Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 372
________________ नन्दीसत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३६७* और न ही अत्यन्त संक्षिप्त है, किन्तु नन्दीसूत्र के मूल पाठ का शब्दार्थ, भावार्थ देने के साथ-साथ सूत्रस्पर्शिक विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है, यत्र-तत्र टिप्पणी से तथा अन्त में परिशिष्ट एवं प्रारम्भ में विषयानुक्रमणिका देकर व्याख्या ग्रन्थ को सर्वांग सम्पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है। नन्दीसूत्र में वर्णित ज्ञान का अन्य आगमों में भी वर्णन ___ नन्दीसूत्र में प्रतिपादित 'ज्ञान' के विषय का वर्णन अन्य आगमों में भी मिलता है। जैसे कि अनुयोगद्वारसूत्र में पंचविध ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है। आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक भाष्य में भी पंचविध ज्ञान का विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है। स्थानांगसूत्र के द्वितीय स्थान में विभिन्न प्रकार से दो-दो ज्ञानों का निरूपण किया गया है। इसी सूत्र के छठे स्थान में आभिनिबोधिक, अवधिज्ञान तथा मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के प्रत्येक के छह-छह भेदों का निरूपण है। समवायांगसूत्र के २८वें समवाय में मतिज्ञान के २८ भेदों का निरूपण है। इसके अतिरिक्त द्वादशांगी श्रुत (ज्ञान) का परिचय नन्दीसूत्र की तरह समवायांगसूत्र में भी किया गया है, परन्तु वह नन्दीसूत्र से कुछ भिन्न है। प्रज्ञापनासूत्र के ३३वें पद में अवधिज्ञान के विषय, संस्थान आदि पर प्रकाश डाला गया है। इसी सत्र के २१वें पद में आहारकशरीर का वर्णन नन्दीसूत्र के मनःपर्यवज्ञान के वर्णन से मिलता-जुलता है। प्रज्ञापनासूत्र, सू. ६-७ में सिद्धपद का वर्णन है। भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र के श. २५, उ. ३ में गणिपिटक के प्रकार का वर्णन है तथा भगवतीसूत्र, श. ८, उ. २, सू. ३१८-३२३ में ज्ञान और ज्ञानी से सम्बन्धित विषयों का विस्तृत वर्णन है। नन्दीसूत्र के स्वाध्याय से विशिष्ट लाभ ___ नन्दीसूत्र का स्वाध्याय प्रत्येक साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका के लिए अवश्य करणीय है। नन्दीसूत्र के अर्थ, विवेचन एवं हार्द को समझकर वाचनादि पंचांगयुक्त स्वाध्याय करने से आत्मा में निहित अनन्त ज्ञानविधि और उसे प्रगट करने के उपायों का ज्ञान होता है। ऐसे स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भी होता है, ज्ञान की अभिवृद्धि होती है, दर्शन विशुद्ध बनता है। फलतः चारित्र निर्दोष हो जाता है। तीनों की पूर्णता से निर्वाण का महालाभ मिलता है। तथैव नन्दीसूत्र के स्वाध्याय से आनन्द और मंगल की अमृत-वृष्टि होती है। साथ ही लौकिक और लोकोत्तर ज्ञान की उपलब्धि, ज्ञाता-द्रष्टा भाव की सतत प्रबुद्धता (जागरूकता) की प्रेरणा, पूर्ण ज्ञान के लिए सतत स्वभाव में रमणतारूप समाधि ! यही है, नन्दीसूत्र के स्वाध्याय की अनुपम फलश्रुति ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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