Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 358
________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३५३ जिनाज्ञा - प्रतिपालक श्रावक थे। गृहस्थ जीवन में आचार्य स्कन्दिल का नाम सोमरथ था । २१३ नीलोत्पल की भाँति श्यामवर्ण वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र के विद्वान् शिष्य ब्रह्मदीपकसिंह आचार्य स्कन्दिल के गुरु थे। प्रभावक चरित्र के अनुसार आचार्य स्कन्दिल विद्याधरी आम्नाय के आचार्य पादलिप्तसूरि की परम्परा के थे । जैनशासनरूपी नन्दनवन में कल्पवृक्ष के समान, समग्र श्रुतानुयोग को अंकुरित करने में आचार्य स्कन्दिल महामेघ सम बने। उनके लिए कहा गया“चिन्तामणिरिवेष्टदः ।" अर्थात् वे (संघ पर विपत्ति के समय ) चिन्तामणि के समान इष्ट वस्तु के प्रदाता बने । अगाध ज्ञान के धनी, वाचक वंश परम्परा के प्रभावक आचार्य स्कन्दिल एवं आचार्य नागार्जुन वाचनाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये अनुयोगधर आचार्य थे । २१४ भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् अब तक चार वाचनाओं का उल्लेख मिलता है। प्रथम वाचना पाटलिपुत्र आचार्य भद्रबाहु की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई थी। उस समय दुष्काल के प्रभाव से श्रुतधर मुनियों की क्षति होने पर भी श्रुत की धारा सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुई थी। उसके बाद वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रुत विनाश का महान् आघात जैनशासन को लगा । इस द्वादशवर्षीय दुष्काल के प्रभाव से अनेक श्रुतधर मुनि वैभारगिरि तथा कुमारगिरि पर्वत पर अनशनपूर्वक स्वर्गस्थ हो चुके थे। इस अवसर पर आगमश्रुत की महती क्षति हुई। अनेक श्रुत-सम्पन्न मुनि काल के गाल में समा गये । सूत्रार्थग्रहण एवं उनके परावर्तन के अभाव में रहा-सहा श्रुत भी विस्मृत हो गया था । बहुसंख्यक मुनिगण सुभिक्ष वाले सुदूर प्रदेशों में विहार कर गये थे। जैनशासन के सामने श्रुतरक्षा का विकट प्रश्न था । ऐसी विकट परिस्थिति में दुष्काल की परिसमाप्ति के पश्चात् मथुरा में श्रमण-सम्मेलन हुआ। सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने सँभाला। कतिपय श्रुत-सम्पन्न मुनि इस सम्मेलन में उपस्थित हुए। जिन-जिन मुनियों को जितना - जितना स्मृति में था, वह सर्वश्रुत एकत्रित किया गया। कालिकश्रुत तथा पूर्वश्रुत सब व्यवस्थित रूप से संकलित किया गया। इस द्वितीय आगम-वाचना का समय वीर निर्वाण ८२७ से ८४० (विक्रम सं. ३५७ से ३७०) का मध्यकाल है । यह आगम-वाचना मथुरा में होने से माथुरी वाचना कहलाई । आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में होने के कारण इसे स्कन्दिली वाचना भी कहा जाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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