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कारण पुछा । उन्होने अपने पूर्व जन्म की भव परंपरा का कारण बतलाते कहा कि लोभवृत्ति के कारण हमारे कितने जन्म हुए। कितनी लंबी वैर वृत्ति लोभ के कारण चली ये विचार करने जैसी बात है।
३१) गुणचंद्र और बालचंद्र
अमरपुर शहरमें अमरदेव सेठके दो पुत्र गुणचंद्र और बालचंद्र थे । व्यापार के लिए विदेश गया। खब धन प्राप्त करके, बाकीकी चीजे बेचकर उन्हें हीरे, मोती रत्न सोनाचांदी आदिजेवरों में बदलकर स्वदेश लौट रहे थे। तभी उन्हे समाचार मिले की अमरपुर देश में युद्ध चल रहा है। चारों तरफ प्रजाजन भाग रहे थे। दोनो भाई भी नजदीक के विजयलक्ष्मी पर्वत पर चढ़ गए। आपसमें विचार विमर्श करके सारा धन एक सोने के कुंभ में भरके यहीं जमीनमें गाढ़ दिया। फिर वहाँ से चले गए। कुछ दिनों पश्चात युध्ध समाप्त हो गया।
दोनो के मन में लोभवृत्ति जागी गुणचंद्र ने सोचा कि ये सारा धन मैं ही ले जाऊँ, सब मुझे ही मिले। यह सोचकर बडे भाई ने छोटे बालचंद्र को जहर देकर मार डाला | लोभ की ताकात कितनी ? एक ही माता की दो संतान - एक ही खुन - फिर भी लोभ की पीछे पागल व्यक्ति, सगे भाई को मारने में झिझक महसुस नहीं करती। धन के बारे में वह सोचकर खुश होने लगा पर उसकी खुशी ज्यादा समय नहीं टिकती तीव्रता से किये हुए पाप का फल भी उसे शीघ्र मिला
और अशुभ कर्म होने के कारण फल भी अशुभ प्राप्त हुआ। गणचंद्र को सर्प ने पर्वत पर ही डंस लिया और वह जहर की तीव्र असर से तुरंत ही मर गया । इस तरह दोनों भाइयों ने पर्वत पर ही दम तोड़ दिया और धन वहीं रहा।
___धन के पीछे दोनो भाइयों का मनुष्य जीवन निष्फल गया । गुणचंद्र मर कर नरकमें गया और बालचंद्र व्यंतर देव बना। अगले जन्म में बालचंद्र का जीव देवदत्त नामका सार्थवाह का पुत्र बना। गुणचंद्र का जीव सर्प बना और जहाँ धन छुपाया था, वहाँ रहने लगा। बालचंद्र का जीव सार्थवाह का पुत्र लक्ष्मीनिलय पर्वत पर दोस्तो के साथ गया वहाँ धन लेने को झुका और उसे गुणचंद्र का जीव सर्प ने डंस लिया और वह मर गया।
वहाँ वस्तुपाल-तेजपाल के द्रष्टाँत याद आते है। जब आत्मा की परिणती शुभ हो तो शुभफलकी प्राप्ति होती है। वस्तुपाल-तेजपाल जब धन छुपाने गये तब उन्हे और ज्यादा गाड़ा हुआ धन मिल गया । बालचंद्र के जीव को खुद का धन ही लेने में सपने डंस लिया । अध्यव्यवसाय मे यहाँ लोभ रहा है। देवदत्त के दोस्तो ने उस सर्प को पत्थर से मार डाला। सर्प वह पर्वत पर सिंह बना। बालचंद्र का जीव इन्द्रदेव नामका मनुष्य बना। वह शिकार करने वही लक्ष्मी निलय पर्वत पर गया। उसने सिंह देखकर तीर छोडा । सिंहने भी उस पर वार किया। इन्द्रदत मर गया और तीर के गाव से सिंह भी मौत की शरण मे पहुँच गया । दोनों मरकर युगल पुत्र के रुप में चांडल के घर जन्म लिया ।
एक का नाम कालसेन और दुसरे का चंद्रसेन । एक बार दोनों डुक्कर को लेकर लक्ष्मीनिलय पहाड पर गये। वहां पर गत जन्म में उन्होने जहाँ धन छुपाकर रखा था वहीं पर उस भंड को मार कर पकाने लगे। लकडी जली और वहाँ सोना के चरु के पास जा गिरी। सोना लेने के लिये कालसेन ने चंद्रसेन को मार डाला । दुसरे चंडालो ने चंद्रसेन को मार डाला।
दोनो भाई मरकर नरकमें नारकी के जीव बने । वहाँ भयंकर सजा भुगतने के बाद एक ने गृहस्थपुत्र के रुप में
और दुसरा उसी घर में दासीपुत्र के रुप में जन्म लिया । उनके नाम समुद्रदत्त और मंगलक थे। दोनों मित्र बन गये । मंगलक विश्वासघाती था । समुद्रदत्त की शादी हुई, पत्नि को लेने वह मंगलक के साथ लक्ष्मीनिलय पर्वत आया । वहाँ दोनों वृक्ष के नीचे बैठे । धन का राग जागृत हुआ और मंगलक ने माया से समुद्रदत्त को पेटमें छुरी मारकर भाग गया, पर बह बच गया था उसने संसार की असार जानकर योग्य आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । मंगलक मरने के बाद छट्टी नरक में गया । समुद्रदत्त उत्तम चारित्र निर्माण कर ग्रेवेयेक देवलोक में गया । मंगलक नरक में से आकर पशु बकरा बना । एक गोबाला उसे चरने के लिए वही पहाड पर ले गया। लोभवशात् वही जगह पर वह बैठ गया। गोबाल ने उसे बहुत मारा तो वह मर गया और वहाँ पर चुहा बनकर बील में रहने लगा। बील में से हीरे-पन्ने, मोती से खेलकर प्रसन्न रहता।
है प्रभु ! मुझे नरक नहीं जाना है !!!
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