ नथी। ज्यां असह्य दुःख छ । ज्यां आढुं गगन चिचियारी राडाराडथी भरेल छे। सुखनुं नामोनिशान नथी । भावना पंकजकुमार चोक्सी आ पुस्तक वांचीने खरेखर नारकीनु जे वर्णन वांच्युं स्वरेखर ध्रुजारी छूटी जाय छे । केवी कर्मसत्ता के कोईने छोडती नथी हसता हसतां कर्म बांधेला रडतां पण नहीं छूटे, केवी हालत छे के जे नरकना जीवोनी त्राहिमाम पोकारे छे, पण त्यां कोई ज छोडावनाएं पण नथी । त्यांनुं वातावरण पण केयु भयानक छ के जोतां आपणे डरी जइओ । अमे हमणा नारकीर्नु अमारा उपाश्रयमा आबेहूब वर्णन बताटयुं आ पुस्तक द्वारा अमे कर्यु हतुं । केवी चीसाचीस ! बुमाबुम ! नाना बाळको डरी जाय । वांचीने खूबज लाग्युं त्यां पाणी पण नहीं पीवा मळे आवा जालीम दुःख छे। शं थशे मारी हालत ? अहीं मौज मजामां केवा कर्म बांधी लइ छीओ हसता हसतां, पछी राडो पाडता पण त्यां नहीं छुटे शंकरशं? कर्मनी गति न्यारी छे कर्मसत्ता पासे कांइज चालवान नथी पण मनने समजाववानुं छे । कषायथी दूर रहेवार्नु छ । आ पुस्तक वाचवाथी आनंद अने दुःख बनेनी अनुभूति थइ | आ पहेला घणां पाप थयां हता। तेनं प्रायश्वित करवानी तक मळी । तप, जप, धर्मथी घणां पाप ओछां थाय छे, तेवी समज आवी। आ पुस्तक वांचीने हृदय द्रवी गयुं, तेवी लागणी थइ । हवे पाप न थाय अनुं ध्यान राखवानी समज आवी | जो पाप चालु राखवामां आवशे तो नरकमां वर्णवी न शकाय तेटलुंदःख भोगववं पडशे । माटे आ क्षणथी ज चेती जाओ । जेथी नरकनां दुःख भोगववा न पडे। ज्योत्सना (प्रार्थना समाज) आ पुस्तकनुं वांचन करवाथी खरेखर नरक छे तेवो द्रढ विश्वास बेठो छे । अने अक अक काम करीअ त्यारे पापनां फळनां जे विचारो आटया करे छे । डगले ने पगले पाप करता (69) है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतां नरकमां] केवी रीते भोगवा पडशे ते दुःख धाच छे तेम ज पाप औछां धया से अने हजु पण वशे कैम के अक महिनाथी पुस्तक वांचीओ तो आंखे आंसु आवी जाय छे। अने पाप करयुं ज पडे छे, तो तेनुं दुःख पण बहु ज थाय छे। पापने करतां होइओ त्यारे पापना विचारो आवे छे अने पाप न थाय ते माटे सारी सारी भावनाओ भावीओ छीओ । तेने अटकाववा धर्म ध्यान करीअ छीओ अने पापना अढारस्थानकोने समजीने तेने ओछो करवा अमुक नियमो करीओ छी जे अने उत्तरोत्तर पाप अटके अने पुण्य वधु करशुं । ज्योतिबेन बळवंतराय महेता (मलाड) T आ पुस्तकजी अक्झराम आपवानी हती अॅटले काले राजे वांचती हती। हुं रात्रिभोजन कहुं हुं, पण हवेधी बने त्यां सुधी रात्रिभोजन नहीं ज कटुं ओम नियम लीधो । काले राये घरे महेमान आव्या शुं बनाएं अम बे बार पूछ अने पछी ना पाडी तो मने पण जैम धयुं के मारे पण बनावदुं नथी मारे पण पापमां पडवुं नथी के तेमने पाडवा पण नथी, अने आखो दिवस सतत रटण चाल्या करे छे । “हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" । मीना पंकज संघवी (विले पार्ले) आ पुस्तकनी अक्झाम आप्या पछी तो रात्रिभोजन तदन बंध करयुं जोइओ अने जूठ प्रपंच, मायाथी दूर रहेवुं जोइअ । खराब आदतोथी दूर रहे जोड़ी दररोज आराधना करवी जोइओ अने नवकार मंत्रनो जाप करवो जरुरी छे । आबुक वांच्या पछी अने तेना चित्रोथी कोइ पण पाप करतां पहेला विचार करवो पडे । आवी प्रेरणा आ पुस्तकमां मळी पुस्तक अतिसुंदर छपायुं छे। धन्य है विमलप्रभ म. सा. ने । प्रवीणचन्द्र नानालाल खंडोर (साउथ वावर) आ बुक वांची साथै ज मनमां अम थाय छे के नारकीमां मारे ज्युं ज नथी। जो अहिंया ज आ संसारमां ज आटलां दुःखो सहन नथी थतां तो नारकीना दुःखतो केटला असहा हशे १ नारकीना दःखी बैठयां करतां तो शरीरने तप, त्याग, जप अने ब्रह्मचर्य पाळीने करी शकीओ। आपणो तप तो अटलो भारे पण नवी के आपणे न करी शकी । भगवाने खूब ज ताकात आपली छे । कांइ ओक-बे उपवास के आयंबिल करवाथी मारा शरीरने नुकशान नहीं धाय हुं मरी तो नहीं जाऊँ ने मार्ट थोडी तप करीने नरकनुं दुःख टाळवं ज जोइओ । आज सुधी जेटलां पाप कर्या ते बहु थचां हवे तो मनमां अक डर बैसी गयी है, जो हुं आम हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (70) करीश तो मारे नरकमां जयं पहले आ कांड पण काम करतां विचार आवे छे। खरेखर, नरकमां जवुं जहु ज वेदनीय छे । माटे "हे प्रभुजी मारे नरकमां नधी जादु" । आ नरकजी बुक वांचवाधी मने नरकमां जवाना द्वारा विषे माहिती मळी अने अना विषे मारा मनमां जागृति पण आवी अने मने प्रेरणा पण मळी । पहेलां वडीलो पासेथी सांभळ्युं हतुं के पाप करवाथी नरकमां जवाय पण आजे तो प्रत्यक्ष में मारी आंखोथी जोइ लीधुं के फक्त संसारनी भोगलीलाथी आपणी गति केवी थायो ? हवे हुं तो बधाने आ चार नरकना द्वारा छोडवा माटे पण कही रही हुं। साचे ज आटला जीवोनी हिंसा करीने आपणे नरकमां आटली यातना भोगववी अंना करतां तो संचनपथ स्वीकारो सारौ । मने आ बुक वांचीने खूब ज जाणवा मळ्युं छे अने सर्व त्यागनी पण भावना थइ छे । रेखाबेन सतीशभाई गाला (लोअर परेल) 1 "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तकधी बहु ज्ञान मधुं छे चौरी करवानी नहीं झूठ बोल नहीं, रात्रिभोजन करवानुं नहीं आ ज्ञान मने आव्युं । नरकमां जवाथी केटला दुःख, यातना भोगववा पडे छे, आ मने खबर पडी । कर्मना फल भोगववा पडे छे । अनाथी छूटको नथी । आ मने पुस्तकमांथी शिखवा मळ्युं । आ पुस्तक वाचीने बहु सारा अनुभव थथा कारण के में । आपेली परीक्षा कोड शोख नथी। मने अ मौको मदो पुस्तक वांचवानो ने लखवानो मने थोडं थोडं समजमां आवी गयुं छे । पुस्तक बहु सुंदर है। बाळकोने पण चित्र जोई समजमां आवे छे। मंजुलाबेन महेता मने पुस्तक वांचवानो शोख बहु ज हतो पण कंटाळो आवतो हती। तो पण में जेटला पण पुस्तको वांच्या से अनाथी मने ज्ञान अने मनने शितलता मळी है आ पुस्तक