Book Title: Muze Narak Nahi Jana
Author(s): Vimalprabhvijay
Publisher: Vimalprabhvijayji

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Page 42
________________ गई तो ? दुबारा नरक गति आना पडेगा, इसलिये यहाँ आयुष्य ज्यादा है । यहाँ कीये गये पापाचार की सजा यहाँ भूगत पाना मुश्किल है। तीव्र कषाय, तीव्र राग, जो कृष्ण लेश्या में परिवर्तित हुआ हो ऐसे कर्मों की स्थिति बंध दीर्घ होती है । २०-३०-७० कोडा कोडी सागरोपम की है। उसके अबाधित काल प्रमाण २ हजार, ३ हजार, ७ हजार वर्ष है। यहाँ के आयुष्य के १०० साल की सजा भुगतने नरक में है और तिर्यंच के दुःख तो मर्यादित है । है, अकंपित सिंह और शेर को पिंजरे में भी खाना मिलता है, मनुष्य को भी जेल में खाना मिलता है। परंतु नरक में इतना सुख भी नसीब नहीं होता। वहाँ खाने के लिये भी खुद के शरीर के हिस्से से माँस के टुकडे काटकर ही खिलाते है। कैसी भयंकर सजा । मान लो कि यहाँ फांसी की सजा, जेल की सजा जैसा कुछ न हो तो गुनाह कम ज्यादा हो सकता है। लूट, बलात्कार, खून आतंकवाद आदि बढ जाय पर इन सब का परिणाम नरक है ये सोचकर कुछ जीव पाप करने से रुकते जरुर है । • भूमि क्षेत्र किसने बनाये ? ईश्वर ने इन सबको वह तो अति दयालू और करुणा का अवतार है । उसका हृदय तो क्रूर नहिं है। अनादि काल से चौद राजलोक शास्वत नरकभूमि है । परमाधमी की वेदनाएँ है । कम्प्युटर सीस्टम है। स्वयंसंचालित है, कही कोई गडबड नहीं । प्रत्यक्ष नहीं दिखा रहा है, इसलिये नारक का अभाव है यह मानना सरासर गलत है। भगवान कहते हैं कि में कैवलज्ञान से देख सकता हूँ। सिंह का प्रत्यक्ष दर्शन सब नहीं होता फिर भी उसे अप्रत्यक्ष कोई नहीं कहता। सब लोग ने परदेश, नदी, समुद्र नहीं देखा तो भी सब मानते हैं क्योंकि अन्यने उन्हे देखा है। आँख से मुझे नहीं दिखता इसलिये इन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं पर परोक्ष है जहाँ धुँआ हो वहाँ आग हो सकती है। ऐसा अग्नि का अनुमान इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष होने पर भी उपचार से प्रत्यक्ष कह सकते है । इसलिये नारकों का अस्तित्व नहीं है ऐसा हम नहीं कह सकते । प्रकृष्ट पाप करनेवाला मर कर नरक में जाता है । संसारी जीव खराब दुष्ट कर्म बंध बाँध कर दुर्गति में न इस लिए नरक का स्वरुप दिखाया जाता है, जिससे हे प्रभु! मुझे नरक नहीं जाना है !!! (42) जीव पाप प्रवृत्तिसे पीछे हट शके । भय, लज्जा, शरम, संकोच आदि से सहजता से जीव अशुभ कर्म बंध से बच जायेगा । अविनय, निर्लज्जता, हिंसा आदि सात व्यसन, कपट, विश्वासघात, देवगुरु की आशातना, धर्म की अवहेलना, निंदा परिग्रह, आरंभ, रात्री भोजन, कंदमूल, वडिलों के अपमान, माता-पिता को त्रास देना, आदि से कर्मबंध होता है । हँसते हँसते बाँधे हुए कर्म रोते रोते भी नहीं छुटते। कषाय, वासना संज्ञा अगले भव में नरक में अनेक प्रकार की वेदनायें काफी लम्बे समय तक भोगनी पड़ती है। चारो गतियो में अधिक दुःखदायी नरक गति है। रौद्र ध्यान जैसा अशुभ ध्यान नरकगति का अनुबंध कराता है। प्रसन्न चंद्र राजर्षिने पहले तो रौद्रध्यान करके नरकगति का आयुष्यबंध किया पर तुरंत बाद में शुभध्यान में अपने आप को परिणित किया अशुभ ध्यान पहेले तो रौद्रध्यान करके नरकगति का आयुष्यबंध किया और तुरंत बाद में शुभध्यान में अपने आप परिणित किया अशुभ ध्यान से हट गया और आत्माकी शुभ परिणिति से मोक्ष में गया । हिरनी के शिकार के बाद पाप की अनुमोदना की इसलिये साक्षात भगवान मिलने पर भी उसकी नरक गति मीट नही सकी। उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया था, फिर भी कर्मसत्ता के आगे मजबूर थे । रामचंद्रजी के भ्राता लक्ष्मण, प्रति वासुदेव रावण जैसे तीर्थंकर आत्माओं को भी अपनी भूल के कारण नरक श्रीकृष्ण महाराजा को अंत समय में अशुभ विचारों के कारण नरक में जाना पड़ा । • अति लोभ के कारण धवल सेठ और मम्मण सेठ मरने बाद में ये भूम चक्रवर्ति षट् खंड के अधिपति थे पर और बारह खंड जितने की लालच में सातवी नरक में गये। जीवन में किये हुए अनेक पापों का प्रायश्चित तथा तप और संयम द्वारा पाप मुक्त होकर सदगति प्राप्त कर सकते है । ४७) नरक गति के आयुष्य बंध के कारण : अभिमान, मत्सर, अति विषयी, जीव हिंसा, महारंभी, मिथ्यात्वी, रौद्र ध्यान, चोरी जैन मुनि का धातक, व्रत भंग करने वाला, मदिरा मास भक्षी, रात्री भोजन, गुणिजन की निंदा आदि - कृष्ण लेश्या वाले ऐसे जीव नारकी में उत्पन्न होते है ।

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