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________________ हुए जीव को चारों तरफ से विदारते है। पछाडते है। अन्य देव उसे वज्र अग्नि वाली चिता में फेंकता है। वे नारकी के जीव चीरना, छेदना, भेदना, दौडाना, भरोडना आदि अनेक प्रकार से पीडा सहने के बाद भी तीव्र पापोदय के कारण वापस पारा की तरह अपना शरीर संकोच लेते है । बार बार मरने की इच्छा करने के बाद भी उन बेचारों को मरण नसीब नहीं होता । वे अरज करते हैं कि हे स्वामीनाथ ! हमें मत माये यह असह्य वेदना - दुःख सहन नहीं होते । आप मुझ पर प्रसन्न हो । प्रभणंति तओ दीणा मा मा मारेह सामि पहुनाहु । अई दुसह दुःख मिण पसियह मा कुणह एत्ता है । नारकी जीव जब ऐसा मत किजीए इस तरह कहते हुए देवों के पाँव पडता है, दीन वचन बोलता है, तब उसकी बातें सुनकर नरकपाल जवाब देते हैं। मुर्ख, दुष्ट, आज दुःख सहने में कष्ट हो रहा है पर जब अपने आप को सर्वस्व मान कर पाप करते थे और कहते थे कि मोजमजा करो। परलोक किसने देखा ? मांसाहारी बनकर पशुहत्या करते थे। अंडे, चर्बी आदि खुब प्रेम से खाते थे वे सब भूल गया और अब पोकार - चित्कार कर रहे हो। ये दुःख सहनशक्ति की सीमाके बहार है, दुःसहा है, ऐसे वचन अब बोल रहे हो। जब झूठे वचन बोलकर कपट से भोली प्रजा को ठगते थे और हर्षित होते थे अब व्यर्थ प्रलाप करके क्या फायदा ? जब भोले लोगों को लूटा था, ध मारकर गांव नगर लुटते थे और चोरी करते थे, डाका डालते थे, पराये धनकी लालच में उद्यम करते थे वह सब भूल गये। अब चित्कार करने से क्या । तब तुझे कोई समझाता कि पराया धन हडपना अ भयंकर पाप है, तब तुम कहते थे कि धन तो सब के लिये पराया है वह किसी का भी संबंधी नही होता। परस्त्रीगमन, चोरी आदि को तब तुम सुख के साधन मानते थे वैसी स्त्रियों के पति को तुम मरवा देते थे, अब गरम शीशे की पुतलिओं दूर क्यों भागते हो? असंतोषी बनकर बहुत पाप परिग्रह इकट्ठा करते थे, उसके आरंभ से प्रसन्न होते थे । अब ये दुःख सहते हुए चिडना क्यों ? आरंभ परिग्रह के बिना कुटुंब निर्वाह किस प्रकार होगा ऐसा कहते हुए परिवार के लिये पाप उपार्जन करता था, वह पाप की सजा सहने के लिये तुम तुम्हारे कुटुंबीजनों को बुलाओ, हम तुम्हारी मुंह चिटीओं (47) से भर देते है । पहले तो रात को मिष्टान्न खाता था, सूरपान करता था। अब है दुर्भागी, अब अति उष्ण तेल और शीशा क्यों नहीं पिते ? राज्यमें सत्ताधारी बनने के बाद किसी कभी शूली पर चढ़ाना, आँख फोडना, हाथ कटाना, आदि अनेक कार्य रिश्वत लेकर किये और करवाये। नगर का कोबाल बनकर घात करता, यातना देना, आदि कार्यो द्वारा खूब पापी काम किये। देव, गुरु से लोगों को परेशान किया, अब ऐसे ही, पापो से सींचे हुए अपने वृक्ष के मलीन फल तुम आज भूगत रहे हो इसमें हमारा क्या दोष ? नरकपाल तुम्हे पूर्वभव के दुष्ट कार्यो की याद दिलाते हुए अनेक प्रकार की वेदना का उपार्जन करते हैं। नरकपाल, नारकीओं की चमड़ी उधेडकर उनके मांस नोंचकर सेंकते है और फिर उन्ही के मुँह में हँसते है। ऐसे कार्य करते हुए नरकपाल उसे अवगत कराते है कि उसे गत जन्म में मांस भक्षण अति प्रिय था इसलिये खुद का ही मांस-खून ग्रहण करो । गतजन्म में नारक ने यदि कहीं कोई आग लगायी हो तो नरकपाल देव चारों तरफ बड़ी बड़ी अगनज्वाला प्रगट कर उसे उसकी याद दिलाते हैं। शिकार की विविध क्रिया याद कराने के लिये वे आत्मा को वज्रकूट के पास (रस्सी) में बांधकर लकड़ी से पीटते हैं। उसे त्रिशुल से विंध कर अग्नि में रोकते हैं। अग्नि की ज्वाला नीचे लगाकर नारक को उलटे मुँह लटकाकर सेंका जाता है। शस्त्रों से छेदन किया जाता है। परमाधमी देव वाघ, चित्ता, वरु सिंह आदि का रुप बनाकर नारकी पर पंजे से प्रहार करते हैं। वे वज्रमुखी पक्षी के विविध रुप द्वारा भी वे नारकी जीवों की आँखे बाहर निकलता है । मस्तक पर प्रहार करते हैं। शरीर में से मांस के लोचे बाहर निकालते हैं। नरकपाल जब अग्निवर्षा करनेवाला मेघ का रुप लेता है तब नारकी जीव के सर्व अंग जल जाते हैं । फिर वे असुर के द्वारा तैयार की हुई गुफा में प्रवेश करते हैं। वहाँ उपर से गिर रही शिलाओं के कारण सब अंग तुटकर पापड के आटा जैसा हो जाता है । वे करुण विलाप करते हैं। पशुओं पर ज्यादा भार डालने वाले जीव पर वे लोग (नरकपाल) नारकी के स्कंधों पर पूर्व भव की याद ताजा कराने ज्यादा वजन रखते है। संसार में उन जीवों को शब्द स्पर्श रूप रस, गंध आदि में अत्यंत प्रिती थी उन परिणाम को प्रत्यक्ष कराने के लिये कान मे गरम शीशा, आँख को भयंकर रूप और मांस, जलते हुए अंगार के विलेपन हे प्रभु! मुझे नरक नहीं माना है !!!
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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