वांचवाथी मारा जीवनमा परिवर्तन थयुं है। जैम रात्रिभोजन त्याग, भगवाननुं मुख-मोढुं जोऊँ पहेला, कंदमूळ त्याग, भगवाननी आंगी वगैरे पुस्तकमां जैवी अवी वाती लखेली है के जे वांचीने डरी जाऊँ। Sprea Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पुस्तक वांच्या पहेला हुँ आ बधी वातोथी अनजान हती के आदुनियामां करेलुं पापचालेछ। अम पापनी दुनियामां केटला आगळ जता रह्या छी । अमने आटलो सरस श्री जैन धर्म मळ्यो छे ते पापोना प्रायश्वित पण 'मिच्छामि टुक्कडम् द्वारा करी शकीले । ज्यां आटलो सरस धर्म मळ्यो छे त्यां आटलु पाप करीओ तो आंखमांथी पाणी आवी जाय, अ कोण पहेलो इन्सान हशे जेणे रात्रिभोजन चालु कर्यु | कोण हशे जे अमने पापना मार्गमां लड़ गयो। हवे तो अटला आगळ जता रह्या छीओ के पाछा आवी जशुं अमना पालन करता पुरी कोशीश करीश के ""हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आ बधाहौशे-होशे अने हसतां-हसतां बांधेला कर्मोनो हिसाब तारे ज चूकते करवो पडशे । अने तेनो हिसाब आ पृथ्वी पर ज नहीं पण कर्मसत्ता ते हिसाब चूकववा नरक पृथ्वी पर धकेली देशे... ! त्यांना सतत त्रास, दुःख अने यातनाओनुं वर्णन श्री सर्वज्ञ परमात्मा शास्त्रोमां वर्णट्युं छे । तेनो यत्किंचित् चितार रजुकरतुं पुस्तक अटले हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आ पुस्तकथी अमने घणुं अभिप्राय मळ्युं । आ पुस्तकथी अमने घणी वातो खबर पडी। अमने खबर पडी के शुं पाप छे ? रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन, बोळ अथाj, अनंतकायभक्षण इत्यादि नरकना मुख्य द्वार छ। अमने खबर पडी के झूठ, चोरी, परिग्रह, मैथून, लोभ, मोह इत्यादि पापछे, पण चोरी तो झूठथी महापाप छ । अमे विमलप्रभविजय म.स.ना आभारी छीओ जेमणे आ बुक लखी अने बधा पापना बारामां बताटयुं । "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" इस पुस्तक में शुभ अशुभ कर्म बंधन का सजीव और आकर्षक वर्णन करते हुअनारकीय कष्टों का चित्रों द्वारा प्रत्यक्ष दिग्दर्शन कराया गया है। मानव जीवन को पापों से बचते रहने और पुण्य उपार्जन कर नरक के कष्टों से दूर रहने के लिये जो गणिवर्यश्रीने प्रयास किया है वह अनुमोदनीय है। जैन समाज के प्रत्येक परिवार में ऐसा उपयोगी पुस्तक रहने से परिवार में पापाचार होने से रुकेगा और धर्म की और विशेष झुकाव बनेगा ! इस पुस्तक का हिन्दी भाषा में भी रुपांतर यदि हो तो विशेष उपयोगीता बढ़ सकती है। ""हे प्रभुजी! नहिं जाऊँनरक मोझार” आ पुस्तक खरेखर आत्माने झंझोरी नावेअकुंछ। पुस्तक वाचता नरक साक्षातकार लागे छे। हसता जे पाप कराय छे ते खरेखर रडतां छुटशे जे पाप करता हता अमां खरेवर हवे बहुज ओछा कराय अने कोइ पण पाप करतां पहेला आ पुस्तक आंखो समक्ष आवी जायजे अज्ञान जीवो छे तेमने ज्ञान पमाडवा माटे आ पुस्तक खुब ज सहायक छे। नाना बाळको पण चित्रो विगैरे जोइने पाप न करवानी प्रतिज्ञा करे छे। बाळको, वृद्धो अने युवानो बधा ज पुस्तक जोड्ने खुश । थाय अने दुःखी थाय के केटला पाप आ जीव वर्तमानमा पलपल, क्षण-क्षण करे छे? अने पुस्तक वांचीने आवी प्रतिज्ञा ले छे “हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” आ पुस्तक खुब ज सुंदर छ । म.सा.ने विनंती छे के आवी पुस्तको अने परीक्षाओ वारंवार लेवामां आवे। साभार स्वीकार "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँनरक मोझार"खरेखर नकर छे? त्यां केवा केवा प्रकारनां दुःखो होय ? नरकमा कोण जाय ? नरकमां न जवू होय तो शुं करवू ? आवी घणी बधी वातो समजावतुं पू.आ. कलापूर्ण सूरिजी म.सा.ना पू.ग । विमलप्रभविजयजी म.सा. लिखित उपरोक्त पुस्तकनुं विमोचन मौन अकादशीना शुभ दिने दादर आराधना भवन जैन संघमा थयेल । रु ७०/- नी किंमत धरावता आ पुस्तकमां १५० आसपास चित्रो छे । जेनी नीचे त्रणे भाषामां सारांश छे । आ पुस्तक खास वसाववा जे छ। जीव पाप करतां जराय अचकातो नथी। आ पुस्तक सारी रीते, सूक्ष्म रीते जाणकारी आपी अमारी उपर खूब उपकार करेलो छ । केटलाक पापोनी जीवनमां जरूर पण नथी होती तो पण जीव पाप करतो रहे छे । अंते अना परिणाम भोगवे छे । पुस्तक वांच्या पछी बधा पाप करता अचकाय। मोटापापर्नु सर्वथा त्याग करवू जोइओ। पुस्तकमां चित्रो होवाथी कोइने पण सारी रीते समझावी शकाय अने अमने पण पापर्नु डर लाग्युं । पू. गुरुवर, मत्थअण वंदामि, सुख-शातामां हशो। किंतूना प्रणाम स्वीकार करशोजी। आपे मने आ काम सौंपीने धन्य कर्यो छे । तेथी तमारो खूब खूब आभार, पण समयसर काम न थवाथी हुँ ‘मिच्छामि टुक्कडम् मांगु र्छ । संसारना कामोमां फसाइने, थोडी आळस राखीने आ काम मोडुं पुरुं कर्यु छे तेथी क्षमा मागुं छु। में आपनी चौपडी मारी माता पासे जोइ हती । पहेला ५-६ पानाज यांच्या हता। सहेज डर लागवाथी यांचन छोडी दीधुं हतुं । (71) है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण तमो से जे काम सोप्युं हतुं तेथी में आ चोपडी लगभग चार वार अक्षरशः वांची छे। शरुमां तो ५-६ पाना ज वंचाता हता । कारण वधारे आगळ वांचवानी ताकात हती नहीं । शरीर, मन, तेम ज आत्मा ध्रुजी उठतां हतां । छेवटे पहेली वार वांचन पुरु थयुं । पछी काम चालु कर्तुं । इच्छतो हतो जेम हुं हली गयो हुं तेम बीजा जे गुजराती यांचीने समजी न शकता होय ते पण आ पुस्तक वांचीने पाप करतां अक वार विचारे । तेज लि. किंतु पू. गणिवर्य श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. मुनि श्री विनयविजयजी म.