Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 325
________________ ३२० मूलसूत्र : एक परिशीलन प्रविष्ट हो गये । अवस्वापिनी विद्या से सबको नींद की गोद में सुलाकर तालोद्घाटन विद्या के प्रयोग से ताले खोल दिये और जैसे 'मधुबिन्दु' पर मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, वैसे ही यह दस्यु दल धन की पेटियों पर जा लपका। धन के गट्ठर बाँधकर जैसे ही वे उठाने को तत्पर हुए कि उनके हाथ गट्ठरों पर और पैर धरती से चिपक गये। सभी चित्रलिखित सम स्तम्भित हो गये । १३६ प्रभव दूर खड़ा खड़ा अपने साथियों को गट्ठर उठाकर चलने का आदेश दे रहा था, किन्तु अपनी शारीरिक शक्ति का पूर्ण उपयोग करने पर भी तस्कर - दल स्वयं को इंच मात्र भी हिला नहीं पा रहा था । कुशाग्र बुद्धि का धनी प्रभव समझ गया कि अवश्य ही यहाँ किसी शक्तिशाली विद्या के प्रयोक्ता ने प्रयोग किया है अन्यथा मेरे संकेत मात्र पर प्राण न्योछावर कर देने वाला मेरा दल मेरी आज्ञा की अवहेलना क्यों करता और क्यों निष्क्रिय बनता ? अवश्य ही इसमें कोई रहस्य है । हो सकता है, जिसकी शब्द- तरंगें मेरे कर्णकुहरों से टकरा रही हैं, वह मुझसे अधिक शक्तिशाली मानव है, उसी ने मेरे दल पर स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग किया हो । प्रभव ने अपनी पैनी दृष्टि से चारों ओर देखा कि ऋषभदत्त के महल के सबसे ऊपरी गवाक्ष से छनकर प्रकाश किरणें आ रही हैं। वह विद्युत् वेग से जम्बूकुमार के शयन कक्ष तक पहुँचा । विरक्ति के स्वर उसके कानों से टकराये। वह विचार करने लगा - 'अहो ! सुहाग की प्रथम रात्रि में ये अध्यात्म के स्वर ! अवश्य ही यह कोई असाधारण पुरुष है।' चुम्बक - सा खिंचा हुआ प्रभव जम्बूकुमार के समक्ष खड़ा हो गया और अपना परिचय देते हुए बोला"मैं तस्करराज प्रभव हूँ । आपसे मैत्री - सम्बन्ध स्थापित करने की भावना से यहाँ आया हूँ। मैं अपनी 'अवस्वापिनी' और 'तालोद्घाटिनी' विद्या आपको प्रदान कर आपसे स्तम्भिनी और विमोचनी विद्याएँ ग्रहण करना चाहता हूँ।” - ,१३७ जम्बूकुमार ने मुस्कराते हुए कहा- "स्तेनसम्राट् ! मेरे पास न कोई भौतिक विद्या है और न ही मुझे इनकी आवश्यकता है। मेरी दृष्टि में अध्यात्म विद्या से बढ़कर कोई विद्या, मंत्र या शक्ति नहीं है। मैं तो प्रभात होते ही इस धन-सम्पदा और रूप- सम्पदा का त्यागकर आर्य सुधर्मा स्वामी के पास संयम अंगीकार करूँगा।" जम्बूकुमार की बात सुनकर प्रभव अवाक् रह गया । वह कुछ क्षण तक जम्बू के शान्त, शीतल, तेजस्वी मुखमण्डल को निहारता ही रह गया । उसके अन्तःकरण में एक झटका सा लगा। उसका अन्तर्मन उद्वेलित हो उठा। उसके मन में अन्तःस्फुरणा झंकृत हो उठी-"अरे प्रभव ! देख, कहाँ तू और कहाँ यह जम्बू ! यह तो प्राप्त भोगों और सुख-साधनों को ठुकरा रहा है और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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