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शबल जाति के परमाधामी तो हद से बाहर जीव को वेदना देते हैं। वे पेट, हृदय आदि फाड कर आंत, मांस आदि बाहर निकालते हैं और जीव को दिखाकर पीड़ा देते हैं।
रुद्र जाति वाले असूर मार मार कर आते हैं और तलवार चलाते है। त्रिशूल, शुली आदि में नारकों को पिरोकर चिता में डाल देते है। उपरुद्र परमाधामी अंग के टकडे कर अधिक वेदना उत्पन्न करते हैं।
__काल जाति के असुर दुःख से रोते हुए नारकों को पकड़कर धकधकती कड़ाई में जींदा मछली की तरह पकाते
महाकाल द्वारा होती विडंबना की बात ही अलग है। वह नारक के शरीर के बारीक टुकडे कर उन्ही को खिलाता
है।
से उसे सर्कराप्रभा कहते है। तीसरी पृथ्वी में रेती की प्रचुरता होने से उसका नाम वालुका प्रभा है। चौथी पृथ्वी में कीचड बहुत होने से पंक प्रभा नाम से है । पाँचवी पृथ्वी में धुंआ बहुत होने से वह धूमप्रभा नाम से जानी जाती है । छट्ठी पृथ्वी में अंधकार विशेष होने से तमःप्रभा के नाम से जाना जाती है। सातमी पृथ्वी में अतिशय तीव्र अंधकार होता है। इसलिये उसका नाम तमः तमः प्रभा है | धनवात तथा तनुवात की जाड़ाई हर एक पृथ्वी में असंख्याता योजन होती है। नीचे की ओर जाते समय पृथ्वी में धनवात और तनुवात की जाड़ाई अधिक रहती है।
७५) नरक में १५प्रकार के परमाधामी कृत वेदना:
संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥३-५||
भावार्थ: तीसरी नरक तक के नारक संक्लिष्ट असुरों से परमाधामी देवो से दुःखी होते है।
पंद्रह प्रकार के परमाधामीओं के नाम इस प्रकार है - अंब, अंबर्षि, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असि, पत्रधनु, कुंभ, वालुक, वैतरणी, खरस्वर, महाघोष ।
ये परमाधामी नये उत्पन्न हुए नरक के जीवों के पास शेर की तरह दहाडते हुए चारों तरफ से दौडे चले आते है। अरे यह पापी को मारो, उसको बांधों, उसके टुकडे करो, इस प्रकार प्रालाप करते हुए अनेक प्रकार के शस्त्रों का उपयोग कर नरक के जीव को वींधते है।
अंब जाति के परमाधामी खेल ही खेल में विविध प्रकार के भय उत्पन्न करते है। भयविह्वल जीवों के पीछे वे दौडते है। आकाश में उँचे ले जाकर उलटे फेंक देते है। नीचे गिरे हुए जीवों पर वज्र के सलियों से विंधते है, मुदगल से प्रहार करते हैं।
____ अंबर्षि परमाधामी अंब जाति के नरकाधामी द्वारा जख्मी, निश्चेतन किये गये नारकीओं के शरीर के टुकडे करते है। वे जीव को शाक-सब्जी की तरह काटते है।
श्याम जाति के परमाधामी भी अंग उपांग छेदन करते हैं।
घटिकालय से नीचे फेंकते हैं। चाबूक के प्रहार करते है। गेंद की तरह फेंक कर पाँव से लात मारते हैं।
असि जाति के असूर असि अर्थात् तलवार चलाने का कार्य करते है। तलवार आदि शस्त्रों से हाथ, पैर, जंघा, मस्तक आदि अंग-उपांग को छिंदकर तहस-नहस कर देता है।
पत्रधन परमाधामी असिपत्र बन बनाकर दिखाते हैं। नारक छाया की अभिलाषा लेकर वहाँ जाते हैं। वहाँ जाते ही उनको अति दुःख भरी वेदना झेलनी पडती है। वहाँ पर वृक्ष के समान दिखनेवाले पत्ते तलवार आदि शस्त्रों के होते है। जैसे ही नारक वहाँ आते है परमाधामी पवन का रूप ले लेते है और वृक्ष पर से धड़ाधड़ पत्ते के जैसे दिखे वाले शस्त्र उन पर गिरते है जिसके फलस्वरूप हाथ, पैर, कान, नाक, आदि अंग कट जाते है, उनमें से रुधिर की धार बहने लगती है।
कुंभ जात के असुर नारकों को कुंभ, पचनक, शुंठक इत्यादि साधनो पर उबलते तेल में भजीये की तरह तलते
__ वालुका जाति के परमाधामी, नारको को भट्टी की रेत से भी कई गुना ज्यादा उष्ण कदंब वालुका नाम की पृथ्वी में तड़तड़ फटते हुए चने की तरह सेकते है। वैतरणी जाति के परमाधामी देव वैतरणी नदी जैसा रुप बनाकर उसमें नारकों को चलाते है। यह नदी में उकलते लाआरस का वेगवंत प्रवाह बहता रहता है। उसमें हर प्रकार की अशुची बहती रहती है जिसमें हड्डियाँ, खून, पस, बाल आदि भी होते है। अति उष्ण लोहे की नाव में वे नारक को बैठाते है।
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हे प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!