सा. अनुवंदना सुखशाता परमात्माना अचिंत्य कृपाबळे अत्रे परमानंद छे। आप बधा शातामां हशो ! आजे तमारा बती प्रकाशित धबैल पुस्तक.... ""हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आपणा अनापू. साध्वीजी म. द्वारा जीवा, बांचवा म 'पुस्तकनुं लखाण तद्नुरूप चित्रो, टाइटल, कागळ चरे खूब ज सुंदर छे । " अग्रेना ज्ञानभंडार माटे बे नकल मोकलाववा योग्य करशी । आ. कीर्तिसेनसूरीश्वरजी म. सा. नी अनुवंदना - वंदना.... 66. परम पू. गू. म. गणिवर्य श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. आपश्री सुखशातामा हसी आपनुं पुस्तक "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तक अक्षरशः वांची शरीरना कवाडां खडां थइ जाय छे। साते सात नारकीनुं वर्णन तथा परमधामीनी क्रूरता जोइ... पापोनुं सेवन तथा क्रूरताभर्या पाप हसतां मोढे करतां डर लागे छे | अढारे अढार पापोनुं सेवन आत्माने केवी अधोगतिओ पहोंचाड्या करे छे... खरेखर आपे साक्षात नरकनो चितार आपीने सतत चिंतनना मार्गे जोडावानुं मन थया करे है। पळे-पळे थता आरंभ, समारंभ अने अर्थ वगरनां पापथी पीछेहठ करी बिरती अने सर्ववस्ती स्वीकारखानुं मन थाय छे। परमकृपाळु परमात्माओ प्ररुपेला मार्गे आगळ वधवा आपना आशीर्वादकरुणा वरसे अने चारित्र मोहनीय तूटता सर्व विरती प्राप्त करी मोक्ष मार्गना पथिक बनी ओ अवी आरजू साथै आपश्री ओ लखेलुं आ पुस्तक श्रावक जीवनमां सदायने माटे अविस्मरणीय रहे। चालो आपणे आ पुस्तक वांची पोताना जीवनने नवपल्लित बनावी । शांतीभाई गांधी (मलाड) हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (72) विनयादि गुणोपेत गणिवर्य श्री विमलप्रभविजयजी म.सा. सादर वंदना - सुखशाता सह जणाववानुं के आपश्री द्वारा मोकलेल "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" नामनुं पुस्तक मळ् । अनुक्रमणिका उपरथी लागे है के आपश्री ओ सारी महेनत करीने दृष्टांती वि। मूक्यां है। चित्र करतां लखाण वधारे होवाथी वांचनारने घणी सारी अनुभूति थशे । विशेष आवश्यक निर्दुक्तिनुं काम हजी बौद्ध बाकी से उचारे बहार पडशे त्यारे मोकली आपशुं । बीजुं कोइ पुस्तकोनी जरूर होय तो विना संकोच जणावशोजी । लि. मुनि रत्नत्रय म.सा. शासनप्रभावक पू. गणिवर्य श्री विमलप्रभ वि / म. सा. ना चरणोमां सादर वंदना आप पूज्य श्री ज्ञातामां हशी पूज्यौनी कृपाथी शातामां छीओ - आपश्री द्वारा लिखित "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तक मळी गयुं खूब सुंदर छे - ते पुस्तकनी अत्रे तण नकलनी आवश्यकता है - अत्रे २५० आराधको धर्मचक्र तपनी आराधना करी रह्या छे। - थती सर्वे आराधनानी अनुमोदना -कार्यसेवा फरमावशोजी । ""हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तक मळेल छे । बांचता जारी थाय छे... मारा जेवानुं शुं धशे १ अमारे योग्य कार्य फरमावशी दर्शनादिक याद करशी । अज लि. दर्शनातुर सा. निलपद्माश्रीनी सादर वंदनावली अज लि. मु.दा.व. वि. नी वंदना जेम अत्यंत पुण्यनुं फळ भोगववानुं स्थान 'स्वर्ग' ओटले के 'देवलोक । तेम अत्यंत पापनुं फळ भोगववानुं स्थान छे 'नरक' आजनी २१ मी सदीनी मानव पाप करतां खचकाती नथी । डगले ने पगले दाटु, जूठ व्यसन चोरी जुगार रात्रिभोजन मांसाहार कंदमूळभक्षण पंचेन्द्रिय जीवनी हत्या, अभक्ष्य खान-पान, टी.वी. दर्शन वि । ना पाप होंशे होंशे करी रह्यो छे । संपत्ति मेळववा काळां - धोळां, दगा प्रपंच - - - - - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वासघात करी रह्यो है। अकबीजा जीवो उपर सितम गुजारी रह्यो छे । उपकारीओना उपकारने भूली जइ कृतघ्नी बनी रह्यो छे । बस... मानवी आ धरती उपर आवीने आमने आम पोताना जीवनमां पांच-आठ दश दायका बटावी जाय है। पौतानी जीवन रफतार पूरी करे छे । पण... सबूर...! आ पुस्तक ज्यारे में वांच्युं पहेला तो मने खबर पण न हती के नरकमां वा दुःखी होय । जैम आ पुस्तक वांच्चुं तेम मने नरकना दुःखी यांचीने हृदयथी कंपारी धती हवी के हवे तो जे नरकमां जवाना कारण छे तेथी ज हुं अटकवानुं प्रयत्न करीश । सर्व प्रथम तो में रात्रिभोजन नहीं करवानुं संकल्प कर्यो छे । मारी छ वर्षनी बालिकाओ पण ज्यारे आ बुकमांना चित्रो जोया ते दिवसथी अणे पण महिनाथी रात्रिभोजननो त्याग कर्यो छे जेथी मने बहु खुशी थइ छे । हवे ज्यां सुधी बने त्यां सुधी अमे नरकमां नहिं जवा माटे तप, त्यागने करवानी कोशीश करवानुं प्रयत्न करीशुं । चारुबेन प्रवीणभाई खंडोर (दादर) हमें पता चला है कि कौन सी नरक में कितने नरकवास है। और किस तरह से, और परमाधानी क्या है और वे वहाँ जाते है हर नरक में कितना अंतर और नरक किस तरह से होती है और परमाधामी हमें किस तरह से दुःख देते, इस नरक बुक से हमें बहोत कुछ जानने को मिला जो हम नहीं जानते थे में सब तो नहीं लिख सकती पर इतना कहती हुं की इस बुक से बहोत कुछ जानने को मिला है इस को तैयार करने वाले को धन्यवाद कहती हुँ । रमीलाबेन (भारतनगर) हार्ट अटेक, बी.पी., कॅन्सर, अक्षीडन्टना जमानामां आयुष्य पूर्ण धई युं ने नरकमा जवानुं वशे तो अक साथै आटला दुःखो केम सहन थशे अहीं फ्रीज, टीवी, पंखो, असी विना चालतुं नथी । तो त्यां माटुं शुं थशे ? विचार आवे छे। ये पुस्तक की अक्झाम दे के मुजे बहुत अच्छा लगा। जिस प्रकार में पाप करता था अब कम हो जायेगा । इस प्रकार की परीक्षा सबको देनी चाहिये, जिससे आज कि नवी पेढी पाप करना कम करे । अंकीतभाई अस. शाह (भारतनगर) (73) यह पुस्तक पढने के बाद ऐसा लगा कि बाप रे ! हम हर पल मन द्वारा कितने पाप बांधते रहे हैं, जो हमें सीधे नरक की ओर ले जाओगा। पहले हम सिर्फ नरक के बारे में सुना करते थे । वहाँ बहुत दुःख है पर इस बुक में चित्र के द्वारा हमें पता चला कि क्या क्या पाप करने से हमें कैसे कैसे हम अपने कर्मों का बंध कर रहे हैं। आज के युग में हमें थोड़ा भी दुःख हो तो हम मरने के बारे में