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धारणी परशूराम, क्रोधे निःक्षत्रि क्रोधे निःक्षत्रि कीधी । धरणी सुभूमराये क्रोधे निर्ब्रह्मी कीधी
परशुरामने अपने क्रोध से संपूर्ण धरती क्षत्रिय वगैर की अर्थात सभी क्षत्रियों को खत्म कर दिये । संपूर्ण क्षत्रिय जाती का विनाश कर धरती को पानी के बदले मानो खून से भर दी। वैसे ही सुभूम जैसे चक्रवर्ति ने संपूर्ण धरती ब्राह्मण रहित बनाई। समस्त ब्राह्मणों की कतल करवाई, उनको मौत के घाट उतारकर रुधिर की नदी बहा दी। ऐसे अधर्म मनुष्यने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के निमित्त संपूर्ण जाति का विनाश किया। इतने क्रोध के कारण क्या उनकी सद्गति संभव हो सकती है ? ना कभी नहीं ! चक्रवर्ति होने से भी कुछ नहीं होता। वे मरकर सातवी नरक में गये। अब वहाँ ३३ सागरोपम जितने असंख्य वर्ष दीर्घ काल तक दुःख सहने के सिवा और कोई विकल्प शेष नहीं रहता। क्रोध के ऐसे करुण अंजाम देखकर आत्मा को क्रोध से मुँह मोड लेना चाहिए।
२९) अग्नि शर्मा तापस:
क्रोधो वैरस्य कारणम् । क्रोध को अगर शांत न किया जाय तो क्रोध वैर की परंपरा को आगे बढ़ाता है अग्निशर्मा । तापस मासक्षमण के पारणे मास क्षमण करते थे। परंतु तीन वार वे संजोग वशात् पारणा न कर सके इसलिये उनको भयंकर गुस्सा आया, गुस्सा बढ़ता ही गया, क्षमा भाव जागृत न हुआ । गुणसेन के साथ द्वेष की गांठ ऐसी बाँध ली कि तप में संकल्प भी कर लिया की... जन्मोजन्म उसका नाश करनेवाला बनु । उनके तप का पुण्य धुल मे मिल गया । मानवजन्म ऐसे ही फोकट गया । बाद के भव में गुणसेन के आत्मा को बार बार मारकर कितनी ही बार वह नरक में गया।
कमठ अपने ही छोटे भाई मरुभूति पर पत्थर से शिर फोडा और संकल्प किया कि अगले जन्मों में भी उसे मारु। वैसा ही हुआ । दस दस भवों तक वैर की परंपरा चली और सभी भवो में कमठ मरुभूति के आत्मा को मारता ही गया। महापाप उपार्जन कर बारबार नर्क में गया।
विश्वभूति राजकूमार, जो भगवान महावीर के ही जीव है, १६ वे भव में, मासक्षमण की तपस्या करके विशाखानंदी
पर क्रोध करते है, और संकल्प करते है - अगले जन्ममें भी तुझे में ही मारनेवाला बनूं। आखिर में ऐसा ही हुआ और १८ वे जन्ममें त्रिपुष्ट वासुदेव बनकर सिंह को मारा । कई कर्मो को बांधकर १९ वे जन्ममें सातवी नरकमें गये । क्रोध १ मिनिटका एक क्षणका और सजा कितने वर्षो की ? कितने जन्मों की?
प्रसन्नचंद्र राजर्षि को क्रोध आया तो जरुर, पर एक ही क्षण में मनके विचार बदल गए-जिससे सांतवी नरकमें जाने से बच गए और कर्मो को भुगतकर केवलज्ञान तक पहोंच गए।
३०) लोभ का फल - कौणिक
प्राणी परिग्रह के पाप के भार से नारकीय पीडा सहन करने नरक जा पहुँचे। जिस तरह ज्यादा भार से छोटी नाव समुद्र में डुब जाती है। उसी तरह परिग्रह के भार से मनुष्ट नरक में डुब जाता है।
लोभी देश परदेश सभी जगह घुमता रहता है तथा धन प्राप्ति की लालसा में शरीर सुख देता है । वह न तो धुप, गरमी न ठंड देखता है। सब दुःखो को सहन करता रहता है। यह वही लोभ है जिसके कारण पिता पुत्र झगडते है । अगर लोभ से धन प्राप्ति होती है तो राजा भी जंगलो में दिन गुजारने को तैयार हो जायेगा । भगवान ऋषभदेव के दोनो बडे पुत्र १९ वर्षो तक लड़ते रहे । भगवान के होते हुए भी दोनो भाई कितने लड़े, विचारकरो क्या कारण होगा। सिर्फ लोभ राज्य का राज्य लोभ भी बहुत भारी होता है। यहाँ तक की कोणिक जैसे पुत्र ने मगधके महान सम्राट श्रेणिक(बिंबीसार) को भी कारागृह में डाल दिया तथा पिता को बहुत दुःख दिया । कोणिक मृत्यु के पश्चात छट्ठी नरक में गया। छखंडो अधिकारी बनने के लालच में कालकुमार नरक मे गये। तथा आगम में निरयावलिका सुत्र में जिनके बारे मे लिखा गया है, कैसे नरक में गये, कैसी वेदना सही। इसलिये हे भाग्यशालीयो लोभ का त्याग करके संवर धर्म का पालन करो।
समरादित्य चरित्र में गुणसेन व अग्निशर्मा की जो भव परंपरा आगे बढ़ती है उसके तीसरे जन्म मे शिखिकुमार ने आचार्यदेव श्री विजयसिंह सूरि महाराज से वैराग्य का
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है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!