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________________ उसको करवाते है। पकड-साणसी से जीभ खींचकर बाहर निकालते हैं। चिंटी, सर्प आदि अशुचि पदार्थ मुँह में डालते हैं । वज्र कंटक शैया में रखी हुई अग्निमय पुतली की साथ सुलाते है। इस तरह नारक जीवो जो यातना सहता है, उसका वर्णन भी शास्त्रों में है। नर्क भूमि में श्याम वर्ण, बिभत्स, अपवित्र, जीर्ण, आंत बाहर निकला हुआ देह, शरीर के लुले अंग, तुटे हुए मस्तक वाले दीन, कायर शक्ति हीन नरक जीव होते हैं। नरक में पलक झपकने तक का सुख भी नहीं । है। सर्व जीव पूर्व किये हुए कर्मो का फल ही भोगता है। कर्म करने के बाद ही उसका अच्छा बुरा फल सहन करना पडता है। कर्म जो फल देने के बाद ही नष्ट होता है। __ गलत रास्ते पर प्रयाण करनार जीव खुद का ही शत्रु बन जाता है और सही रास्ते पर आकर वह अपने आप का मित्र बन जाता है। इस तरह आत्मा ही खुद शत्रु या मित्र है। ज्ञानी गुरु भगवंतों के बहुत समझाने पर, मना करने पर भी तुमने पाप करके दुःख खरीद लिये फिर अब तुम किस पर गुस्सा निकालोगे ? जब तुम्हे कोई समझाने की कोशिश करता तब तु चीड़ कर कहता था कि सात नरक से ज्यादा नरकभूमि है क्या ? अब खेद करने से क्या लाभ ? इस तरह की सद्विचारण सम्यक्द्रष्टि जीव नरक में करता है और अशुभ कर्मो को नष्ट करता है। ऐसे जीव बाद में राज परिवार में जन्म लेते है। धीरे धीरे बाद में कुछ जन्मों बाद उनकी सिद्ध गति होती है। ___ अन्य जीव नरक में कलह भाव रखकर तीर्यंच गति में जाकर भव भ्रमण करते रहते हैं। ५८) सात नरकों का स्वरुप: प्रथम नरक रत्नप्रभा : १४ राजलोक के केन्द्र में मेरुपर्वत है। उर्ध्वलोक (देवलोक), अधोलोक (पाताल लोक) और तिज लोक है। मेरु पर्वत की चारों तरफ जंबू द्विप आदि असंख्य द्विप समुद्र है। मेरु पर्वत की समतल भूमि से नीचे ८00 योजन तक तिर्छा लोक है। उसके बाद नरकलोक(अधो लोक) प्रारंभ होता है। सात राज के विस्तार में सात नरक पृथ्वी है। हर एक राज प्रमाण क्षेत्र में एक नरक पृथ्वी है । हर एक राज प्रमाण क्षेत्रमें एक नरक पृथ्वी है । नीचे उतरते क्रम में है। पहली नरक पृथ्वी का नाम धम्मा है। उसके उपर वज्र वैडूर्य लोहित मसार गल्ला आदि १६ जात के रत्न है। उसकी आभा विशेष होने से धम्मा पृथ्वी रत्नप्रभा के नामसे जानी जाती है। वह एक राज चौड़ी है । स्वयंभू रमण समुद्र तक असंख्य द्वीप समुद्र का प्रमाण उसकी नीचे पहोलाइ ते २.५ पृथ्वीकी जाडाई १ लाख ६० हजार योजन उसके उपर १ हजार योजन छोडकर नीचे १ लाख ७८ हजार योजन नरकी के जीवो रहते है उसमे नरकवास का १३ रास्ता है सम श्रेणी में रहा हुआ से एकेक रास्ता एकेक प्रस्तर कहते है। सब प्रस्तरो ३ हजारा योजन उंचा है और एकेक प्रस्तर में एकेक नरकेन्द्र है। हर एक प्रस्तर में नरकावास है। पहेली नरकमें ३० लाख नरकवास है ये नरकें दिशा विदिशाका नरकवास है हरएकमें भिन्न भिन्न संख्यामें नरकवास है। वे अंदर से गोल बाहार से चतुष्कोण है। ये नरकवास लंबा चौडा संख्यता योजन है। कितने असंख्यात योजन है। सातवे नरकमें आवासे ऐसे है, अट्टी जैसे रमणीय, सुंदर फलेट, बंगले. फर्नीचर नहीं। दिखने में भयंकर है, भूमि बरछी है, उसको देखकर डर पैदा होता है। उसका डरावना रुप है। रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे धनोदधि, धनवात, तनवात, आकाश ये चारो है। सातवी नरक तक ये सबरीत रहती है। रत्नप्रभा पृथ्वी नीचे धनोदधि का पींड २० हजार योजन जाडपणे है । रत्नप्रभा पृथ्वी के १ लाख ८० हजार योजनमेंसे एक योजन छोडकर नीचे भी १ हजार योजन छोडकर मध्यम १ लाख ७८ हजार योजन वहा ३० लाख नरकावासो है अंदर गोल है। बाहर चोखुणा है । वेदना से भरपूर नरक है। रत्नप्रभा पृथ्वीसे १२ योजन दूर अलोक है। दुसरी नरक शर्करा प्रभा : इसका नाम वंशा भी है वहाँ कंकर बहुत है । वे प्रभा से युक्त होने से शर्करा प्रभा कहलाती है। दुसरी नरक अढ़ाई (२१/२) राज चौड़ी है। उसमें ११(ग्यारह) प्रस्तर है। पच्चीस लाख नरकावास है। उसकी जाड़ाई १ लाख बत्तीस हजार यौजन है। तिसरी नरक वालका प्रभा : इस का नाम शैला भी है। वहीं रेती बहुत है। इस लिये इसका गौत्र शैला है। यहा चार राज चौडी है। इसमें पंद्रह लाख नरकावास है। उसमें नौ प्रस्तर है। हर एक प्रस्तर में एक इंन्द्र है। शैला पृथ्वी की जाडाई १ लाख २८ हजार योजन है। नीचे और उपर के एक है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (48)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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