सोच लेते ऐसा लगता है जैसे इस दुनिया में मुझ से बड़ा दुःखी कोइ नहीं पर जब ये बुक पढी तो पता चला कि नारकी के दुःख के आगे हमारा दुःख तो कुछ भी नहीं है। वहाँ की वेदना को पढ़ते ही, सुनते ही इतना और डर लगता है कि अगर प्रभु होते तो हमें भी कहते हैं "हे प्रभुजी! मारे पण नरक जावुं नथी" | आज हम चीज क्षणिक सुख के पीछे भाग रहे। उनके पीछे पागल बनकर इतना घोर पाप करते हैं तो हमारी मुक्ति कहाँ होगी। इस बुक को पढने के बाद तो ऐसा लगता है जिन शासन बिना चक्रवर्ति बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हो तो नहीं चाहिये। बस जिनशासन का दासपणा भी मुझे मिले तो बस है। | भावनाबेन गुलाबचंद जैन (वावर) यह मालुम पडा की हसते हसते किये बुरे पाप कर्मों को रो रोकर नरक में भोगने पडते हैं। इसलिये अच्छा यह है कि इनको कर्म बांधने से पहले ही हमे समजना चाहिये नहीं तो फीर और लोग नरक में जायेंगे । इसलिये बुक को पढकर मैं यह संकल्प लेता हूं की हमें रात्रिभोजन, आचार, होटल का खाना और असल मे बोलना इनकी सौगंध लेनी चाहिये, और गर्भपात को रोकने के लिये हमें विश्वस्तर पर अभियान चलाने की जरूरत है और हो सके तो मैंने इस संसार को छोडने का प्रयास करके दीक्षा लेने का मन रखा है । आ पुस्तकमां अमने नारकीमां उत्पन्न थाय ते दुःख विषे खबर पडी ओक वात पाकी छे के जे जीव पाप करे तेने भोगववा वगर छूटको नथी। जेवा कर्म कर्चा तेटलुं भोगवुं पडशे ओटले पाप कर्या पहेलां नारकीनुं चित्र याद राखशो - हसता हसतां करेला कर्म रोतां पण न छूटे जे कर्तुं होय तेने शांतपणे समताथी सहन कर अम विचारीने आपणुं कर्म खपाववानुं छे कैटली नरको छे, केवी छे तेनी अमने खबर पड़ी कर्म अ तीर्थंकर परमात्माने पण न छोडचा तो आपणने शुं छोडसे अटले पाप कर्या पहेलां नरकने याद करो अने पापथी डरो। हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पुस्तक वांचवाची घणुं नरक विशे जाणवा मळ्युं । केवी रीत पाप करी छीओ तथा अक अंक पापथी कैटलुं नरकखुष बंधाय छे ते जाणी अनाथी (पापथी) दूर रहेवा चोरी न करवी, जूटुं न बोलवं तेवं मनमां नक्की कर्तुं । रात्रिभोजन नरकनुं पहेलुं ज द्वार छे । माटे तेनी त्याग कर्यो अने मारी नानी बेबी मंदबुद्धिनी छेतेने पण रोज चौविहार तथा नवकारशी करावं धुं । नास्कीना दुःखो सांभळी कंपी जवाय छे। आ पुस्तकथी मने घणुं ज ज्ञान मळ् छे । हंसाबेन भरतकुमार (१३ मी खेतवाडी) "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आ पुस्तकथी अनुभव थयो के हुं पण संयमनो रस्तो अपनायुं । अपनाववा जेवो छे। नरकमां बहु दुःख अने दुःख सिवाय कशुं नथी। आंखना पलकारा जेटलं पण सुख नथी । ओटले तप तपस्या संयम लेवा जेवुं छे, अने चोरी, जूठु, हिंसा बधुं छोडवुं जोइओ अने ब्रह्मचर्यनुं पालन करयुं जोइओ । संसार असार छे । दुःखदायी छे । अनाथी नरकमा दुःख वधारे छे । ललीताबेन कान्तिलाल (बालाराम भवन) आ पुस्तक वांचता नरक अमने साक्षात स्वरूप देखाइ गएं । आ पुस्तक तो अमने डरावी नांवे छे। अमने आ पुस्तकथी केटलं ज्ञान मधुं छे. अमने खबर पड़े छे के शुं स्वावानुं, पीवानुं, शुं नथी खावानुं, शुं नथी पीवानुं, शुं मनवी करवानुं, शुं नधी करवानुं, शुं मन, वचन अने कायाथी करवानुं अ खबर पडे छे. अमे आ पण खबर पड़ी के नरकमां कैटलं दुःख है, जैना माटे अमने नरक नथी ज्युं । दीलिपभाई जैन (बालाराम भवन) इस पुस्तक से हमें नरक का स्पष्ट वर्णन सचित्र मालूम चला है इस भव में पाप करने से हमें कई जन्मों तक दुःख सहन करने पडते है । नरक में जिस-जिस तरह की पीडा भोगनी पडती है । वह इस पुस्तक से मालूम चलता है। गर्भपात, रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन भयंकर महापाप है । इस पुस्तक को पढ़कर ऐसा लगता है की संसार में कुछ नहीं है। जितने हो सके उतने पाप कम करने चाहिये। जीवों को बचाना चाहिये | दान-पुण्य करना चाहिये । बहुत अच्छी पुस्तक है । इससे जितना ज्ञान मिले वह कम है। मिच्छामि टुक्कडम् । हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (74) आ पुस्तकनी परीक्षा आपी अमने अधिक अनुभवो थया । अमने खबर पडी के अमे अमारा जीवनमां केटला पाप कर्यां छे ? अने केटला पाप करवानां छे ? अमने नरकमां जवाथी शुं थाय ते खबर पढी । आ पुस्तकथी अधिक खबर थइ है। अमने अमारं भविष्य खबर थइ गयुं छे । मने आ पुस्तकमांधी बहु ज्ञान प्राप्त थयुं आ पुस्तकधी मने नरकनुं बधुं खबर पढी गयं । नरकमां क्या जीवो है ? नरकथी छूटवानो उपाय | नरकने चार दरवाजा आदि अमने खबर पडी । अटले हुं आ भवमां संसारमा न रहीने, पाप न करीने संयम लइने सारी आराधना करीने मोक्षे पहोंचवानो प्रयत्न करीश. ये पुस्तक पढके मुझे काफी पापों के बारे में और उसका फल कितना खतरनाक और भयानक होता है, उसका पता चला है दृष्टांत के साथ बात अच्छी तरह से स्पष्ट भी होती है और पढने में रस रहता है । ये पुस्तक पढते समय अपनी आत्मा के प्रति हम जागृत हो जाते है और पाप करते वक्त भी अक बार तो उसका परिणाम आंखो के सामने आ जाता है। ये पुस्तक पढने से पाप में रस नहीं होता। पाप करते वक्त भी हमेशा जागृत रहते हैं। पाप करते समय नरक से डर तो लगता ही है । लि. समता महेन्द्र जैन (वालकेश्वर) आ पुस्तक वांचतानी साथै ज आत्माने थयुं के केवां केवां पाप करवाची नरक गति अने तेनां दुःखी भोगववा पडशे ? तैनाथी कंइक आत्मा डरी गयो छे अने निश्वय करवी पडथों के गर्भहत्या, आत्महत्या, सात महाव्यसननो त्याग करवा जेवो ज छे अने तीर्थंकरोओ जे उपकार आपणा उपर कर्यो छे ते कांइ जन्म द्वारा ऋण चूकवी शकाय ओम नथी । दुर्गतिमांथी आ आत्माने बचाववा माटे लेखक महाराज साहेबने लाख लाख वंदन अने ऋण जे अमारा उपर रही गयुं छे ते माटे आगळ मार्गदर्शनमां अभिलाषी छीओ। आ पुस्तक वांचीने जाणवा मळ्युं के आपणे केटला पाप करीओ छीओ ? अने केवा विचारो करीओ छीओ ? अने आपणे क्या पाप त्यागी शकी ओ छीओ ? अने नरकमां जतां बची शकी ओ छीओ। