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________________ है। पत्नि-पुत्र, सास-बहु के बीच में झगडा तो कभी कभी समुद्र की लहर की भांति अविरत रहता है। एक बार अगर झगडा शुरु हुआ तो फिर मनुष्य मर्यादा के सभी बंधन तोड देता है। से भगा दिया । तापस ने दुबारा मासक्षमण किया । राजाने उसे वापस जाकर निमंत्रण दिया । वह तापस पारणा करने आया तब राजा के यहाँ पुत्र जन्म की खुशी मनाई जा रही थी इसलिये वह चुपचाप निकल गया। इस तरह जब उसने तीसरी बार मासक्षमण किया तो राजा ने आकर क्षमायाचना कर उसे बुलाया । तापस आया पर उस दिन राजदरबार में किसीका खून हो गया था इसलिये सख्त पहेरा था तो वह ऐसे ही चला गया। इस बार उसे अत्यंत क्रोध आ गया। क्रोध के आवेश में उसने दृढ संकल्प(नियाणा) किया कि उस राजा ने मुझे बहुत सताया है। अब अगले जन्म में उसका वध करनेवाला मैं ही बनं, मेरे तप का अगर कोई श्रेष्ठ फल मुझे मिलता हो तो मुझे यह ही चाहिये । वैर की परंपरा बढ़ती गई। दोनों का आयुष्य पूर्ण हआ। बिच में एक व्यंतरगति का जन्म पसार कर दोनों मनुष्यगति में आये । सुमंगल का जीव राजा श्रेणिक राजा बना और सेनक का जीव श्रेणिक का पुत्र कोणिक बना । गत जन्म के संकल्प अनुसार युवान होते ही उसने पिता श्रेणिक को जेल में डाला. उस पर चाबूक की मार भी पडवाई थी। एक जन्म के वैर द्वेष दुसरे जन्म में भी साथ आता ही है। वैरी पुत्र कोणिक मरने के बाद छही नरक में और श्रेणिकराजा (नरक में) । वहाँ से नीकलकर ८४ हजार साल बाद आनेवाली चौबीशी के प्रथम तीर्थंकर पदमनाभ स्वामी बनेंगे। सबसे पहली बात यह है कि राग-द्वेष मिटाना है, इसके लिये हमें वितरागी का ही आश्रय लेना चाहिये । जो सर्वथा राग-द्वेष रहित है, जिन में राग-द्वेष लेश मात्र भी नहीं है उनका शरण ही स्वीकारना योग्य होगी। अगर रागी या द्वेषी देव-देवी, गुरु, साधु का शरण स्वीकारने में आये तो हम कभी वितरागी नहीं हो सकते क्योंकि जो खुद वितरागी नहीं है वे हमें वितरागी बनायेंगे ? इस लिये विरक्त वितरागी देव गुरु ही हमें राग-द्वेष के चक्रसे बाहर निकाल सकते है। उनका आलंबन होगा। झगडा प्रायः सगे संबंधीओ में होता है। पिता-पुत्र, माता-पुत्र, सासु-बहु, पति-पत्नि, भाई-भाई, काका-भतीजा, आदि भिन्न-भिन्न संबंधो में ही संघर्ष होता है। वैसे कभी कभी अपरिचितो के बीच में भी कुछ निमित्त मिलते ही झगडा बढ़ सकता है। संबंधो के बीच बार बार संघर्ष का प्रमाण ज्यादा रहता भावों में मलिनता आयी नहीं कि भाषा के शब्द प्रयोग बदल जाते है। शिष्ट भाषा का स्थान अश्लिल भाषा ले लेता है। क्लिष्ट भाषा इस्तेमाल करने में झगडा पर उतारु व्यक्ति तनिक भी संकोच नहीं करता । गाली, गलोच, निम्न स्तर की भाषा ये सब कलह को हवा देते हैं। _जब पति-पत्नि दोनों झगडते हो तब एक-दुसरे पर दोषारोपण करने के लिये कैसी भाषा प्रयोग में लाते है। भाषा में आक्रोश, व्यंग, कषाय की तीव्र मात्रा किती? ये सब अशुभ गति में ले जानेवाली क्रियाएँ है। दुर्गति में जाने के लिये अशुभ पाप कर्म ही जबाबदार है। कलहशील-झगडालू मनुष्य क्लिष्ट भाषा के प्रयोग द्वारा पुण्य उपार्जन करेगा यह तो संभव है ही नहीं। कुछ नहीं तो ऐसी गई गुजरी भाषा से उसका अध्यवसाय बिगडेगा । उसमें बुरे बिचारों की तीव्रता दुर्गति बंध करा देती है। हम पिताजी के मृत्यू पश्चात स्वर्गवासी या सदगति लिखकर प्रकाशित कराते है परंतु सब की गति तो अपने कर्मानुसार ही होती है। कलह के तीन मुख्य कारण है जर, जमीन और जोरु । जर अर्थात जवेरात । गुजरातीमें एक कहावत है - जर,जमीन ने जोरु तेत्रण कजियाना छोरु। ___ नरकगतिमें नारकी जीवों की भी ऐसी ही दशा या फिर इससे भी बूरी दशा रहती है । नारकियों की लेश्याएं अशुभ होती है। कषाय की मात्रा ज्यादा होती है। अध्यवसाय भी अशुभ होता है। वे सब नपुंसक भी होते हैं । इन सब कारणों की वजह से वहाँ लडना-झगडना जन्मजात स्वभाव की भांति रहता है। चारों तरफ वहाँ अंधकार रहता है इसलिये वे लोग एक-दुसरे से टकराते रहते है और झगड़ते रहते है। ___पाप कर्म की प्रवृत्ति थोडे समय के लिये होती है। परंतु उसकी सजा की अवधी लंबे समय तक होती है। एक मिनीट में किये हए पाप की सजा नरक में हजारों लाखों वरसो तक भूगतनी पड़ती है। यहाँ पर कोई गुनेगार को है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (36)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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