Book Title: Muze Narak Nahi Jana
Author(s): Vimalprabhvijay
Publisher: Vimalprabhvijayji

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Page 54
________________ हे गौतम ! देवद्रव्य भक्षण करने में और परस्त्रीगमन से वह सात बार नरक में जाता है। तीसरा अध्यायः तत्त्वो की श्रध्धा के लिये तत्वों का बोध अनिवार्य है। तत्त्वों के बोध के लिये जीव आदि तत्त्वों का वर्णन अवश्य करना चाहिये । जीव चार गति के आश्रय से रहता है - मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक ऐसे चार भेद है। यहाँ सबसे प्रथम नरक जीवों का वर्णन प्रारंभ करते धनवात के आधार से धनांबू/धनोदधि रहा है। बाद में धनोदधि के आधार पर तमः तमः प्रभा पृथ्वी रही है। उसके बाद पुनः क्रमश: आकाश, तनुवात, धनवात, धनोदधि और फिर तमः प्रभा पृथ्वी है । इस प्रकार से सातों पृथ्वी तक यही क्रम है। यह विचारणा नीचे से उपर करने में आई है। अगर उपर से नीचे की तरफ विचार करेंगे तो प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी है, बाद में धनोदधि है, फिर धनवात है, फिर तनुवात है, और अंत में आकाश है, त्यार बाद शर्करा प्रभा पृथ्वी है। फिर धनोदधि, धनवात, तनुवात और आकाश है इस तरह सातवी पृथ्वी तक यह क्रम चलता है। सर्वत्र आकाश का कोई आधार नहीं होता, क्योंकि आकाश स्वप्रतिष्ठित है और अन्य के आधार रूप है। धनोदधि आदि वलय-चुडी के आकार के होने से उसे वलय कहा जाता है। धनोदधि वलय, धनवात वलय, और तनवात वलय । हम रत्नप्रभा पृथ्वी पर है। रत्नप्रभा पृथ्वी में मनुष्य, तिर्यंच, भवनपति देव-व्यंतर देव तथा नारक ऐसे चार प्रकार के जीव है। ___७४) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि पृथ्वी की जाड़ाई और चौड़ाई | पृथ्वी की जाड़ाई पृथ्वी की चौड़ाई रत्नप्रभा १८0000 योजन एक रज्जु शर्कराप्रभा १३२००० योजन अढाई रज्जु वालुकाप्रभा १२८०० योजन चार रज्जु पंकप्रभा १२0000 योजन पाँच रज्जु धूमप्रभा ११८000 योजन छ: रज्जु तम:प्रभा ११६000 योजन साड़े छ: रज्जु तमः तमः प्रभा | १०८000 योजन | सात रज्जु हर एक पृथ्वी से दुसरी पृथ्वी का अंतर असंख्याता क्रोडा क्रोडि योजन है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वी में अनुक्रम से १३,११,६,७,५,३, और १ प्रस्तर है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वी में अनुक्रम से ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख,३ लाख, ९९९९५ और ५ नरकावास है। प्रथम पृथ्वी में रत्नों की प्रधानता होने से उसे रत्नप्रभा कहते है। दुसरी पृथ्वी में कंकर की मुख्यता होने ७३) नरक की सात पृथ्वी का स्वरूप: रत्न-शर्करा-वालुका-पङ्क-धूम-तमो-महातमःप्रभा भूमयो, धमाम्बु-वाता-ऽऽकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः पृथुतराः ॥३-१|| भावार्थ : रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुका प्रभा, पंक प्रभा, धूम प्रभा, तमः प्रभा, महात्तमःप्रभा: ऐसी सात भूमिपृथ्वी है। ये सात पृथ्वी धनांबु, वात और आकाश के आधार से रही है। ये क्रमश: चौडी होती हुई एक के नीचे एक बसी हुई होती है। प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी एक राज चौड़ी है । (स्वयंभू रमण समुद्र तक) दुसरी पृथ्वी अढाई राज चौडी है। तिसरी पृथ्वी चार राज चौडी है। चौथी पृथ्वी पांच राज चौडी है। पांचवी पृथ्वी छ: राज चौडी है। छट्ठी पृथ्वी साढ़े छ: राज चौडी है। सातवी पृथ्वी सात राज चौडी है। इस तरह पृथ्वीएं एक के नीचे एक चौडी होने से इसका आकार छत्र के उपर छत्र जैसा दिखता है। प्रत्येक पृथ्वी धनांबु, धनवात, तनवात और आकाश के सहारे होती है। धनांबू, अर्थात् धन पानी, धनवात अर्थात धन वायु, तनुवात अर्थात पतला वायु | धनांबु को धनोदधि भी कहते है । सर्वप्रथम आकाश है। बादमें आकाश के आधार से तनुवात है । बाद में तनुवात के आधार से धनवात रहा है । फिर पृथ्वी है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (54)

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