Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३७१
:
का
३५. उत्तराध्ययन, अ. २९ का प्रारम्भ, तथा भगवती, अन्तकृद्दशा आदि शास्त्र-पाठों
का प्रारम्भ। ३६. नन्दीसूत्र दिग्दर्शन (सम्पादक-उपाध्याय श्री फूलचन्द जी म. 'श्रमण') से भाव
ग्रहण, पृ. ५८ ३७. (क) श्री अनुयोगद्वारसूत्र (आत्मज्ञान पीयूषवर्षिणी टीका समन्वित) के आमुख से
भाव ग्रहण, पृ. १०-११ (ख) “श्रूयते आत्मना तदिसि श्रुतशब्दः।" -विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति (ग) “श्रुतं शब्दः, कर्मसाधनश्च।" । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/९/२
(घ) तत्त्वार्थभाष्य के विश्रुत टीकाकार सिद्धसेनगणी ३८. अनुयोगद्वार सूत्र (आत्मज्ञान पीयूषवर्षिणी, हिन्दी टीका समन्वित) के आमुख से
भाव ग्रहण, पृ. ११ ३९. वही, पृ. ११ ४०. वही, पृ. १२ ४१. “सुय-सुत्त-गंथ-सिद्धंत चवयणे आण-वयण-उवएसे पण्णवण आगमे वा एगट्ठा
पज्जया सुत्ते।" -अनुयोगद्वार ४, विशेषावश्यक भाष्य, गा. ८/९७ ४२. (क) नन्दीसूत्र दिग्दर्शन (उपाध्याय श्री फूलचन्द जी म. 'श्रमण') से साभार भाव
ग्रहण, पृ. १० (ख) इह हि यद् भूतभावं भाविभावं वा वस्तु तद् यथाक्रम, विवक्षित भूत भावि
भावापेक्षया द्रव्यमिति तत्त्ववेदिनां प्रसिद्धिमुपागमत्। उक्तं च"भूतस्य भाविनो भावा, भावस्य हि कारणं यल्लोके।
तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतनाचेतनं कथितम्॥" ४३. (क) नन्दीसूत्र दिग्दर्शन (उपाध्याय श्री फूलचन्द जी म. 'श्रमण') से साभार भाव
ग्रहण, पृ. ११ (ख) “उपयोगो भावलक्षणम्।"
(ग) “भावम्मि पंच नाणाई।" ४४. देखें-दशवैकालिकसूत्र, अ. ९, उ. ४, सू. ३ में श्रुतसमाधि का वर्णन
स्वाध्याय के पाँच अंगों से होने वाले लाभ-(१) सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ। (२) वायणाए णिज्जरं जणयइ, सुयस्स अणासायणाए वहइ। अणा सायणाए वट्टमाणे तित्थ धम्मं अवलंबइ, तित्थ धम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। (३) पडिपुच्छणयाए सुत्तत्थ-तदुभयाइं विसोहेइ। कंखामोहणिज्जं कम्मं वोछिंदइ। (४) परियट्टणाए वंजणाई जणवई। वंजण लद्धिं च उप्पाएइ। (५) अणुप्पेहाए आउय वज्जाओ सव्वकम्म पगडीओ पगरेइ अणाइयं चं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पमेव वीइवयइ। (६) धम्म कहाए निज्जरं जणयइ। पवयणं पभावेइ। पवयणपभावेणं जीये
आगमेस्स भद्दताए कम्मं निबंधइ। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, सू. १८-२३ ४६. नन्दीसूत्र दिग्दर्शन से भाव ग्रहण ४७. (क) विशेष जानकारी के लिए देखें-'नन्दिसुत्तं अणुओगद्दाराइं च' (सं. मुनि श्री
पुण्यविजय जी म.)
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