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________________ खरस्वर : खरस्वर परमाधामी कठोर शब्दों का प्रलाप करते हुए दौडकर नारकों के पास आ जाते है। नारकों के पास एक दूसरे की चमडी छिलवाते है। वे शरीर के मध्यभाग को लकडी की तरह फाडते है। बादमें वे नारकीओं को तीक्ष्ण काटों से भरपूर शाल्मलि वृक्ष पर चढाते है। __ महाघोष : महाघोष जाति के परमाधामी नारकों को अति विशाल गगनभेदी शब्दों से भयभीत बनाता है। भय से डरते नारकों को पकडकर उनको वधस्थान में रोककर अनेक प्रकार से वेदना देते है। ७६) परमाधामी मरकर अंडगोलिक मनुष्य बनते है: गंगा और सिंधु दोनों नदियाँ लवण समुद्र में जिस जगह प्रवेश करती है वहाँ से दक्षिण दिशा में जंबूद्विप की जगती की वेदिका से पचपन योजन दूर एक द्विप है। उस द्विप में सुडतालीस गुफाएँ हैं। उसमें जलचारी मनुष्य रहते है । वे मनुष्य संघयणवाले, सुरापान में आशक्त मांस खानेवाले, और काले रंग के होते है। वे मनुष्य अंडगोलिक ऐसे नाम से पहचाने जाते है। उनके अंड की गोली के (पेशाब निकलने की इन्द्रिय के पास की गोली) चमरी गाय के पुच्छ के केश से गूंथ कर कान के साथ बाँधकर रत्न के व्यापारी समुद्र में प्रवेश करते हैं। वह अंडगोली के प्रभाव से मगर आदि जलचर उपद्रव नहीं करते। इस तरह वे समुद्र से रत्न लेकर सलामत बाहर आ जाते है। रत्न के वेपारी अंडगोली लेने के लिये इस तरह उपाय करते है। लवण समुद्र में रत्न नाम का द्विप है। उसमें रत्न के व्यापारी रहते हैं । वहाँ समुद्र के पास वज्रशीला के संपूट (वज्र की एक प्रकार से घंटी) होते है। व्यापारी वहाँ जाते है। संपूटो खोलते है और उसमें मद्य, मांस, मदिरा और माखण ये चार विगइयो भरते है। बाद में जहाँ अंडगोलिक मनुष्य रहते हैं वहाँ मद्य, मांस आदि लेकर आते है । अंडगोलिक मनुष्य दूर से ही देखकर अंडगोलिको का समुह उनको मारने के लिये दौडते है। व्यापारी मध, मांस आदि से भरे हुए पात्र थोडे थोडे अंतर से रख देते है और भागते रहते है। अंडगोलिक उन पात्रों में से मांस आदि खाते खाते दौडते हुए व्यापारी के पीछे लगते है। अंत में व्यापारी वज्रशीला के पास तक आ जाते है। वहाँ खूब सारा मद्य, मांस भरा हुआ देखकर उसमें प्रवेश कर अंडगोलिक वे सब खाते रहते है। इस तरह खाते खाते वे पांच, छ: यावत दश दिन पसार करते हैं, इतने में व्यापारी लोग बख्तर पहन कर तलवार आदि शस्त्रों के साथ आकर सात-आठ टोली बनाकर संपूटों को घेर लेते है। और संपूटों को बंध कर देते है। अंडगोलिक में इतनी शक्ति होती है कि अगर एक भी बाहर आ गया तो वह सबको मार सकता है। बाद में व्यापारीगण यंत्र से वज्र की घंटी में उनको पीसते है। वे अति बलवान होने से एक साल तक पीसाते रहते हैं और अंत में उनकी मृत्यू होती है। एक साल पर्यंत वे भयानक पीडा सहते है। पीसते समय उनके शरीर के अवयव चूरण की तरह बाहर आता है। उसमें से व्यापारी अंड की गोलियाँ ढूंढ निकलता है और उसका उपयोग व्यापारी करता है। पंद्रह प्रकार के परमाधामी देव मर कर कैसी यातना भुगतते है ? साढे बारह योजन प्रमाण एक भयानक स्थल है। वहाँ अंदर साढे तीन योजन प्रमाण एक और डरावना स्थल है। वहाँ साढे तीन योजन समुद्र की उँचाई से उँचा है। वहाँ घोर अंधेरी गुफाएँ है। इन गुफाओं में परमाधामी देव उत्पन्न होते है। उनका स्पर्श कठिन है अर्थात कठोर है। उनकी द्रष्टि अति भयानक है, उनकी काया साडे बारह हाथ की है। उनका आयुष्य कुछ वर्ष का होता है। इस स्थल से इकतीस योजन दूर समुंदर के मध्य में अनेक लोगों की बस्ती वाला रत्नद्वीप नाम का द्वीप है। वहाँ मनुष्यों के पास वज्र की बनायी हई घंट्टी होती है, इन चक्कीओं को वे मांस, मदिरा से भरते है। वे मनुष्य मांस, मदीरा, जहाज में भरकर मनुष्य के पास जाते है और उनको लालच देते है। वे इन चीजो के स्वाद से लुब्ध होकर इनके पीछे आकर उन चक्कीओं में गिरते हैं। वहाँ वे दो-तीन दिन पड़े रहते हैं। बादमें शस्त्रसज्ज आदमी वहाँ आकर चक्कियों को चारेंतरफ से घेर लेते हैं। एक वर्ष तक वे अति कष्ट सहन करते हैं। और फिर वे जलचर मनुष्यों की मृत्यु होती है। सभी नरको से अधिक वेदना अंडगोलिक मनुष्य को होती है। है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (56)
SR No.009502
Book TitleMuze Narak Nahi Jana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprabhvijay
PublisherVimalprabhvijayji
Publication Year
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size2 MB
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