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक छे तेमां श्रद्धा बेठी । तेथी तेने निवारवा माटेना सहेलां उपायो जे हाथवगा छे, तेनुं पालन करवानुं नक्की कर्यु । जेम के रात्रिभोजननो त्याग, टी.वी.नो त्याग, अनंतकाय तथा बोळ अथाणानो त्याग, तप अने जपमां वधारे समय फाळववो, नवकारमंत्रनुं स्टण करवू, बीजाने दुःख पहोंचे तैवी प्रवृत्ति करवी नहीं। आ पुस्तक खूब ज उपयोगी पुरवार थयुं छे. जेम बने तेम हमेशा टूर रहेवू । वधु वधु तप करवा अने नव लाख नवकारवाळी गणवाथी मोक्ष प्राप्त थाय छ । तेथी नवकारो गणवा । माता, पिता, गुरुने सन्मान आप£ । कोइ पण दिवस क्रोध करवो नहिं । प्रभुभक्ति करवी तेथी सद्गति प्राप्त थइ शके छे। आ पुस्तक वांची मारामांघणो बदलाव मने देखाय छे। हं पण माता-पिताने प्रणाम कटु छु । नारकीने थता दुःख विशे जाण्यं अने था खरेखर ज आपणे अत्यारे भौतिक सुखमां राची छीओ। जे खरेखर तो आपणने अनादि कर्ममां दूंचवी नांवे छे । जो आपणा द्वारा अजाणतां पाप-कर्म थइ गयुं तो तेनी क्षमापना-प्रायश्चित करवू जोइथे। आपणे अमूल्य अवो मानव भव घणां पुण्यना उदयथी मळ्यो, अने तेमां पण जैन कुळमां जन्म मळ्यो। आ बधुं मळ्या छतां पण सौथी उत्तम उत्कृष्ट साधु महाराज मळ्या, तेथी परभव अने नरकनुं ज्ञान मळेल छे. आपणे नरकमाथी आवी तो गया छीओ, पण आ पुस्तक वांचता लागे छे के जो आपणे दररोजना पाप करवानुं ओर्छ नहीं करीअ तो आपणे तेनी आकरी सजा भोगववी पडशे । आपणे आपणा जीवनमां बे लक्ष्य राखवा जोइओ, अक तो आपणे करेलां पापनो नाश करवो अने बीजो नवा पाप ओछा करवा। आटली आकरी सजा अने छतां पण सुख तो आपणने क्षणभर ज मळे छे, ते आ नारकीनी पुस्तकनो सार मळे छे. आ पुस्तकना वांचनथी अमारा शरीरनां कवाडां खडा थइ गया। अरेराटीनी चीस नीकळी गइ अने विचार आटयो के आ भवमां तो घणां पाप कर्यां परंतु अवा केटलाये भव कर्या, कैटली योनीमांजीवे भवभ्रमण कर्यु, तो शुंथशे? जो वशुराजाने अकवार खोटुं बोलवाथी नरकनी वेदना आटली मोटी भोगववी पडी तो अमे तो केटली वार खोटुं बोल्या, केटली हिंसा करी, परिग्रह पण अटलोज। आजन्ममा १८पापस्थानक खूब ज सेटयां तो नारकी गतिमां शुं थशे? अहीं ठंडी सहन थती नथी गरमी सहन थती नथी, भूख, तरस, दुःख कंइ ज गमतुं नथी। "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" आ पुस्तक वांचीने अमने अवी जाण थइ के नरक कोइ पण कार्यथी प्राप्त थाय छे। नरकमां असा दुःख छ । जे दुःख आपणाथी सहन न थइ शके। अने नरक जवाना चार द्वार छे. १) रात्रिभोजन, २) परस्त्रीगमन, ३) बोळ अथाणु, ४) अनंतकायभक्षण साते नरकना आयुष्यनु नाम गोत्रादि कहेवाय छे त्यां आपणने हिंसादी पापनी सजा भयंकर मळे छे अने आपणने क्रोध थाय तो तेनुं फळ पण आपणने नरक मळे छे. लोभ करवाथी पण नरक ज प्राप्त थाय छे. त्यां आपणने कानमा खीला ठोके छे अने हिंसा, जूठ, चोरी, दुराचार, अभिमान, माया, कपट वगैरेथी नरक ज प्राप्त थाय छे। अहीं आपणे जेलमां आपेली सजा पण नथी जोइ शकता तो नरकमां तो तेनां करतां पण भयंकर सजा आपे छ। माटे आपणे अवा बधां पाप न करवा जेथी नरक प्राप्त थाय। ""हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार"... आपणे पूर्व भवमां करेलां अनेक दुष्ट अने भयंकर आचरणथी, क्रूरताथी हिंसाओ, जूठं बोला, चोरी, परस्त्रीगमन, धनप्राप्ति, तीव्र मूछथिी जीवनो वध (गर्भपात) करवाथी नरकना आयुष्यनो बंध करीने जीव नरकमां उत्पन्न थाय छ । नरक सात प्रकारनी होय छे । शर्कर प्रभा, वालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूम प्रभा, तमः प्रभा, तमस्तम प्रभा नरकमां आपणे दुःख, कष्ट सहन करयुं पडे छ । निमिषाबेन तरुणभाई शाह (अंधेरी) "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार” आ पुस्तक वांचीने अमने जाण थइ के आ संसारमा दटेक कारणोथी नरक गति मळे छ। नरक गतिमां परमाधामीओ आपणने केवा दुःखो आपे छे! नरकनां मुख्य चार द्वार छ । तेनी जाण थइ १) रात्रिभोजन, २) परस्त्रीगमन, ३) बोळ अथाj, ४) अनंतकायभक्षण । आ पदार्थोना सेवनथी नरक गतिज मळे छे। तेथी आ पदार्थथी आ पुस्तकनुं फ्रन्ट पेज जोइने ज मारा रुवांडां उभां थइ गयां | आना अंदरना नरकनुं अर्थ मारा अर्थ 'नहिं जाऊँ राक्षसोने कोठे (कतलखाने) आ पुस्तक यांच्या पछी रात्रिभोजन, गर्भपात, आत्मघात जेवा नीच कार्यो करवा योग्य नथी के जेनाथी मारो आ भव तो बगडे ने साथे जो परभव पण बगडतो होय तेमज जो आ बहु दर्लभ मनुष्य भव तेमां वळी जैन (75) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म | वो उच्च कुळ मळ्यो छे से धर्म विना ना गुमावशुं तो आपण बचावनार कोइ नहीं मळे अहीं जो आपणने 'बीसलेरी वॉटर' सिवाय गमतुं नथी तेमज 'अर कंडीशन' सिवाय गमतुं नवी तो त्यांनी आ अनंत वेदना, भूख, तृषा, ताप कैवी रीते सहन धशे माटे आ बुक वांचीने में घणां बधा पापधी छूटवाना नियम आचरण कर्यां । आ पुस्तकनी अक्झाम आपी अमां अमने घणुं बधुं जाणवा मळ्युं छे. नरकना दुःखोनुं वर्णन सांभळी, वांची रुवाडां खडां थइ जाय छे। तेथी आमां न जवा माटे तप, नवकार नव लाख वगैरे गणना अने हुं नवलाख जाप करुं हुं । दररोज बांधी नवकारवाळी गणुं धुं । जयाबेन दीलिपभाई शाह (अंधेरी) I "हे प्रभुजी ! नहिं जाऊँ नरक मोझार" पुस्तकमां दर्शावेल अने वर्णवेल नरकनुं वर्णन अने चित्रावली साथैनुं तेनुं अनुसंधान स्वरेश्वर मानवीने बे वार पाप करतां विचार करतो मूकी दे जो पाप कर्यां पछी तेनुं फळ नरकमां भोगवयुं न होय तो पहेलां पाप न कर्तुं अने भूलथी थइ जाय तो तेनुं प्रायश्वित गुरु भगवंत पा करी लें। जेथी तैना उदय खते तेनुं फळ कठोर न मळे आयुं सरस मजानुं पुस्तक चित्रावली साथै बहार पाडी तेमां दर्शावल अने अंगूलिदर्शक करेल नरकना रस्ताओं अने दुःखोना श्रवणथी जरूर मानवी हवे पछी पाप नहिं करवानी प्रतिज्ञा करशे बीजाने पाप करतो अटकावशे । चालो, आपणे पण आजे पाप न करवा, करतां होय होय तो तेने अटकावी ओ तो ज आ पुस्तकजी फळ श्रुति पूर्ण थइ कहेवाशे । आ पुस्तक वांचीने अमने नारकोना दुःखनी परिभाषा खबर पडी अने शुं पाप करवाथी नस्कना केवा भयंकर दुःख मळे ? अ पुस्तक वांचवाथी बधी खबर पडी अने अमे पाप करतां अटकी अ छीओ । आ बहु सुंदर पुस्तक छै । रमीला हरेश महेता (पाल) आ पुस्तक वांचवाथी जीवनमां जे पाप कर्या अना माटे मारे दुःखनी लागणी धाय छे। पापनी सजा केटली खराब होय छे। जैन दर्शन केटलो उपकार करे छे अमारे जेवा अज्ञान जीवो उपर । अ आ पुस्तक अमने नवां पापने रोकवामां सहाय करे है। अमे पण पापथी बची ओवी प्रभु पासे प्रार्थना ! मांगीलाल रेवाजी संघवी (भारतनगर) हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (76) आ पुस्तकजी अक्झाम आपी, नारकी अने तेना दुःखो जोई खरेवर हृदय द्रवी ऊठ्युं छे अने ओम थाय छे के ओक ओक क्षण मनुष्य भवमां बगाड्या वगर कर्म खपावीओ नहीं तो आवी नरकमां जतुं पडशे त्यारे कोण बचाववा आवशे ? माटे क्यांच पण कर्म न बंधाय] अने कर्मनी निर्जरा धाय अ ज जीवानुं छे। मन-वचन-कायथी हुं कई ज कर्म न बांधु.... भारतीबेन नवीनचन्द्र गोगरी (सायन) अनंता भवो सुधी करेलां कर्म आ भवमां भोगवी रह्या छीओ छतां पण आजीव पापथी डरती थी अने निरंतर पाप चालु रास्ते छे आ पुस्तक वांचीने नरकजी जे चितार आंखी समक्ष आयो छे। तेनाथी साचे ज पापथी डर लागवा लाग्यो छे अने तैनाथी बचवाना उपाय शोधवानी इच्छा थाय छे। खरेवर, आ पुस्तक दरेक जैनोओ अकवार अवश्य वांचचुं जोईओ | तेथी जैन धर्मनी गहनता अने पापथी विमुख थवामां दरेक जीवने मदद मळे । जय जिनेन्द्र अमितभाई शाह (बापाराम) आ पुस्तक 'हे प्रभुजी ! नहि जाउं नरक मोझार' रचयिता श्री पू. गणिवर विमलप्रभ विजयजी म.सा. खूब ज गधुं । जीवनमां अक वार नहीं अनेक वार वांचवा जेवुं छे । तेम ज जीवनमां उतारखा जेतुं छे जीवनमां आपणे ओवा केटलाय पाप कर्या हरी, ते पण याद नयी रहेतुं तो तेनी आलोचना के प्रायश्वित केवी रीते लेवाना १ माटे आजधी ज ओक डायरी बनावो तमाराधी थतां पापनुं वर्णन अथवा लिस्ट बनावो अने शुरु महाराज पासे तेनुं प्रायश्वित अवश्य लेवं तेनाथी तमारी नरक गति टळशे अने मनुष्य भवनी सार्थकता जणाशे माटे आजथी ज चेती नरक टाळवा माटे साते व्यसन छोडो । धर्ममां स्थिर थाओ । ओज, मारी अभिलाषा... रीटाबेन भरतकुमार मणीवार आ पुस्तक पलुं पातुं ज खूब आकर्षित है के चोपडी वांचवानुं मन थाय | आ पहेलां नरक विषे आटलुं सचोट ज्ञान अमने मळ्युं नहतुं । अक अक पानुं वांचवाथी रुवांडां खडां थई जाय। धरमां बाळकोने पण अभक्ष्य भोजन, रात्रि भोजन वगैरे करवाथी शुं धाय अ सचोट चित्र द्वारा समजाववामां खूब ज सरळता पडी । हुं पण रात्रि भोजन करती हती । में पण कायम रात्रि भोजन त्यागनो निर्णय कर्यो छे । जे खरेवर आ पुस्तक ने ज आभारी छे । बीजुं हवे कांई पण पाप करशुं तो नरकनुं सचोट Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टांत जोईने जरुरथी खचकाट थशे । अक वाक्य पण मगजमां बेसी गयुं छे के 'तप त्यागथी कायाने कांई ज कष्ट नथी अनाथी अनेकगणुं कष्ट नरकमां छे ।' जैम खराब कर्म करवाथी नरकना द्वारा खुल्ला ज छे । तेम जरुर सारा कर्मों करवाथी सारि गति मळशेज बाकी कर्मे तो भगवान महावीर, श्रेणिक महाराजा वगैरे आत्माओने नथी छोड्यां । तो आपणे तो शुं विसातमां ? आ अक्झाम आपवाथी नरक विषे ज्ञान मळ्युं । जेनाथी अमे सदंतर अज्ञान हता अने मनमां शंका हती के शुं नरक छे ? आ चोपडी द्वारा साचुं ज्ञान मळ्युं । रेशमाबेन जितेन्द्रभाई शाह (१० मी खेतवाडी) आ पुस्तक वांचवाथी मने नरकनी वस्तु जाणवा मळी | खरेवर आ पुस्तकथी नरक विषेनुं ज्ञान थयुं । मानवी पोताना जीवनमां केटलां अने केवा पाप करे छे अने तेनां केवा फळ आत्माओ भोगववां पडे छे, ते जाण्युं । श्रेणिक राजा, उदायन राजा प. पू. महावीर भगवानने पण कर्मनां फळ भोगववां पड्या तेमने सातमी नरक सुधी जवुं पड्युं अने ३३ सागरोपमनुं आयुष्य भोगववुं पड्युं । असह्य पीडा भोगववी पडी तो आपणे तो केवा क्षुल्लक जीव छीओ पाप करतां करातां कळियुगमां करतां हवे आ पुस्तक वांच्या पछी अटला पाप ओछां करवानुं नक्की कर्यं । सात प्रकारना पापथी पाछां हठवानुं नक्की कर्तुं छे । लि. हसमुख सी. गांधी (मलाड ) आनारकीनुं पुस्तक बहु ज सरस छे । जे नाना छोकरांने पण खूब ज गमे । ओ लोकोने पण समजावी शकीओ। घणुं बधुं जाणवा मळ्युं छे । नरकमां केवी- केवी रीते पापनी सजा भोगववी पडे ? कैटलां दुःख, केवी रीते मळे छे ते समजाय छे अने आपणी नानी भूलनी पण सजा केटली मोटी, भयंकर होय छे ते समजाय छे। खरेखर, आ पुस्तक बहु ज सरस छे । करेलां पाप कॆवी रीते भोगववा पडे छे तेनी समज अहीं आ पुस्तकमां वर्णवी छे, अने आ पुस्तक द्वारा जीवनमां आपणे साची समज ऊतारी पाप करतां अटकी जईओ तो कदाच नरके जवुं पडे अ ज बताव्युं छे । लि. फोरमबेन जयेशकुमार (मलाड ) आ पुस्तक वांचीने शरीरनां रोम रोम खडां थई जाय छे। आ नरक के ज्यां आपणे निश्चित जवानुं ज छे । अथाग दुःखोनां पहाड खडकावानां छे । ज्यां अक क्षण पण शातानो अनुभव नथी । रे जीव ! आ दुनियाना दुःखो तो कांई विसातमां नथी । नाना पण कर्मनी सजा केटली मोटी होय छे ? आ दुनियामां तो (77) फांसीनी सजा ओक ज वार मळे छे । ज्यारे नरकमां तो अनेकवार छेदावुं भेदावुं पडे छे । नरकनी मोझारमां दुःखोनी वणझार चाली आवे छे। मृत्यु मागवा छतां मळतुं नथी । आवा नरकनुं वर्णन यांची जो जीवने डर लागे तो पापथी अटके अने पापथी अटके तो नरकनी मोझार जोवी न पडे... लि. उषा विनोदचंद दोषी अनुभवाय छे। नरकथी बचवा मुज सद्भागीने आ पुस्तक अनायासे मळ्युं अने तैनाथी सद्गति तरफ जवानो रस्तो मळयो | करेलां पापनो पश्र्चाताप अचुक थाय छे। जीवनमां अक पण पाप न करयुं । सद्गति मेळववी । क्यारे पण नरकमां न जवुं पडे ते माटे जीवननी क्षणेक्षण सावधान रही धर्माराधना करवी । खरेवर आ पुस्तक हृदयने, जीवनने, परिवारने परिवर्तन कराव्यां वगर रहेतुं नथी । लि. कुन्दनबेन भुपेन्द्र शाह (बोरीवली) आ पुस्तक यांचीने नारकीनी दस प्रकारनी वेदना छे, तेमां केवी पीडा भोगवी पडे छे । नरकमां परमाधामी देवो ९५ प्रकारनां छै | ते नारकीना जीवने अलग अलग प्रकारे कारमा विविध दुःखो आपे छे । आ परमाधामी त्रण नरक सुधी होय छे । परमाधामी जीवो ओ जीवोने याद करावीने नारकीने पाप याद करावे छे। नारकीना जीवोने टुकड़ा करे छे। अने ते टुकड़ा पछी जोईन्ट थई जाय छे। तेने वेदना अपरंपार होय छे। सुचिताबेन नवीनचन्द्र कोरडीया ताराबाग ( राजाराम मोहन राय मार्ग) "हे प्रभु! नहिं जाउं नरक मोझार' मने अनुभव थयो के पाप करतां डर लागवा मांड्यो अने तप करवानी उत्कृष्ट भाव आववा लाग्यो । मने नरकनो बहु ज भय लागे छे । माटे हवे क्यारेय जूठ नहीं बोलुं के पाप करतां अटकीश। आ पुस्तकथी मारा घरमा बधाना जीवनमां परिवर्तन आवी गयुं छे । हंसाबेन हिम्मतलाल शाह (१० मी खेतवाडी) हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!! Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पुस्तकमां अमे पाप बहु कर्यां छे । आ पुस्तक जोईने अमने अनुभव थाय छे के अमे पापी छीओ । शेनाथी पाप लागे छे ते अमने खबर पण है। गर्भपात अ जीवता मनुष्यनी हत्या है। बालकनी जीव तो पहले ज दिवसथी, पहेली जक्षणची तेमां होय ज छे अने नास्तिकताना अभिमानमां अहीं सुधी कहेवा मांडे छे के... नरक छे ज नहीं, नरक क्यां छे ? मणीबेन वसंतभाई शाह बोरीवली (वेस्ट) - 'हंसा जायुं ओकलाने नहिं कोईनो संगाथ, चार दिवसना चांदरणा पछी घोर अंधारी रात; कोनुं सगुं, कोनुं सास, कोनां मा अने बाप, अंतकाळे जावुं अकला, साथै पुण्य ने पाप.... आ पुस्तकजी अक्झाम आपी अटलुं तो समजाई गयुं छे के आपणी आत्मा अनादिकाळथी आ संसारमा रखडी रह्यो छे, रझडी रह्यो छे । ओ बधुं अने आ भवे नहिं तो परभवे तो भोगववानुं ज छे । दुन्यवी परिबको के अन्य कोई वस्तु तेनी साथै नथी आववानी. आवशे तो फक्त तेनां करेलां पुण्य अने पाप पुण्यनुं भाथु भरवानी शरुआत अत्यारथी ज करवी पडशे तो ज परलोकमां सद्गति अने परंपराओ परमगति मळशे । आ संसार आखो दुःखधी भरेलो छे। नारकीना दुःखो तो आनी सामे कांई नथी आ वधुं जोई, सांभळी वाटां उमां थई जाय छे. खरेवर आ पुस्तके मोजशोखमां रमी रहेला मारा आत्माने खळभळावी मूक्यो छे. आ पुस्तक द्वारा जरुरी बात अ जाणवा मळी के मोक्ष प्राप्तिनो मारग मनुष्य भव छे, आ मनुष्य भवने वेडफया वगर, तेने संसारना सुखमां रझड्या वगर सुधारी लेवो जोईओ तेथी ज में निर्णय लीधो छे के प्रभुभक्तिमां लीन थई मारा भवोभवने हुं सुधारी लउं । हे प्रभु! जोतुं नथी नाम मारे, जोती नथी नामना, आपजे प्रभु ओट के, भातुं तारी भावना। नारकीना दुःख यांची हृदय द्रवी गयुं ने रात्रिभोजननो त्याग अवा चार द्वार तो बंध करवानी संकल्प ने, पापथी बचतुं जोई अ ने माटे पाप नहिं ज करवा । अवा घडी घडीओ विचार मांने सारी लेश्यामांज रहेवुं जोईओ । मन-वचनने कायाथी थता पापथी बचचुं ज जोईओ ने भविष्यमां मृत्यु पहेला दिक्षा लईने ज म आवो संकल्प कर्यो छे । चारित्र सिवाय सद्गति नथी अवुं ज लागे छे । बुकनुं नाम अचूक साचुं छे । के, "हे प्रभु मारे नरकमां नथी जवं | नहिं जाउं नरक मोझार' म. साहेबे करेली प्रयत्न खूब यथार्थ छे। लोको घणा पाप करता डरी जशे । Palkavaya हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (78) आ पुस्तकमांथी ओम खबर पडे से के आपणा धर्ममां चार प्रकारना व्रतोनुं पालन करयुं जरुरी छे । (१) रात्रि भोजन (२) परस्त्रीगमन (३) बोळ अधाणुं (४) अनंतकायभक्षण आ बधुं स्वावाथी अने करवाथी आपणने नरकमां खूब ज राजा मळे है। आपणने त्यां रात दिवस मार मछे है अने त्यां मांस, कादव, । लोही, चरबी जेवा गंदा पदार्थोगां नवडावे छे। अने ते आपणुं मांस आपण खवडावामां आवे छे। कोईदी पण कोईनी हिंसा के चाळा चुगली करवी नहिं अने कोईना पर पण हसवं नहि अने कोईन पण पोताना तरफधी दुःख सहन न कर पडे तेनी काळजी राखवी अने पोताना पर हमेशा बने त्यां सुधी बिनजरुरी आदत लेवी नहिं तेथी ज करीने आपणने नरकमां वधारे सजा भोगववी पड़े नहिं । लि. गीताबेन हसमुखभाई मजेठीया 'मत्थ अण वंदामि' खरेखर, आ पुस्तकांचन करतो तो मारा रुवाडां ऊभा थई गया। शरीरमां कमकमाटी आवी गई के आशुं ? मारो साचो अनुभव कहुं हुं के ? आ पुस्तक थोडा वस्त पहला ज अमने प्रभावनानां मन्युं हतुं अने त्यारे मने ओम के शुं बुक आपी हशे प्रभावनामां ? पण, पछी ज्यारे आ बुकनी परीक्षा छे अने में बुक खोलीने वाचा त्यौर मैने मारी जात पर धिक्कार धयों के स्वरेश्वर, आवा महामुल्य मानवजीवनने हुं नरकनी तरफ हेली रही हती अने पुस्तक वांच्चुं पण नहीं, पण ज्यारे यांच्युं त्यारे मने थयुं के आपणे ओक ओक क्षणे कॅटलां बधां पाप आचरी रह्यां छे । पले पले क्रोध, मान, माया, लोभ, जेवा कषायोने आगमन आपीओ छीओ, पण आ पुस्तकना वांचन पछी खबर पड़ी के आ बधां पाप हसता हसतां करी लीधां परंतु नरकमां जईने तेनी केवी असहाय वेदनाओ भोगववी पडशे तेनी खबर ज न हती । परंतु हा, आ पुस्तकना वांचन पछी अ पाप करतां पलां जरूर ओक वखत परमाधामी, जे नरकनुं द्रश्य नजर समक्ष आवी जशे अने ते पाप करतां रोकी जईशुं अने जो अजाणता पण जो पाप करी लीधुं हशे तो मनमा पश्चाताप जरूर आ पुस्तके जरुर अमारा मानवहृदयने जागृत करी दीधुं छे । भारतीबेन सुरेशभाई फूरिया (शेठ) "हे प्रभुजी ! नहिं जाउं नरक मोझार' आ वाक्य बोलतांनी साथै ज शरीरनां ३ ॥ करोड रुवाडां खडां थई जाय छे। शरीर अ कैदखानुं छे अने तेमां पुरायेल आत्मा अ आ मोहभर्या शरीरमांथी नीकळी अने शाश्वत सुखने पामी मोक्षे जवा मांगे छे, पण अ पापकर्या अने क्यां आपणाथी पाप थई जाय है ? अ आ चोपडी द्वारा स्वरेवर खूब ज समजवा मळ्यु १ अढार पापस्थानकथी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमेशा दूर रहेवानो प्रयत्न करवो कारण हवे आटलं जाण्या पछी कयो आत्मा "नरकमां जवा माटे तैयार थाय ?" जे आत्मा बेवकूफ होय तेज हवे आवां पापने आचरे। आटलुं जाण्या पछी हवे तो चार कषाय, राग, द्वेष, रात्रि भोजन, कंदमूळभक्षण, परस्त्रीगमन, बोळअथाणुं कदापि जीवनमां न आचटुं । जे नरकमां चार मुख्य दरवाजां छे तेने तो जिंदगीभर तिलांजली ज आपदी जोई। खूबज सरळताथी समजीशकाय तेढुंआ पुस्तक अमारा आत्मा माटे खूब ज कल्याणकारी निवड्युं । मळ्या। रात्रिभोजन, परस्त्रीगमन, बोळ अथाj, अनंतकाय भक्षण विषे जाणवा मळ्युं । नरकमां परमाधामी तरफथी मळती वेदनाओ जाणवा मळी । सात नरक विषे जाणवा मळ्युं । तेमनी स्थिति, आकार, आयुष्य वगेरे विशे जाणवा मळ्यु । स्वातीबेन चैतन्यकुमार शाह (गोरेगांव) नारकीर्नु आटलुं बधुं जाण्या पछी लागे छे, खरेवर ! संयम अंगिकार करवो जोई। आ भवमां डगले ने पगले महापाप थाय छे । दररोज प्रतिक्रमण सवार-सांज करवाथी १८ पाप स्थानको माथी छूटकारो मळे । आ पुस्तकनी अॅक्झाम आपता घणा अनुभव थया। नरकनी यातना विषे घj-घणुंजाणवा मळ्युं । नरकना चार द्वार जाणवा शासन प्रभावक गणिवर्य श्री विमलप्रभ विजयजी म.सा. वंदना तमारा तरफथी मोकलेल पुस्तक "हे प्रभुजी ! नहिं जाउं नरक मोझार” मळ्यु । तमोजे आ पुस्तकनुं संपादन करवा द्वारा अनेकोना जीवनमा पाप प्रत्येनो भय पैदा करावी शकशो.. टाईटलमा बंचे चित्र जोतां ज लोकोने दिलचश्पी पेदा थाय छे के शंहशे ? फरी तमारा आ अनुमोदनीय कार्यनी अनुमोदना करी विरमुं छु. 4 लि. राजरक्षित मुनि हO नहि उन भाजार ओपन बुक अक्झाम के सौजन्य एवम् इनाम दाता भीनमाल निबासी कोठारी माणेकचंदजी सरेमलजी हाल ग्रान्ट रौड, मुंबई भारतनगर (ग्रान्टरोड), मुंबई चातुर्मास में समस्त मुंबई लेवल की ओपनबुक अक्झाम के परीक्षार्थीओं के अभिप्रायों में से कुछ उपयोगी अभिप्राय यह पुस्तक में लिये है। Openbook Exam ) a (79) हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवीनचंद्र जगाभाई शाह परिवार, अहमदाबाद (सांताक्रूझ) मुंबई सविताबेन उगरचंद कालीदास शाह, वडोदरा, ह. अनीलभाई भणशाली मिश्रीमलजी भगाजी (हाडेचा) मुंबई माणेकचंदजी सरेमलजी कोठारी (भीनमाल ) मुंबई शेठ नरपतचंदजी निकमचंदजी (सांचीर) मुंबई चुनीलालजी घमंडीरामजी लखमाजी चंदन (सांचोर) मुंबई मूलचंदजी छोगालालजी (सांचीर) मुंबई सीताबेन मफतलाल शाह (सांचीर) मुंबई कन्याबेन देवीचंदजी राठोड (सेवाडी) ह. महेन्द्रभाई राठोड (दहीसर) मुंबई शा. खेमचंदजी गुमानमलजी परिवार (दांतराई) गिरधरनगर, अहमदाबाद श्रीमती लाभुदेवी रामलालजी वनेचंदजी हरणेशा (सिणधरी) अरिहंतनगर, अहमदाबाद स्व. भूलीबाई पुतली फतेहचंदजी जेठमलजी बंदामुथा (आहोर) कोईम्बतूर जशराजजी लुक्कड परिवार (मुन्नारगुडी) कंवरलाल एण्ड कुं. ह. पारसमलजी कंवरलालजी वेद (फलोदी) हाल चेन्नई बोम्बे स्टील हाउस, चेन्नई ह. बी. मिलापचंद इस पुस्तक के Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पचूला संसार वंचणा नवि, गणंति संसारसूअरा जीवा, सुमिणगण वि, केइ, बुज्झति पुष्फ चूलाव्व / 'आसक्त हुझे संसार के विषयो में विष्ठा में भंड की तरह जीव को नरकादि स्थान पाने से ठगते है जब कई जीव स्वप्न में पण नरक के दृश्य देखने से वैराग्य पाते है / रानी पुष्पचूला स्वप्न में भी नरक के दर्शन से संसार से विरक्त बन कर दीक्षा ली और आत्म कल्याण आदरा और फिर जाग्रत दशा में नरकादि का वर्णन और दृश्य देखने से संसार प्रतिनिर्वेद पाकर पापमय संसार से छूटने की इच्छा क्यों न हो ? पाप करते हुए क्युं पश्चाताप (दुःख) न हो ? 'मेरा भी यह प्रयास निष्फळ नहीं बनेगा ऐसी शुभकामनाओं से तैयार किया है। दुःख यातनाए तो जीव को नरक में भुगतने ही पडते है। कर्म के फल भुगतने के लिये उसमें से कोई बच / शक्ता नहीं। बलदेव जैसे नियमा सद्गति को पाते है वैसे वासुदेव नियमा नरक में जाते हैं और चक्रवर्ती की स्त्री रत्न मरकर छट्ठी नरक में जाती है क्योंकि पाप करने के। बाद पश्चाताप नहीं होने से नरक को भूल गये इसका मतलब दुःख का अंत आ गया ऐसा नहीं। खरगोशजंगल में घूम रहा हो और सामने से शेर आ रहा हो तो वह आंख बंध करले और फिर कहे कि शेर तो दिख नहीं रहा है तो क्यां वह शेर से बच पायेगा ? खरगोश माने न माने पर यदि शेर आ रहा होगा तो खरगोश तो मरने ही वाला है। इसी तरह शास्त्र की इस बात को हम माने या न माने लेकित जो हकीकत है वह तो रहने वाली है। नारक चारक सम भव उभग्यो...तारक जानकर धर्म सम्यग्दर्शन के पांच लक्षणों में तीसरा लक्षण निर्वेद = संसार प्राप्ति, उद्वेग = बेचेनी, नफरत के भाव पेदा होना, नारकी में रहे हुए नारक के जीव को नरक में से नीकलने की इच्छा हो, केदी को केदरखाने में से छूटने की इच्छा हो, इसी तरह सम्यग्दृष्टी आत्मा को संसार से छूटने की इच्छा हो, कब संसार छूटे रोज संसार से छूटने की भावना में लीन हो।