Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 370
________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३६५ * से आपकी अभिरुचि आगमिक सिद्धान्तों का गूढ़ रहस्य प्रतिपादन करने की ओर रही है। आप वृत्तिकार ही नहीं, भाष्यकार भी थे। नन्दीसूत्र पर आपके द्वारा लिखी हुई बृहद् वृत्ति का ग्रन्थाग्र ७,७३२श्लोक परिमित माना गया है। नन्दीसूत्र पर हारिभद्रीया वृत्ति याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र हरिभद्रसूरि जी ब्राह्मण वर्ण से आए हुए वेदवेदांग शास्त्रों के विद्वान्, जैनागमों के अनेकान्त सिद्धान्त-समन्वित युगप्रवर्तक, समन्वयवादी व्याख्याकार हुए हैं। आपने अपने जीवन में जैन सिद्धान्तों के रहस्य का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, विंशतिविंशिका धूर्ताख्यान, समराइच्चकहा आदि अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना आदि कतिपय आगमों पर संस्कृत में वृत्तियाँ लिखी हैं। कहते हैं, आपने अपने जीवन में १,४४४ ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से आज तो कतिपय ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। आपकी लेखनी संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर समान रूप से चली थी। नन्दीसूत्र पर आपकी लिखी हुई संस्कृत वृत्ति लघु होती हुई भी विराट् रहस्य को उदघाटित करने वाली है। उसका ग्रन्थाग्र २.३३६ श्लोक परिमित माना गया है।२३° मेरुतुंगावार्य प्रणीत विचार श्रेणी के अनुसार आपका समय विक्रम संवत् छठी शताब्दी सिद्ध होता है। हरिभद्रसूरि जी विक्रम सं. ५८५ में दिवंगत हुए, इस गाथा के अनुसार छठी शताब्दी ही प्रमाणित होती है।२३१ नन्दीसूत्र पर टिप्पणी नन्दीसूत्र पर चन्द्रसूरि जी ने ३,००० श्लोक-परिमाण टिप्पणी भी लिखी है। नन्दीसूत्रगत विषय को विषयरूप से समझने हेतु विशेषावश्यक भाष्य ___ किसी जिज्ञासु को नन्दीसूत्रगत ज्ञान के विषय को स्पष्ट रूप से समझना हो तो जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण-प्रणीत विशेषावश्यक भाष्य तथा उस पर कोट्याचार्य की संस्कृत टीका देखनी चाही। यह आगमों का मन्थन महाकोष है। इसमें नन्दीसूत्र एवं अनुयोगद्वार दोनों शास्त्रों का विस्तृत विवेचन है। भाषा प्राकृत गाथाओं में रचित है, उस पर टीका संस्कृत भाषा में निबद्ध है। गाथाओं की कुल संख्या ३,६०० है। भाषा सुगम है, किन्तु भाव गम्भीर है। वैदिक, बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शन आदि का परिज्ञान हो तो इसे समझना आसान होगा। जिनभद्रगणी का समय ईस्वी सन् ६०९ निश्चित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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