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कषाई था । वहाँ से मरकर नरक में गया । अब यहाँ चोर बना है। साहंजणी नगरी की वेश्या सुदर्शना में आशक्त है। वेश्या को राजा ने महल में रखा । वह चोर वहाँ भी पहुँच गया राजा ने उसे फाँसी दी । गरम पुतलियों से आलिंगन कराया । वह प्रथम नरक में गया। आगे सात नरक तक भटकेगा। ___३८) कौशाम्बी नगर में बृहस्पतिदत्त नामका पुरोहित था जो पौरोहित्य कर्म करता था। वह राजा और प्रजा का पशुयज्ञ आदि का कार्य करता था। वह राजमहल में अंत:पुर की रानीओं के पास भी बगैर रोकटोक के जाने लगा। उसने शतानिक राजा के पुत्र उदायन की पट्टरानी पद्मावती के साथ व्यभिचार किया। राजा ने बृहस्पतिदत्त को फाँसी दी।
शरीर के टुकटे कर दिये गये । भयंकर वेदनाएँ ६४ वर्ष तक सहने के बाद वह प्रथम नरक में गया । गत जन्म में उसने नरबली यज्ञ भी करवाये थे जिंदा पुरुषों के कलेजे काल निकालने वाला पाप संस्कारो से युक्त वह सातों नरक में भटकेगा। यह प्राणातिपात हिंसा की सजा है।
३९) मथुरा में श्रीदाम राजा का पुत्र नंदिसेन था। वह अपने पिता का वैरी बना था। उसने एक चित्र नाम के हजाम को विश्वास में लिया । उसने हजाम को आधा राज्य देने का लोभ दिया। बात अंत तक छपी न रह सकी सब को मालुम पड़ गई। राजाने पुत्र को उत्पीदन किया - गरम पानी में डाला, तपे हुए लोहे पर बैठाया, गरम पानी से अभिषेक करवाया। नंदिसेन मरकर पहली नरक में गया। वहाँ से वह सातों नरक में घोर यातना सह कर असंख्य भव संसार में भटकेगा।
४०) विजयपुर नगर में कनकरथ राजा के यहाँ धनवंतरी नाम का वैध था । वह आयुर्वेद का जानकार था। अष्टांग विद्या का भी उसे अच्छा ज्ञान था । वह वैध राजा, रानी और अन्य सब की चिकित्सा कराता था। दवा में वह कछुआ का मांस, जलचर, भेड-बकरी, भंड हिरण, खरगोश, भैंस आदि का मांस भक्षण करने को कहता था। वह खुद भी दवा के लिये ताजा मांस भी लाकर देता था। उसने बाद में वैदक के नाम पर लोगों को मदिरा पिलाना भी चालू किया। उसका आयुष्य ३२00 वर्ष का था। वह मरकर छली नरक में गया। वहाँ से निकलकर वह पाडलखंड
नगर में सागरदत्त का पुत्र उंबरदत्त बना। माता के पेट से ही उसे मांस खाने को मन करता था । बडे होकर उसे मांसमदीरा खाने की वजह से १६ प्रकार के विभिन्न रोग उत्पन्न हुए । रक्तपिक्त और कुष्ठ रोग भी हुआ | घाव में कीडे गये। ऐसे महाव्याधि की वेदना भुगत कर वह प्रथम नरक में गया आगे भी वह सातों नरक में भटक कर असंख्य जन्म तक पाप की सजा झेलेगा। __पाप कर के जीव अधोलोक नरक में जातें है । जो खुद अपनी इच्छा से नरक में जाते है उनको भला कौन कैसे बचा सकता है ?
४१) शशी और सूर की कथा।
भरतक्षेत्र की शुक्तिमति नगरी में शशीराजा राज्य करता है। वह महा प्रतापी है। उसके छोटे भाई का नाम सूर है। वे दोनों भाई एक दिन जंगल में घूमने गये । वन में उन्होंने एक घटादार वृक्ष की छाँव में एक साधु को देखा। दोनों भाई घोडे पर से उतरे और साधु की वंदना की। साधुने भी उन्हे धर्मलाभ प्रदान कर उपदेश दिया।
|| गाथा || माणुस्स खित जाइ,
कुल रुवारोग आउयं बुद्धि ।। सटवाणुग्गह सिध्दा, संजय लोगंमि दुल्लहो लहियं ।।१।। चिक्कणधडेण साचिय, ढलीउणं पाणियं जाइ।। कोरं कुंभं च भेदइ, तहावि भव्यजीवाणं ।।९।।
आप सत्पुरुष है, धर्म करने में प्रमाद नहीं करो । उपदेश सुनकर सूर राजा दीक्षा लेकर अति दुष्कर तप करने तैयार हो गये । भाई शशी पर हेत होने के कारण उन्होंने उसे समझाया, हे बांधव, इस जीव ने अनेक जन्मों में भोग भोगे है। समुद्र जितना पानी पिया, मेरु जितने धान्य आरोगे तो भी तृप्ति न हुईं। तब शशी ने कहा, हे भाई, ऐसा शायद ही कोई मूर्ख होगा जो राज्यभोग, ललित लोचना स्त्री, पान, फूल, इत्यादि सुख सबंधी साधनो को त्याग परलोकके लिये व्रत उपवास आदि कष्ट सहन करते हो लेकिन परलोक है या नहीं किसे मालूम ? किसने देखा ? आप समझदार हो तो जीव को आनंद-प्रमोद में लगाओ। यौवन बार बार नहीं आता। भाई के ऐसे वचन सुनकर सूर गुस्से हो गया। उसने सब कुछ त्याग कर चारित्र अंगिकार किया।
हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
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